ख़तरनाक है ट्रंप का ये समझौता, रिपोर्ट में हुआ बड़ा खुलासा

एक ओर जहाँ पूरा भारत ट्रंप की अगुआई में व्यस्त है। वहीं दूसरी ओर अमेरिका की एक डिप्लोमैटिक रिपोर्ट ने भारत के लिए एक चौंकाने वाला खुलासा किया है।

Aradhya Tripathi
Published on: 24 Feb 2020 10:43 AM GMT
ख़तरनाक है ट्रंप का ये समझौता, रिपोर्ट में हुआ बड़ा खुलासा
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एक ओर जहाँ पूरा भारत अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की अगुआई में व्यस्त है। वहीं दूसरी ओर अमेरिका की एक डिप्लोमैटिक रिपोर्ट ने भारत के लिए एक चौंकाने वाला खुलासा किया है। डिप्लोमैटिक रिपोर्ट से पता चलता है कि 1999 की गर्मियों में अमेरिका के एक डिप्लोमैट ने रावलपिंडी के एक सेफ हाउस में अफगानिस्तान में जिहादियों के मुखिया से आमने-सामने की मुलाकात की थी। तालिबान के मंत्री रहे सिराजुद्दीन हक्कानी ने उस डिप्लोमैट की तरफ देखते हुए कहा था कि मुझे खुशी हो रही है कि उस देश का नागरिक मेरे सामने बैठा है, जिसने मेरे बेस, हमारे मदरसों और करीब 25 मुजाहिदीनों को मार डाला। हक्कानी का अस्टिटेंट उसे दयनीयता से देख रहा था।

तालिबानी मंत्री रहे सिराजुद्दीन हक्कानी ने दी जानकारी

तालिबानी मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी ने बताया कि इसके एक साल के भीतर अल कायदा केन्या और तंजानियां के अमेरिकी दूतावासों पर हमला करके 200 लोगों को मार देता है। इसके जवाब में पूर्वी अफगानिस्तान के जिहादी कैंपों पर अमेरिकी मिसाइल हमला करते हैं। वो डिप्लोमैट चेतावनी जारी करता है कि इस तरह के हमले अभी और होंगे, जब तक कि तालिबान, अल कायदा के चीफ ओसामा बिन लादेन से रिश्ते खत्म नहीं करता।

लेकिन तालिबान इसके बावजूद बिन लादेन से अपने संपर्क खत्म नहीं करता। इस्लामाबाद में अमेरिकी राजदूत उत्साहित होकर बताते हैं उनके देश में हिंसा के खतरे को भांपते हुए उन्हें (तालिबान) अलग-थलग करने की कोशिश, दरअसल तालिबान को चोट पहुंचा रही है। इस बात की जानकारी अब जाकर मिली है कि उस मुलाकात के कुछ महीनों पहले बिन लादेन ने अल कायदा के मिलिट्री कमिटी के मुखिया खालिद शेख मोहम्मद को कांधार बुलाया था। वहीं पर उसे 9/11 अंजाम देने की हरी झंडी मिली थी।

ट्रंप ने की तालिबान से डील

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ऐसा हुए कई साल बीत चुके हैं। अब हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं। अब हालात ये हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत दौरे पर आने से पहले तालिबान के साथ एक डील की है। इस डील में हिंसा का रास्ता छोड़ने की बात कही गई है। डील में सबसे पहले अमेरिका के अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी का रास्ता तैयार करने की बात कही गई है। ट्रंप के के स्वागत में व्यस्त भारत के लिए ये एक बेहद बुरी खबर है। क्योंकि तालिबान के उभरने का मतलब है कश्मीर के जिहादी तत्वों का ताकतवर होना। सिर्फ कश्मीर ही नहीं इस पूरे इलाके में ये जिहादी ताकतवर होंगे। जिस तरह 1989 में अफगान मुजाहिदिनों ने सोवियत यूनियन को हराया था।

दिल्ली के पास बहुत सीमित उपाय हैं। वो बस आने वाली चुनौतियों का सामना करने की तैयारी कर सकता है। काबुल में जो हो रहा है, उससे निपटने के लिए भारत के पास न सैन्य उपाय हैं और न इसे डिप्लोमैटिक तरीके से निपटा जा सकता है।

