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मंज़र लखनवी: "आप की याद में रोऊँ भी न मैं रातों को, हूँ तो मजबूर मगर इतना भी मजबूर नहीं"

1905 में उन्हें ज़माना पत्रिका का सहायक संपादक नियुक्त किया गया, लेकिन उन्होंने 1911 में इस्तीफा दे दिया। उसके बाद कानपुर आकर आजाद समाचार पत्र का संपादन संभाला।

Roshni Khan
Published on: 10 Jun 2020 11:21 AM GMT
मंज़र लखनवी: आप की याद में रोऊँ भी न मैं रातों को, हूँ तो मजबूर मगर इतना भी मजबूर नहीं
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शाश्वत मिश्रा

"आप की याद में रोऊँ भी न मैं रातों को

हूँ तो मजबूर मगर इतना भी मजबूर नहीं।"

ये शे'र है 'मंज़र लखनवी' का। इनका असली नाम जाफ़र हुसैन था। लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं या यूँ कहें कि यहीं के मूल निवासी थे। यहाँ के किथा परिवार से संबंधित थे।

साल 1866 में इनका जन्म हुआ। फारसी, उर्दू और अंग्रेजी अच्छी तरह से जानते थे। वे शुरू से ही कविता में रुचि रखते थे। 'मंज़र लखनवी' अघाज़ मज़हर के छात्र थे।

किसी आँख में नींद आए तो जानूँ

मिरा क़िस्सा-ए-ग़म कहानी नहीं है।

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1905 में उन्हें ज़माना पत्रिका का सहायक संपादक नियुक्त किया गया, लेकिन उन्होंने 1911 में इस्तीफा दे दिया। उसके बाद कानपुर आकर आजाद समाचार पत्र का संपादन संभाला। बाद में वे मनोरंजन का संपादन करने के लिए लखनऊ चले गए। फिर ओड अख़बार के संपादक बने। लेकिन बीमार स्वास्थ्य के कारण उन्हें वहाँ से हटा दिया गया। अंत में, वे कुछ समय के लिए खादिम हिंद समाचार पत्र के संपादक भी रहे।

सज्दे करता जा रहा हूँ कू-ए-जानाँ की तरफ़

रास्ता बतला रही है मेरी पेशानी मुझे।

इनके बारे में एक बात बड़ी ख़ास है जो उस समय लोग करते रहते थे। ये दिखावे और अहंकार से बिल्कुल मुक्त थे।वे एक उच्च प्रोफ़ाइल निबंधकार होने के अलावा, एक सुलेखक और चित्रकार भी थे।

मोहब्बत तो हम ने भी की और बहुत की

मगर हुस्न को इश्क़ करना न आया।

इनके शे'र इस ज़माने में बड़ी जान रखते हैं। लोग इनके शे'र-ओ-ग़ज़ल पढ़ते हैं। उसके भाव को समझते हैं, और फ़िर अपने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर, उसकी तासीर को अपने दिल में सहेज कर रख लेते हैं।

ग़म में कुछ ग़म का मशग़ला कीजे

दर्द की दर्द से दवा कीजे।

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इनके शे'रों में रुमानियत झलकती है, लेकिन अधूरे इश्क़ को बाहों में लपेटे। इनको वैसा मुक़ाम तो नहीं मिला, जितना लखनऊ के दूसरे शायरों जैसे मजाज़ लखनवी, शाद लखनवी, असर लखनवी और सफ़ी लखनवी को मिला। लेकिन इनके शे'रों में जो दर्द था वो किसी से छुपा नहीं है। आज भी लखनऊ में कोई मुशायरा इनके ज़िक्र के बग़ैर ख़त्म नहीं होता।

मुद्दतों बा'द कभी ऐ नज़र आने वाले

ईद का चाँद न देखा तिरी सूरत देखी।

'मंज़र लखनवी' तरक्कीपसंद नहीं थे। इनको वैसी ख़्याति भी नहीं नसीब हुई, जिनके ये हक़दार थे। लेकिन शहर-ए-अदब-ओ-तहज़ीब के इस कलमगार ने अपनी कलम को ही अपनी पेशानी समझा। इनके कुछ शे'र ऐसे हैं जो आज भी ध्यान खींचने के लिए काफ़ी हैं।

दो घड़ी दिल के बहलाने का सहारा भी गया

लीजिए आज तसव्वुर में भी तंहाई है।

वो तो कहिए आप की उल्फ़त में दिल बहला रहा

वर्ना दुनिया चार दिन भी रहने के क़ाबिल न थी।

'मंज़र लखनवी' की ग़ज़लों और शायरियों का संग्रह उनकी किताब दीवान-ए-मंज़र में मिलती है। जो 1959 में प्रकाशित हुई थी। उसी के छः वर्षों बाद 28 मई 1965 को इनकी मृत्यु हो गयी।

अहल-ए-महशर देख लूँ क़ातिल को तो पहचान लूँ

भोली-भाली शक्ल थी और कुछ भला सा नाम था।

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इनके बारे में 'ज़माना' के संपादक मुंशी दीया नारायण निगम कहते हैं- 'प्रकृति ने उसे बहुत विनम्र और मधुर स्वाद दिया था। बचपन में, उन्हें बहुत अच्छा साथी मिला, जिससे स्वभाव में सुधार, स्वभाव में गंभीरता और आदतों में गंभीरता आई। मन दुष्ट था। विचार की गुणवत्ता बहुत अधिक थी और महत्वाकांक्षी रूप बहुत अधिक था।'

अपनी बीती न कहूँ तेरी कहानी न कहूँ

फिर मज़ा काहे से पैदा करूँ अफ़्साने में।

अब इतना अक़्ल से बेगाना हो गया हूँ मैं

गुलों के शिकवे सितारों से कह रहा हूँ मैं।

कभी तो अपना समझ कर जवाब दे डालो

बदल बदल के सदाएँ पुकारता हूँ मैं।

मुद्दतों बा'द कभी ऐ नज़र आने वाले

ईद का चाँद न देखा तिरी सूरत देखी।

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