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सबकी जेब में पैसा: कितनी हकीकत कितना फसाना
सबको निश्चित आमदनी या यूनिवर्सल बेसिक इनकम का सवाल कोरोना संकट काल में पूरी दुनिया में उठ खड़ा हुआ है।
लखनऊ: सबको निश्चित आमदनी या यूनिवर्सल बेसिक इनकम का सवाल कोरोना संकट काल में पूरी दुनिया में उठ खड़ा हुआ है। मांग हो रही है कि सरकारों को अपने सभी नागरिकों को एक निश्चित रकम हर महीने देनी चाहिए। कम से कम इस संकट के काल में तो अवश्य ही देनी चाहिए जब खासकर निर्धन और माध्यम वर्ग के लोगों पर जबर्दस्त आर्थिक चोट पहुंची है।
कोरोना काल में वैसे अमेरिका, जर्मनी, कनाडा आदि देशों में सभी लोगों को एक नियत धन दिया गया है। अमेरिका और कनाडा में 2 से ढाई हजार डालर प्रतिमाह की दर से समान रूप से प्रत्येक परिवार को दिये गए हैं। भारत में सबको तो नहीं, लेकिन गरीबों को कुछ पैसे जरूर दिये गए हैं। कोरोना महामारी के बाद स्पेन में भी नौकरी खो चुके निर्धन लोगों को बेसिक इनकम दी जा रही है। ये जरूरत सब जगह महसूस की जा रही है कि लोगों की न्यूनतम बेसिक जरूरतें पूरी करने के लिए उनकी मदद की जानी चाहिए।
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यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम
यूनिवर्सल बेसिक इनकम एक ऐसा विचार है जिसे सन 1516 में थॉमस मोर ने अपनी ऐतिहासिक कृति ‘यूटोपिया’ में बताया था। यूनिवर्सल बेसिक इन्कम यानी सबको एक बेसिक निश्चित आमदनी या सबको तनख्वाह का मतलब होता है किसी जगह पर रहने वाले सभी लोगों को एक नियमित आय की गारंटी देना। इस योजना में अधिकांशत: एक न्यूनतम राशि वहां रहने वाले लोगों को दे दी जाती है। इस राशि को वो अपने हिसाब से खर्च करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। लंदन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ ऑरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में प्रॉफेसर गाय स्टैंडिंग ने 80 के दशक की शुरुआत में यूनिवर्सल बेसिक इनकम का सुझाव दिया था।
हालांकि गाय का कहना है कि इस स्कीम के तहत सिर्फ एक खास तरह के लोगों की जगह सभी लोगों को एक निश्चित राशि दी जाए। उनका तर्क है कि यह फिजूलखर्ची नहीं है। जब लोगों के हाथ में पैसा पहुंचेगा तो उनके अंदर और पैसा कमाने की भावना पैदा होगी और वो ज्यादा काम करेंगे। साथ ही, जब लोगों को यह चिंता नहीं रहेगी कि वो कल भूखे रहेंगे तो वो मानसिक रूप से भी तनावमुक्त रहेंगे और अच्छे से काम कर सकेंगे।
कहाँ लागू हुई ये स्कीम
कई सारे देशों में सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी ऐसी योजनाएं काम कर रही हैं जिनमें हर नागरिक के लिए एक न्यूनतम आमदनी सुनिश्चित की जाती है। जर्मनी, फ्रांस, सायप्रस, अमेरिका, ब्राजील, कनाडा, अल्जीरिया, डेनमार्क, फिनलैंड, ऑस्ट्रिया, आइसलैंड, आयरलैंड, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड्स, नॉर्वे, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन, स्वि़ट्जरलैंड और ब्रिटेन में कुछ शर्तों के साथ ऐसी योजनाएं चल रही हैं। केन्या में तो 12 साल से 300 गाँव में ये योजना चल रही है।
भारत में सेल्फ एंप्लॉयड वुमेन एसोसिएशन (सेवा भारत) नाम की एक संस्था ने साल 2011 से 2016 के बीच मध्य प्रदेश में इंदौर के आठ गांवों में मध्य प्रदेश अनकंडीशनल कैश ट्रांसफर प्रॉजेक्ट नाम से एक पायलट प्रॉजेक्ट चलाया। जिसके तहत करीब 6,000 लोगों को सीधी मदद दी गई। यूनिसेफ फंडेड एक योजना भी 30 गाँव में चली थी जिसमें लोगों को निश्चित रकम हर महीने दी गई। इन योजनाओं के बढ़िया नतीजे रहे। लोगों का जीवनस्तर, शिक्षा, स्वास्थ्य, असमानता सभी में सकारात्मक फर्क आया। प्रयोग के तौर पर केन्या, नामीबिया, कनाडा, आदि देशों में ऐसी योजनाएँ चलाई जा चुकीं हैं।
इसके लिए पैसा कहां से आएगा?
