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बुन्देलखण्ड के पाठा में मौजूद लगभग 40 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र/शैलाश्रय खतरे में...

मैंने किताबों में इन शैलचित्रों के बारे पढ़ा था लेकिन पूरी तरह स्पष्ट नही था कि पाठा की इस हजारों साल पुरानी संस्कृति के अवशेष मुझे मिलेंगे भी या नही लेकिन तमाम खोजबीन और स्थानीय लोगो की मदद से आश्चर्चजनक परिणाम निकले । पाठा क्षेत्र के अधिकांश स्थानों पर शैलाश्रय/ शैलचित्र मौजूद हैं । ऐसा ही एक स्थान ऋषियन भी है ।

SK Gautam
Published on: 28 Jan 2020 12:56 PM IST
बुन्देलखण्ड के पाठा में मौजूद लगभग 40 हजार वर्ष पुराने शैलचित्र/शैलाश्रय खतरे में...
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अनुज हनुमत

चित्रकूट: हम आज विज्ञान प्रगति के ऐसे दौर में हैं जहाँ हमारे पास हर सुख सुविधा मौजूद है और विज्ञान ने आज हमारा जीवन सुखदायी बना दिया है । आज हम चाँद और मंगल ग्रह से लेकर अंतरिक्ष तक की यात्रा बिना किसी सन्देह के आसानी से कर लेते हैं । लेकिन हजारों-लाखों साल पहले एक ऐसा भी समय था जब हमारे पूर्वज (आदिमानव) मानव सभ्यता के विकास के दौर से गुजर रहे थे जहाँ हर काम कठिन था ।

इन सभी स्थानों पर आज भी पाषाणयुग के टूल्स बिखरे पड़े हैं

मैंने किताबों में इन शैलचित्रों के बारे पढ़ा था लेकिन पूरी तरह स्पष्ट नही था कि पाठा की इस हजारों साल पुरानी संस्कृति के अवशेष मुझे मिलेंगे भी या नही लेकिन तमाम खोजबीन और स्थानीय लोगो की मदद से आश्चर्चजनक परिणाम निकले । पाठा क्षेत्र के अधिकांश स्थानों पर शैलाश्रय/ शैलचित्र मौजूद हैं । ऐसा ही एक स्थान ऋषियन भी है । सबसे खास बात ये है कि इन सभी स्थानों पर आज भी पाषाणयुग के टूल्स बिखरे पड़े हैं । इन सभी स्थानों पर शोध की जरूरत है । जो सम्भवनाओ के नए द्वार खोल सकती है।

हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के निशान आज भी हमारे बीच मौजूद हैं लेकिन सरकारी उपेक्षा और जनप्रतिनिधियों की असक्रियता के कारण ये सब साक्ष्य भी नष्ट होते जा रहे हैं । हजारो साल पहले की सभ्यता के निशान के रूप में यूपी के चित्रकूट जिले से तीस किलोमीटर दूर मानिकपुर के पास सरहट स्थित खम्भेश्वर और उसके आस पास के स्थानों पर बड़ी संख्या में पुरापाषाकालीन शैलचित्र मौजूद हैं । मानिकपुर से 25 किमी दूर मारकुंडी और टिकरिया के जंगलों में भी ऐसे शैलचित्र भरी संख्या में मौजूद हैं । ये सभी शैलचित्र बड़े बड़े शैलाश्रयों में बने हैं जो हजारों साल बाद आज भी वैसे ही बने हुए हैं ।

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मानिकपुर तहसील में ही आस पास के ऐसे स्थानों पर ऐसे प्राचीन शैलचित्र आज भी कौतुहल का विषय बने हुए हैं। ये चित्र तीस हजार साल पुराने बताए जाते हैं। ऐसे ही सरहट के पास बांसा चूहा, खांभा, चूल्ही में और भी ज्यादा संख्या में इस तरह के शैलचित्र मिलते हैं। सरहट के 20 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में करपटिया में 40 शिलाश्रयों का समूह दर्शनीय है।

जीवंत दस्तावेज विलुप्त होने के कगार पर

यहां बिखरीं पड़ीं धरोहरें इतिहास के कालखंडों के रहस्यों को अपने गर्भ में छिपाए हैं। ये शैलचित्र यहां की प्राचीन शैली के गवाह हैं, पर संरक्षण के अभाव में ये जीवंत दस्तावेज विलुप्त होने के कगार पर है। इतिहास के जानकार शैलचित्रों के आरंभ को ईसा पूर्व से ही जोड़ते हैं।