पाकिस्तानी इस्लामिक लीडर ने तैयार किया था रोडमैप

9/11 के एक दशक पहले 1992 में पाकिस्तान के इस्लामिक लीडर फजलुर रहमान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक जिहादी मैगजीन को रोडमैप बनाकर दिया था। इस्लामिक लीडर ने कहा था कि मौलाना हक्कानी और उनके जैसे सच्चे नेताओं ने सोवियत साम्राज्य को हराया है। लेकिन अब जिहाद के सामने एक नया दुश्मन खड़ा हो गया है, और वो है अमेरिका और उसकी साजिश वाली पॉलिसी। ये अफगानिस्तान को अमेरिकी हमले की जद में लाने वाले हैं। फजलुर रहमान ने उस वक्त कहा था कि मेरा विश्वास है कि हक्कानी जैसे लोग जिहाद की आग को पूरी दुनिया में फैलाएंगे।

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कश्मीर को बनान था निशाना

कश्मीर इनका ताजा निशाना है। अल्ताफ खान नाम का एक जिहादी, जो नेता बन गया है, जिसे आजम इंकलाबी के नाम से भी जाना जाता है। वो कहता है- एक छोटे से देश के, छोटी सी आबादी, कुछ सीमित संसाधनों और हथियारों के बल पर सोवियत यूनियन को हराकर उसके टुकड़े कर देती है। इसे हमें प्रेरणा मिली है। अगर वो पूरब में इतनी सख्त प्रतिक्रिया दे सकते हैं तो हम भी कश्मीर में बड़ी लड़ाई लड़ सकते हैं।

पाकिस्तान के लिए तोहफा है डील

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और आर्मी चीफ जनरल कमर बाजवा के लिए ट्रंप और तालिबान की डील एक तोहफे की तरह है। जिस तरह जनरल परवेज मुशर्रफ के लिए 9/11 एक तोहफे की तरह था। जैसे सोवियत यूनियन का अफगानिस्तान की जंग में फंसना मुहम्मद जिया-उल-हक के लिए। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई को गारंटी देना होगा कि तालिबान अफगान के शहरों पर कब्जे की कोशिश नहीं करेगा। कम से कम अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले तक। इसके लिए कीमत चुकानी होगी।

भारत पर होगा कश्मीर पर समझौते का दबाव

नई दिल्ली के ऊपर अब कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान के साथ समझौता करने का दबाव होगा। भारत को अब आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में नरम रवैया अपनाना पड़ेगा। और हकीकत ये है कि पिछले साल बालाकोट एयरस्ट्राइक में तबाह हुए जैश ए मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप फिर से खुल गए हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का अफगानिस्तान से सेना की वापसी का एक ही मतलब है- सेना पर होने वाले खर्चों में कटौती करना। अफगानिस्तान में हो रहे खर्च को अमेरिका अब वहन नहीं कर सकता। अगर जिहादी ताकतें एक बार से अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेती हैं तो इस पर बहस होगी कि अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में ढाल बना हुआ था और पाकिस्तान को पुलिसमैन की भूमिका निभाने के लिए पैसे मिल सकते हैं।

मजबूती से करना होगा सामना

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1989 में कश्मीर में जिहादी ताकतें बढ़ी थी। उस वक्त दिल्ली को इस बारे में खबर नहीं थी। राज्य का राजनीतिक सिस्टम अव्यवस्थित था। प्रशासनिक ढांचा ढह गया था। अर्थव्यवस्था युवाओं के सपनों को पूरा कर पाने में असमर्थ थी। इस्लामी ताकतों ने ऐसे माहौल का फायदा उठाया, जिसके भयावह परिणाम रहे।

भारत के लिए फिर से खतरनाक वक्त है। नई दिल्ली को कश्मीर की प्रशासनिक व्यवस्था को फिर से खड़ा करना होगा और ज्यादा मजबूती से कानूनन वैध कदम उठाने होंगे।

Aradhya Tripathi

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