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि विकसित देशों में टैक्स प्रणाली इस तरह होती है कि सरकारी खजाने का एक बहुत बड़ा हिस्सा इनकम टैक्स से जुटाया जाता है। भारत सरकारी खजाने में केवल 17 प्रतिशत पैसा इनकम टैक्स से मिलता है। टैक्स की इस असमानता के कारण इस योजना को लागू करने में मुश्किलें हो सकती हैं। लेकिन दूसरा तथ्य यह है कि सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा सब्सिडी और गरीबों के लिए चलने वाली दूसरी अप्रत्यक्ष योजनाओं पर खर्च होता है। गरीब लोगों को सीधे खाते में पैसा देने के बाद ऐसी सब्सि़डी और योजनाओं की जरूरत नहीं रह जाएगी। ऐसे में इस पैसे की रिकवरी वहां से की जा सकती है।
कोई भूखा न रहे
मिनिमम बेसिक इनकम से यह बात सुनिश्चित हो सकेगी कि देश में कोई भूखा न रहे क्योंकि सबके पास इतना पैसा होगा। 119 देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 103वें नंबर पर है। साथ ही 189 देशों के मानव विकास सूचकांक में भी भारत 130वां देश है। ऐसे में इस स्कीम से इन सूचकांकों में भारत की स्थिति बेहतर होगी। हर साल आने वाला आर्थिक सर्वेक्षण भी सब्सिडी के बदले मिनिमम बेसिक इनकम का सुझाव देता है। सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की जगह अगर सीधा पैसा दिया जाए तो उससे बाजार में पैसा आएगा और लोगों की क्रय क्षमता भी बढ़ेगी।
लागू करने में परेशानियां
पैसे के अलावा इसके लिए एक रोडमैप की जरूरत है। अगर लोगों को बिना काम के घर बैठे पैसा मिलने लगा तो दूसरे लोगों में असंतोष की स्थिति पैदा हो सकती है। ऐसे में कुछ तय मानक हों जिससे सुनिश्चित हो सके कि किसी को घर बैठे या बिना कुछ किए ही पैसा न मिल रहा हो।
भारत की जीडीपी फिलहाल 207 लाख करोड़ रुपये है. और इसका 3.38 प्रतिशत यानी सात लाख करोड़ राजकोषीय घाटा है। अगर इस योजना को और मिला लिया जाए तो यह घाटा बढ़कर करीब साढ़े दस लाख करोड़ पहुंच जाएगा। भारत का स्वास्थ्य बजट जीडीपी का करीब 1.4 प्रतिशत है। इस योजना में होने वाला खर्च जीडीपी का 1.6 प्रतिशत होगा। मतलब यह सरकारी खजाने पर अतिरिक्त भार ही होगा। इसके लिए फंड जुटाना एक बड़ी चुनौती होगा।
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फिनलैंड के नतीजे
फिनलैंड की सरकार बीते दो साल से 2,000 नागरिकों को बिना किसी शर्त हर महीने 560 यूरो की बेसिक इनकम दे रही है। अब इस बेसिक इनकम एक्सपेरिमेंट के नतीजे सामने आ रहे हैं। फिनलैंड की सरकार बेसिक इनकम योजना की समीक्षा भी कर रहे हैं। राजनेता यह जानना चाहते हैं कि इस स्कीम का कुल खर्च कितना आएगा। उस खर्च की भरपाई कहां से की जाएगी। फिनलैंड के प्रयोग के बाद दुनिया के कई और देशों में भी इस प्रयोग को ध्यान दिया जा रहा है।
सफल या विफल आइडिया?
