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...होती है दुनिया पागल, जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में

'नीरज' ही वो गीतकार हैं जिन्होंने सदाबहार गीत 'लिखे जो ख़त' लिखा, राजकपूर की 1970 में आई फ़िल्म मेरा नाम जोकर का सुपरहिट गाना 'ऐ भाई! ज़रा देख के चल' लिखा और उसकी धुन भी बनाई।

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Published on: 19 July 2020 5:36 PM IST
...होती है दुनिया पागल, जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में
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शाश्वत मिश्रा

'कहानी बन कर जिए हैं इस जमाने में,

सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में,

आज भी होती है दुनिया पागल,

जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में।

कवि, गीतकार, साहित्य मंचों की शान, अध्यापक और जीवन जीने की हर क्षण प्रेरणा देने वाले, वो शख़्स जिनके गीत आज भी हमारे लबों पर रहते हैं वो औऱ कोई नहीं 'गोपाल दास नीरज' हैं।

'नीरज' ही वो गीतकार हैं जिन्होंने सदाबहार गीत 'लिखे जो ख़त' लिखा, राजकपूर की 1970 में आई फ़िल्म मेरा नाम जोकर का सुपरहिट गाना 'ऐ भाई! ज़रा देख के चल' लिखा और उसकी धुन भी बनाई। इनके लिखे गानों को इंडस्ट्री में आगे बढ़ाने का काम आर. डी. बर्मन का था। वे इनके लिखे गानों को मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर और मुकेश जैसों बड़े गायकों से गवाकर, जनता के सामने, फिल्मों के माध्यम से प्रस्तुत करते।

ए भाई जरा देख के चलो,

आगे ही नहीं पीछे भी,

दायें ही नहीं बाये भी,

ऊपर ही नहीं नीचे भी।

शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब

उसमें फिर मिलाई जाए थोडी सी शराब

होगा यूं नशा जो तैयार

होगा यूं नशा जो तैयार वो प्‍यार है।

रंगीला रे, तेरे रंग में

यूं रंगा है मेरा मन

छलिया रे, ना बुझे हैं

किसी जल से ये जलन

ओ रंगीला रे।

गोपाल का बचपन काफ़ी मुश्किल और मुफ़लिसी में गुज़रा

गोपाल दास सक्सेना का जन्म 4 जनवरी 1925 को उत्तर-प्रदेश के इटावा जिले में हुआ था। बचपन काफ़ी मुश्किल और मुफ़लिसी से गुज़रा। 6 साल की उम्र में सर से पिता का साया उठ गया। इस 6 साल के बच्चे कब ऊपर अब ज़िम्मेदारियों का बोझ आ गया। घर की ज़रूरतों को पूरा करना, खाने की व्यवस्था करना और घर-खर्च जैसी समस्या सामने आ गयी।

अब के सावन में शरारत मेरे साथ हुई

मेरा घर छोड़ के सारे शहर में बरसात हुई

जिंदगी भर औरों से हुई गुफ़्तगू मगर

आज तक हमारी हमसे न मुलाक़ात हुई

नीरज इन सभी मुश्किलों के सामने ऐसे डटे रहे कि मुश्किलें छोटी-सी हो गयी। नीरज के गांव पुरावली से कुछ ही दूरी पर यमुना नदी थी। अब वहां पर नीरज रोज़ाना जाने लगे। तकाज़ा पैसों का था, वजह ख़ालिस मज़बूरी।

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अब नीरज नदी में तैरकर सिक्के बटोरते थे। आगे पान-बीड़ी भी बेची। रिक्शा चलाया। 10 साल तक दूसरों के घरों में अकेलेपन की ज़िंदगी गुज़ारी। इसके बाद एक वकील के यहाँ टाइपिस्ट की नौकरी करने लगे। उसके बाद क्लर्क बने, फिर अध्यापक-प्राध्यापक।

संघर्ष ये तुमने दिखला दिया कि पौरुष के आगे,

मुश्किल को अपनी ही मुश्किल पड़ जाती है,

हिम्मत गर अपनी हारे नहीं मुसाफिर तो,

मंजिल खुद उसको बढ़ कर गले लगाती है।

कहा जाता है कि नीरज जब अकेलेपन और तंगी से गुज़र रहे थे उन्हीं दिनों में खलवत में बैठकर लोगों के बारे में पढ़ने लगे। अपने मस्तिष्क को सुकूँ पहुँचाने के उद्देश्य से और इस हयात के मायने को समझने के लिए उन्होंने कबीर, ओशो, महर्षि अरविंद, मुक्तानंद जैसे महान लोगों की रचनाएं पढ़ने लगे। इन लोगों को पढ़कर गोपाल दास नीरज जहां ज़िंदगी की हक़ीक़त से रु-ब-रु हुए। वहीं उन्हें मानसिक शांति भी मिली। इससे वो तनावमुक्त हो चुके थे।

हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति,

काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति.

मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान,

जो भी गाऊं गीत मैं, बन जाये युग-गान।

हमने इक परिवार ही, माना सब संसार,

सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।

नीरज ने भारत छोड़ो आंदोलन में भी हिस्सा लिया था। 1942 में वे जेल भी गए। लेकिन इससे उनकी सेहत पर कोई फर्क़ नहीं पड़ा।

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए

जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर

फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी

कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए।

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए

हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का आकर्षण

गोपाल दास सक्सेना उर्फ नीरज की ज़िंदगी में एक शख़्स की बड़ी अहम भूमिका थी। अग़र ये कह दिया जाए कि इस शख़्स को नीरज अपना आदर्श मानते थे तो ये ग़लत नहीं होगा। ये इंसान औऱ कोई नहीं सदाबहार कवि हरिवंश राय बच्चन थे। नीरज की ज़िंदगी में इनका बड़ा प्रभाव रहा।

ये हरिवंश राय बच्चन की कविताओं का आकर्षण था जो 1925 में जन्मे गोपाल दास को इस विधा की तरफ खींच लाया। 1947 यानी देश की आजादी का साल और इसी साल ‘बच्चन’ और ‘नीरज’ के मिलन का भी साल था।

उस दौर में, पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर अवध प्रांत तक हरिवंश राय की कविताएं मुशायरों की शान बढ़ा रही थी। लगभग उसी क्षेत्र से उनसे 18 साल छोटा एक लड़का अपने आप को तराश रहा था। वो भी उन्हीं की लिखी ‘मधुबाला’ पढ़ कर और ‘निशा निमंत्रण’ में लिखी पंक्तियों के गूढ़ रहस्यों को समझ कर।

अपने एक लेख में गोपाल दास नीरज ने अपनी ज़िंदगी में बच्चन जी के प्रभाव का जिक्र भी करते हैं। उनका मानना था कि 'हरिवंश राय बच्चन के पहले कविताएं हवा में थीं। बच्चन साहब ने उसे जमीन पर उतारा, और एक आम इंसान के सुख-दुख भोगने को अपने कविता में लिखना शुरू किया।'

इसके अलावा कवि सम्मेलन में गायन की शैली का भी श्रेय वे हरिवंश राय बच्चन को ही देते हैं इससे पहले लेखकों को कविता पाठ के पारिश्रमिक नहीं मिलते थे। लेकिन हरिवंश ने उसे भी शुरू कराया। उनकी इस परंपरा को उनके साथ लंबा समय बिताने वाले गोपाल दास आगे ले गए। वे बच्चन के बेहद प्रिय बन चुके थे। वह चाहते थे कि नीरज ‘काव्य में कल्पना’ पर शोध करें। यह अलग बात है कि गोपाल उनकी इस चाहत को पूरा नहीं कर सके।

कहानी बन कर जिए हैं इस जमाने में,

सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में,

आज भी होती है दुनिया पागल,

जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में।

जब भी कभी नीरज की बात होती है तो एक सवाल लोगों के ज़ेहन में हमेशा रहता है। वो सवाल है कि कैसे लिखा 'कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे....'

दरअसल, इसके पीछे नीरज की पूरी ज़िंदगी का अनुभव है। नीरज ने अपनी ज़िंदगी के तजरबात ओ हवादिस को अपनी इस कविता में शब्दों की माला बनाकर पिरोया।

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इससे जुड़ा एक वाकिया यह भी है कि 1954 में जब दुलहन के श्रृंगार में तैयार उनकी भांजी की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है। तो यह हादसा उनके अंतर मन को झकझोर देता है। यहां से उनके अंदर एक कालजयी लेखक का सृजन होता है। वे अपने गम को कागज के पन्नों पर उतारते हैं और लिख डालते हैं वो गीत, जो इतिहास रच देता है।

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे...

एक दिन मगर यहां,

ऐसी कुछ हवा चली,

लुट गयी कली कली कि घुट गयी गली गली,

और हम लुटे लुटे,

वक्त से पिटे पिटे,

सांस की शराब का खुमार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे...

बाज़ारू गीत लिखने का दौर शुरू हुआ

1972-73 का दौर था। अब तक फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए नीरज ने 130 गाने लिख दिए थे और इंडस्ट्री में पांच साल गुज़ार चुके थे। लेकिन अब धीरे-धीरे दौर शुरू हो रहा था फ़िल्मों में बाज़ारू गीत लिखने का। दूसरी तरफ आर. डी. बर्मन इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे। इसीलिए नीरज ने फ़िल्मों से मुँह मोड़ा औऱ अलीगढ़ आ गए। यहाँ आकर उन्होंने अध्यापक की भूमिका में अपना जीवन-यापन शुरू किया। कवि मंचों पर गीत गाते, मुशायरों की जान बनते। लोगों को कविता का पाठ पढ़ाते।

हम तो मस्त फकीर, हमारा नहीं ठिकाना रे

जैसा अपना आना रे, वैसा अपना जाना रे

औरों का धन सोना-चांदी, अपना धन तो प्यार रहा

दिल से दिल का जो होता है, वो अपना व्यापार रहा।

93 साल की उम्र में नीरज की ज़िंदगी में एक बार फिर दिक्कत हुई। उन्होंने दवाओं के लिए सरकार को पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने अपनी पेंशन बढ़ाने का ज़िक्र किया था। उसके कुछ ही दिनों बाद वो इस दुनिया को अलविदा कह देते हैं, और हमारे बीच छोड़ जाते हैं अपने वो गीत जिनके लफ़्ज़ों की तासीर में कहीं न कहीं 'नीरज' सांस लेता है।

अब न वो दर्द न वो दिल न वो दीवाने रहे

अब न वो साज, न वो सोज न वो गाने रहे

साकी तू किसके लिए अब तक यहां बैठा है

अब न वो जाम, न वो मन न वो पैमाने रहे।



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