इनका पूरा अध्ययन करने के बाद पता लगा की ये तो पाठा की पूरापाषाणकालीन संस्कृति है जो बहुत बड़े क्षेत्र में फैली हुई है। ऐसे ही सरहट के पास बांसा चूहा, खांभा, चूल्ही में और भी ज्यादा संख्या में इस तरह के शैलचित्र मिलते हैं।

दरअसल, मनुष्य समुदाय का प्रादुर्भाव (दुनिया में सभ्यता के रूप में) कब क्यों व कैसे हुआ इसको जानने के लिए आज भी कई इतिहासकार सरकारी संस्थाएं और वैज्ञानिक तथा शोधार्थी मानव सभ्यता के उन अवशेषों व चिन्हों को तलाशने का प्रयास करते हैं। जिससे यह स्पष्ट हो सके कि आज के अत्याधुनिक काल में सुविधाओं के सागर में गोता लगाते मनुष्य समुदाय का इस संसार में सभ्यता के रूप में विकसित होने पर प्रारंभिक जीवन कैसा था। मानव सभ्यता की कुछ ऐसी ही निशानियां संजोए हुए है चित्रकूट का पाठा (मानिकपुर) क्षेत्र के इलाके के दुर्गम व बीहड़ में स्थित सरहट नाम के स्थान पर शैल चित्रों की अद्भुत श्रृंखला मौजूद है जो पाठा में मानव सभ्यता के होने का काफी हद तक प्रमाण देते हैं।

गौरतलब हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की तपोस्थली चित्रकूट की पावन धरती भारत के मानचित्र पर धार्मिक केंद्र के रूप में तो प्रसिद्द ही थी लेकिन अब बड़े पुरातात्विक स्थलों के रूप में भी स्थान बनाने जा रही है । इसका सबूत है चित्रकूट की धरती पर भारतीय पुरातत्व विभाग के लगातार दौरे , जो आने वाले समय में निःसन्देह चित्रकूट के लिए ऐतिहासिक होंगे । जहाँ की दूसरे राज्य की सरकारें अपने अपने यहाँ पर्यटकों को बुलाने के लिए अख़बारों- टीवी पर आक्रामक रूप से प्रयास कर रही हैं ।

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वहीं उत्तर प्रदेश इस मामले में पीछे है । आपने भी बमुश्किल ही उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग का प्रचार टीवी या अखबार पर देखा होगा । इस बीच भारतीय पुरातत्व विभाग-नई दिल्ली और राज्य पुरातत्व विभाग के लगातार दौरों ने पर्यटन की संभावनाओं पर बुन्देलखण्ड को एक कदम और आगे लाकर खड़ा कर दिया है । भारतीय पुरात्तव विभाग की पहली टीम ने उपनिदेशक डॉ. आर सिन्हा के नेतृत्व में चित्रकूट जिले के मानिकपुर तहसील के सरहट स्थित पुरापाषाणकालीन शैलचित्रों का निरीक्षण किया था लेकिन उसकी रिपोर्ट अब तक सामने नहीं आई ।

खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ और लाल रंग है

सरहट और उसके आस पास के स्थानों पर जो शैलचित्र पाये गये हैं वो भी हूबहू भीमबैठका के शैलचित्रों जैसे ही हैं। यानि कि भीमबैठका और सरहट के शैलचित्रों में काफी सामानता है । इस कारण ये भी हजारों साल पुरानी संस्कृति हुई । भीमबैठका के चित्रों में प्रयोग किये गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ और लाल रंग है ।

प्राचीन इतिहास विषय के जानकार व पाठा क्षेत्र के विशेषज्ञ डाक्टर नवल पाण्डेय का मानना है की “इन शैल चित्रों के माध्यम से आने वाली पीढ़ी एक नई कला को जन्म दे सकती है । यह खोज युवा पीढ़ी की खोज है जिसने ये साबित कर दिया की किताबों में लिखे पुरातात्विक ध्वंसावशेष आज भी जीवित अवस्था में है ।”

प्राचीन इतिहास विषय यह पूरा स्थान ही पूर्वजों के हाथों और पैरों से घिसकर चिकना किया हुआ प्रतीत होता है और यहाँ चट्टानों का ऐसा चिकनापन प्रकृति के अपक्षय से नही हो सकता । सारी चट्टानें चीख चीख कर कह रही हैं की यहाँ एक मानव सभ्यता पनपी थी । प्राचीन इतिहास के शोध छात्रों को इसे अपने शोध का विषय बनाना चाहिए जिससे इससे जुड़े और भी राज खुल सकें ।