इसका एक दूसरा पहलू भी है। देश में अब भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो इसे एक नाकाम आइडिया करार देते हैं। इसे फेल कहने वाले बार बार कहते हैं कि इसका रोजगार सृजन में बहुत ही कम योगदान रहा है। फिनलैंड के सोशल इंश्योरेंस इंस्टीट्यूशन (केईएलए) की सीनियर रिसर्चर मिने यिल्कानो के अनुसार ये प्रयोग सफल रहा। पूरी दुनिया में किसी और देश ने कानून के आधार पर नेशनल बेसिक इनकम को लागू नहीं किया है। रोजगार के मामले में इसका बहुत बड़ा असर भले ही न दिखाई दे, लेकिन इसे विफल कहना ठीक नहीं होगा।
प्रयोग का अध्ययन करने के लिए जनवरी 2017 से दिसंबर 2019 तक के आंकड़े जुटाए गए। शोध में साफ पता चला कि हर महीने 560 यूरो पाने वाले लोगों में असुरक्षा और तनाव का स्तर बहुत कम था। कुल मिलाकर लोगों के जीवन में एक तरह की खुशहाली लौट आई। जिन्हें बेसिक इनकम मिल रही थी वे मानसिक रूप से बेहतर महसूस कर रहे थे। जब आप सुरक्षित और आजाद होते हैं तो आप बेहतर महसूस करते हैं।
यूनिवर्सल बेसिक इनकम के समर्थक
जर्मनी की फ्राइबुर्ग यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक पॉलिसी विभाग के डायरेक्टर प्रोफेसर बेर्नहार्ड नॉएमैर्केर कहते हैं कि बेसिक इनकम के मामले में विज्ञान, समाज से बहुत ही पीछे है। राजनेता इस बारे में हिचकिचाते दिखते हैं। यह सोचना और कहना आसान है कि लोग आलसी हो जाएंगे या फिर इसके लिए पैसा जुटाने का कोई रास्ता नहीं है। लेकिन जनता का दबाव ही राजनेताओं को नए रास्ते तलाशने के लिए मजबूर कर सकता है।
कोरोना वायरस जैसी महामारी ने दिखा दिया है कि ऐसी स्कीम कितनी जरूरी है। जर्मनी और यूरोपीय संघ के दूसरे देशों को लग रहा था कि बेसिक इनकम के बिना सब ठीक ही तो चल रहा है, ऐसे में इसकी क्या जरूरत? लेकिन अब कोरोना संकट ने दिखा दिया है कि परंपरागत और पुराने पड़ चुके सामाजिक कल्याण सिस्टम वाले देशों में स्थिति गंभीर हो रही है। डिजिटलीकरण के दौर में नए विकास और संकट के लिए हमें व्यवस्थित बेसिक इनकम करनी चाहिए। यह मॉर्डन मार्केट इकोनॉमी के लिए एक टिकाऊ और आशा से भरा मॉडल है।
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में पिछले साल चुनावों के बाद कहा था कि कांग्रेस अगर केंद्र की सत्ता में आई तो भारत में यूनिवर्सल बेसिक इनकम लागू करेगी। इसका मतलब देश के हर नागरिक की कुछ न कुछ आमदनी होगी चाहे वो कोई काम करते हों या न करते हों। इसके बाद से ही चर्चा शुरू हो गई कि इस योजना की रूपरेखा क्या होगी। बाद में राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस योजना की शुरुआती रूपरेखा का एलान किया। राहुल ने कहा कि भारत में रहने वाले हर परिवार की प्रति महीने आय 12,000 रुपये की जाएगी।
इस योजना का नाम "न्याय" रखा जाएगा। इस योजना के तहत आने वाले हर गरीब परिवार के लिए सालाना 72,000 रुपये की राशि रखी जाएगी। इसका मतलब है कि यदि किसी परिवार की मासिक आय 6,000 है तो उसे और 6,000 रुपये, यदि मासिक आय 10,000 है तो हर महीने 2,000 रुपये दिए जाएंगे। मतलब जिस परिवार की मासिक आय 12,000 से जितनी कम होगी उसे उतने ही पैसे दिए जाएंगे। राहुल ने कहा कि इसके लिए अर्थशास्त्रियों के साथ मिलकर सारी गणना कर ली गई है।
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फिनलैंड के टॉमस मुराया को बीते दो साल से सरकार हर महीने 560 यूरो तनख्वाह दे रही है। पेशे से पत्रकार टॉमस चार साल तक पक्की नौकरी खोजते रहे। इसी दौरान उन्हें पता चला कि सरकार ने उन्हें बेसिक इनकम एक्सपेरिमेंट के लिए चुना है। प्रयोग 2017 में शुरू हुआ। टॉमस कहते हैं कि ये एक बड़ी राहत थी क्योंकि दस्तावेजों के साथ इधर उधर जाने का झंझट खत्म हो गया।
इसका सकारात्मक असर टॉमस की जिंदगी पर पड़ा, वो अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सके। किताबें और कहानियां लिखने लगे। दो साल के भीतर टॉमस की दो किताबें पब्लिश हुईं। उन्होंने कई आर्टिकल लिखे और 80 नौकरियों के आवेदन भी भरे। एक और महिला को भी बेसिक इनकम एक्सपेरिमेंट से फायदा हुआ। हर महीने मिलने वाली रकम के कारण वह एक्सपीरिएंस जुटाने के लिए अलग अलग जगहों पर इंटर्नशिप करने लगीं। कुछ समय बाद उन्होंने अपना कैफे खोल लिया।
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