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कल्याण सिंह-अयोध्या आंदोलन: बाबरी विद्वंश से क्यों जुड़ा इनका नाम, जाने इतिहास
इन दिनों अयोध्या में राममंदिर के लिए होने वाले शिलान्यास की चर्चा जोरो पर है । साथ ही मंदिर निर्माण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नेताओं और साधु संतो के बीच भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की भूमिका को भी रामभक्त खूब याद कर रहे है।
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: इन दिनों अयोध्या में राममंदिर के लिए होने वाले शिलान्यास की चर्चा जोरो पर है । साथ ही मंदिर निर्माण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नेताओं और साधु संतो के बीच भाजपा के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की भूमिका को भी रामभक्त खूब याद कर रहे है। जहां पार्टी के अन्य नेताओं ने अयोध्या आंदोलन के दौरान अपनी- अपनी भूमिकाओं को बखूबी निभाया वहीं कल्याण सिंह को सत्ता के परित्याग की बात को लोग आज खूब याद कर रहे है।
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कल्याण सिंह का राजनीतिक कैरियर
कल्याण सिंह का जन्म अतरौली के गांव मढ़ौली में पांच जनवरी वर्ष 1932 को हुआ था। युवावस्था में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुडने के बाद वह प्रचारक बने। इसके बाद राजनीति में उतरने वाले कल्याण सिंह ने अपनी पारी जनसंघ से शुरू की थी। पहली बार वह वर्ष 1967 में अलीगढ की अतरौली से विधायक बने। 1977 की जनता पार्टी की प्रदेश सरकार में वह मंत्री भी बने। बाद में 1980 भारतीय जनता पार्टी के गठन के बाद वह इसी पार्टी में ही रहे। पार्टी की स्थापना के बाद 1989 में प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष भी बने।
नब्बे के दशक में अयोध्या आंदोलन मे बनी पहचान
नब्बे के दशक में राममंदिर आंदोलन के अगुवाकार रहे कल्याण सिंह ने जब बाबरी विध्वंस के बाद अपनी सरकार दांव पर लगाई तो उनका पूरे देश में नाम हो गया। हिन्दू जनमानस के दिलों में उनकी एक खास जगह बन गयी और वह राष्ट्रीय परिदृष्य में आ गए। एटा से निर्दलीय और बुलन्दशहर से भाजपा के सांसद रहे कल्याण सिंह प्रदेश में 1991 में बनी भाजपा की पहली पूर्ण बहुमत की सरकार में मुख्यमंत्री बने थे। कल्याण सिंह जो प्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री, भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष तथा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके है।
उन्हे पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बनाया गया। इसके बाद भी 1997 में साझा सरकार में उन्हे फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया। इसी बीच चाहे वह विधानसभा का चुनाव हो लोकसभा का हो अथना स्थानीय निकाय का ही चुनाव क्यों न हो, कल्याण सिंह अपनी प्रभावी भूमिका निभाते रहे हैं। इसी बीच उन्होंने भाजपा भी छोडी पर फिर से शामिल हुए।
अटल से मतभेद के बाद पार्टी से हुआ था निष्कासन
भाजपा के शीर्षस्थ नेता अटल बिहारी बाजपेयी से छत्तीस का आंकड़ा रहा। जिसके चलते उन्हे मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। यही नहीं इसी मुद्दे को लेकर पहले उन्हे भाजपा से निष्कासित किया गया जिसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया। लेकिन बडी सफलता मिलती न देख वह फिर से भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा से अलग होने के बाद उनकी नजदीकियां सपा और मुलायम सिंह से भी रही। 2004 के लोकसभा चुनाव से पूर्व वे अपने कुनबे के साथ भाजपा में शामिल हो गए। दूसरी बार पार्टी में वापसी के एक बार फिर उनका भाजपा से मोहभंग हुआ और उन्होंने उससे पल्ला झाड़कर जनक्रांति पार्टी (राष्ट्रवादी) का गठन किया। भाजपा से अलग होकर उनकी यह दूसरी पारी भी फेल साबित हुई।
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भाजपा में लौटे तो मोदी सरकार में बने राज्यपाल
वर्ष 1999 में भाजपा छोड़ कर खुद की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई। उनकी पार्टी जब कुछ खास नहीं कर पाई तो वर्ष 2004 में वह भाजपा में फिर से वापस आ गए। वर्ष 2009 में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से फिर मनमुटाव हुआ तो भाजपा से अलग हो गए । इसके बाद वर्ष 2012 में फिर भाजपा में वापस हुए। जब 2014 में केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी तो उन्हे राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। अब अपना कार्यकाल पूरा कर घर पर आर्म कर रहे हैं। उनके पुत्र राजबीर सिंह दूसरी बार एटा से सांसद है जबकि उनके पौत्र संदीप सिंह योगी सरकार में राज्यमंत्री है।
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