रस्सी की रगड़ से पत्थर पर निशान पड़ जाता है वैसे ही उन पूर्वजों के दैनिक कार्यों के कारण ये पूरा स्थल भी मानवकृत और चिकना हो गया है। ऐसे ही शैलचित्र भारतके मध्य प्रांत प्रान्त के रायसेन जिले में स्थित है। ये स्थान भीमबैठका के नाम से जाना जाता है । यह एक पुरापाषाणिक आवासीय पुरास्थल है। जो आदि मानव द्वारा बनाये गए शैल चित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध है।

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इन चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है । ये भारत में मानव जीवन के प्राचीनतम चिह्न हैं। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान महाभारत के चरित्र भीम से संबन्धित है एवं इसी से इसका नाम भीमबैठका पड़ा। ये गुफाएँ मध्य भारत के पाठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विन्ध्याचल की पहाड़ियों के निचले छोर पर हैं। सरहट और उसके आस पास के स्थानों पर जो शैलचित्र पाये गये हैं वो भी हूबहू भीमबैठका के शैलचित्रों जैसे ही हैं।

यानि कि भीमबैठका और सरहट के शैलचित्रों में काफी सामानता है । इस कारण ये भी हजारों साल पुरानी संस्कृति हुई । भीमबैठका के चित्रों में प्रयोग किये गए खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ और लाल रंग है । सबसे आश्चर्य वाली बात ये है कि सरहट और उसके आस पास बने शैलचित्रों में भी बड़े पैमाने पर गेरुआ रंग ही प्रयोग हुआ है।

पाठा की ये संस्कृति भी तमाम रहस्य समेटे हुए है

ये महज एक चित्र की कहानी नही है बल्कि ये पाठा में पनपी एक बड़ी पुरापाषाणकालीन संस्कृति है और जैसे सिंधु घाटी सभ्यता की खोज बहुत बाद में हुई लेकिन आज वह श्रेष्टतम मानव संस्कृतियों में से एक है। उसी प्रकार पाठा की ये संस्कृति भी तमाम रहस्य समेटे हुए है और समकालीन पाषाण संस्कृतियों में सबसे आगे निकल सकती है।

इस पाठा संस्कृति के अवशेष इसलिए भी नष्ट हो सकते है क्योंकि इससे एक किमी दूर ही खनन माफियो द्वारा अवैध रूप से वोल्डरों का खनन जारी है । इसलिये सरकार इसे तुरन्त सरंक्षित क्षेत्र घोषित करें । वैसे इन शैल चित्रों के माध्यम से आने वाली पीढ़ी एक नई कला को जन्म दे सकती है । यह खोज युवा पीढ़ी की खोज है जिसने ये साबित कर दिया की किताबों में लिखे पुरातात्विक ध्वंसावशेष आज भी जीवित अवस्था में है ।

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अगर हम इतिहासकारों की भाषा में इन शैलचित्रों के महत्व को समझने का प्रयास करें तो गुफा व शैलचित्रों से प्रमाणित होता है कि भारत के पाषण-कालीन मानव ने घर बाद में बनाया, उसे चित्रों से सजाने की कल्पना पहले की। वैज्ञानिक शोध से उसका कालखंड प्रमाणित हो गया है। सुंदर कलाकृतियां पहले बनी हैं। एक अन्य उदाहरण भी गौरतलब है कि भारत के पाषाणकालीन मानव ने मिट्टी की कलाकृतियां पहले बनाईं, मिट्टी के बर्तन बाद बनाए। इन सब तथ्यों से प्राचीन भारत की कला, संस्कृति और पाषाण कालीन मानव की मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता है।

पशुओं को मानव के साथ रहते हुए दिखाया गया

इन कला-कृतियों में प्रकृति की सुन्दरता का चित्रण किया गया। जंगली जीवों की शिकार भी चित्र है। लेकिन इसी के साथ जीवों के प्रति दायाभाव और पशुपालन के चित्रो की भरमार है। इसमें पशुओं को मानव के साथ रहते हुए दिखाया गया। जब महौल इतना अच्छा होता है, तो गीत-संगीत का भी उदय होता है। भारतीय शैल व गुफा चित्रों मे इससे संबंधित चित्र बहुत है। पाषाणकालीन मानव को आज की आधुनिक नजर से नहीं देखा जा सकता। ऐसा करने से वह बहुत पीछे दिखाई देते हैं।

लेकिन जहां तक कला, चित्र आदि का संबंध है, पाषाणकालीन मानव को कम नहीं माना जा सकता। वरन वह आज के मुकाबले कहीं आगे दिखाई देंगे। आज चित्रकला के क्षेत्र में संसाधनों की कमी नहीं है। एक से बढ़कर एक ब्रश, रंग, अन्य उपयोगी वस्तुएं उपलब्ध हैं, जबकि पाषाण काल में ऐसा कुछ नहीं था। चित्र के लिए वह पेड़ की डालियों का उपयोग करते थे। बाद में उन्होंने प्राकृतिक रंगों का भी निर्माण किया होगा। इसके अलावा पत्थरों की सहयता से ही गुफा चित्रों का निर्माण किया होगा। ऐसे दुर्लभ चित्रण आज भी उपलब्ध है। कई जगह तो नीचे नदी बहती है, ऊपर पहाड़ों पर चित्र है।

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आश्चर्य होता है कि यहां मनुष्य किस प्रकार पहुंचा होगा। किस प्रकार उसने चित्रों का निर्माण किया होगा। कई गुफाएं ऐसी हैं, जहां आज भी गहन अंधकार रहता है। वहां बिना रोशनी के पहुंचना या कुछ देखना संभव नहीं होता। वहां बेहद आकर्षक चित्र हजारों वर्ष पहले बनाए गए। जो गुफा जितनी प्राचीन होती है, उसके रहस्य को समझना उतना ही कठिन होता है। इससे उस समय के लोगो की जीवन संबंधी विशेषताओं का अनुमान लगाया जा सकता है।

प्रकति ने जंगली पशुओं को ज्यादा शक्तिशाली बनाया

विश्व के अन्य हिस्सों में जो गुफाचित्र मिलते हैं, उसमें सर्वाधिक शिकार संबंधी चित्र हैं। प्रकति ने जंगली पशुओं को ज्यादा शक्तिशाली बनाया। लेकिन मनुष्य ने अपना पेट भरने के लिए उनका शिकार किया। उनके सर्वाधिक अनुभव शिकार से ही संबंधित थे। इसलिए गुफा चित्रों में सर्वाधिक ऐसे ही चित्रों को उकेरा गया। फिर भी यह मानना होगा कि पाषाणकालीन मानव ने अपने क्रिया कलापों को चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया ।

वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि पाषाणयुग (वह समय जबकि वह पत्थर के हथियारों का प्रयोग करता था) का मनुष्य गुफाओं में रहता था और शिलाओं के इन आश्रय स्थलों का प्रयोग वर्षा, बिजली, ठंड और चमचमाती गर्मी से अपनी रक्षा करने के लिए किया करता था। वे यह भी मानते हैं और उन्होंने यह प्रमाणित करने के साक्ष्य भी ढूंढ लिए हैं कि गुफाओं में रहने वाले ये लोग लंबे, बलवान थे।

वहशियों की तुलना में कहीं अच्छे दिमाग होते थे

और प्राकृतिक खतरों से निबटने और साथ ही विशालकाय जंगली गैंडे, डायनोसोर अथवा जंगली सूअरों के समूह के बीच अपने जीवन की दौड़ दौड़ते रहने के लिए उसके पास अनेक वहशियों की तुलना में कहीं अच्छे दिमाग होते थे। रेनडियर, जंगली घोड़े, सांड अथवा भैंसे का शिकार करते-करते कभी-कभी वह आसपास रहने वाले भालुओं, शेरों तथा अन्य जंगली पशुओं का ग्रास बन जाता था।

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इस पाठा संस्कृति के अवशेष इसलिए भी नष्ट हो सकते है क्योंकि इससे कुछ ही दूर पर खनन माफियो द्वारा अवैध रूप से पत्थरो का खनन जारी है । इसलिये सरकार इसे तुरन्त सरंक्षित क्षेत्र घोषित करें । वैसे इन शैल चित्रों के माध्यम से आने वाली पीढ़ी एक नई कला को जन्म दे सकती है ।

यह खोज युवा पीढ़ी की खोज है जिसने ये साबित कर दिया की किताबों में लिखे पुरातात्विक ध्वंसावशेष आज भी जीवित अवस्था में है । चित्रकूट और उसके आसपास के क्षेत्रों में पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाएं हैं जिसे नकारा नही जा सकता । लेकिन गौर करने वाली बात यह भी है कि यहाँ के जनप्रतिनिधि और प्रशासन का रवैया इन स्थानों के सरंक्षण के प्रति काफी लचर एवं संवेदनशील है



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