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यहां हुई थी आजादी की पहली जंग, 10 जून को फहराया था झंडा, जानें पूरा इतिहास

आजादी की लड़ाई साल 1857 में शुरु हुआ , यह संघर्ष केवल शहर तक सीमित न रहकर गांव-गांव फैला था। इसमें अमीर, गरीब, किसान, मजदूर, हिन्दू, मुस्लिम सब ने मिलकर भाग लिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अवध क्षेत्र का भी अहम योगदान रहा।

suman
Published on: 9 Jun 2020 11:02 PM IST
यहां हुई थी आजादी की पहली जंग, 10 जून को फहराया था झंडा, जानें पूरा इतिहास
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तेज प्रताप सिंह

गोंडा: आजादी की लड़ाई साल 1857 में शुरु हुआ , यह संघर्ष केवल शहर तक सीमित न रहकर गांव-गांव फैला था। इसमें अमीर, गरीब, किसान, मजदूर, हिन्दू, मुस्लिम सब ने मिलकर भाग लिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अवध क्षेत्र का भी अहम योगदान रहा। मेरठ के बाद स्वाधीनता के लिए शुरू हुई जंग सबसे पहले अवध के गोंडा जिले में कर्नलगंज के सकरौरा छावनी से ही हुई थी।10 जून को सकरौरा छावनी के सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल फूंक कर हिसामपुर तहसील को भी लूट लिया था। 10 जून 1857 को पूरे अवध में आजादी का झंडा फहराने लगा था और जब दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे प्रमुख केन्द्रों का पतन हो गया तो भी अवध क्षेत्र में क्रांतिकारी लड़ाई जारी रखे थे।

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सकरौरा से उठी थी पहले विद्रोह की चिंगारी

जनरल आउटम ने 07 फरवरी 1856 को अवध पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन घोषित किया। प्रथम स्वाधीनता संग्राम में दिल्ली और मेरठ में विद्रोह के बाद अवध क्षेत्र के गोंडा जिले के सकरौरा छावनी में सैनिकों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। 10 जून 1857 को सकरौरा छावनी के कुछ सिपाहियों ने हिसामपुर तहसील को लूट लिया। स्थिति भांपकर लेफ्टीनेंट क्लार्क और सहायक कमिश्नर जार्डन बहराइच की ओर भागे। कमिश्नर विंग फील्ड ने भागकर बलरामपुर में शरण ली। डिप्टी कमिश्नर सीडब्ल्यू कैलिफ के नेतृत्व में उप आयुक्त, लेफ्टिनेंट लेग बेली और जोर्डन अंग्रेज अफसर जब 12 जून को घाघरा नदी होकर लखनऊ जाने लगे तो विद्रोही सैनिकों ने उन्हें बहराइच के बहरामघाट (गणेशपुर) के पास मौत के घाट उतार दिया। तीनों को सकरौरा छावनी में ही दो गज़ ज़मीन देकर दफ़न कर दिया, उनकी आज भी ये क़ब्रें मौजूद हैं और हमारे पूर्वजों के उदारता की मिसाल बनी हुई हैं।

गोंडा नरेश ने राजपाट गंवाया, नहीं मानी हार

अंग्रेजी शासन के खिलाफ गोंडा में बिगुल फूंकने वाले गोंडा नरेश महाराजा देवी बक्श सिंह की शौर्य गाथा आज भी लोगों में देश भक्ति की अलख जगा रही है। भले ही आजादी के लिए उन्होंने अनगिनत कष्ट झेले हो। राजपाट गंवाया, लेकिन उन्होंने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया। 1857 की क्रांति में गोंडा के राजा देवी बक्श सिंह ने आजादी की लड़ाई को नेतृत्व प्रदान किया था। उनके हजारों सैनिकों ने बेगम हजरत महल के सैनिकों का साथ दिया। अंग्रेज सेनापति रोक्राफ्ट के नेतृत्व में 05 मार्च 1858 को बेलवा पहुंची अंग्रेजों की सेना पर गोंडा के राजा देबी बख्श सिंह, मेंहदी हसन, चरदा के राजा के नेतृत्व में 14 हजार स्वतंत्र सैनिकों ने अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया। भारी संख्या में सैनिकों के हताहत होेने के कारण राजा देबी बख्श सिंह को युद्ध बंद करना पड़ा।इसके बाद नवाबगंज के ऐतिहासिक मैदान लमती में भी अंग्रेजों व राजा की सेना के बीच युद्ध हुआ। राजा देवी सिंह बनकसिया कोट पहुंचे और यहां भी उन्होंने अपने बचे सैनिकों के साथ फिर लोहा लिया। आखिरकार राजा देवी बक्श सिंह अपने बचे सैनिकों के साथ नेपाल के दांग जिला चले गये, जहां बाद में बीमारी की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी।

ईश्वरी देवी थीं लक्ष्मीबाई

सकरौरा की छावनी में सैनिकों ने विद्रोह के समर्थन में महारानी ईश्वरी देवी ने विद्रोह का झंडा उठाया। अंग्रेजों को अपना लोहा मनवाने वाली तुलसीपुर महारानी महारानी ऐश्वर्य राजेश्वरी देवी उर्फ ईश्वरी देवी की अमर गाथा आज भी बड़े-बूढ़ों की जुबान पर है। यह उनकी गौरवगाथा ही थी कि तुलसीपुर के लोग उन्हें लक्ष्मीबाई कहते थे। 25 वर्षीय रानी ईश्वरी देवी भी अपने ढ़ाई वर्षीय दुधमुंहे बच्चे के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध कई दिनों तक मोर्चा संभाल कर युद्ध करती रहीं। उधर गोंडा के स्वतंत्रता सेनानी राजा देवी बख्श सिंह घाघरा और सरयू के मध्य क्षेत्र मंहगूपुर के समीप अंग्रेजी शासक कर्नल वाकर से युद्ध में पराजित होकर उतरौला के तरफ से अपने घोड़े से राप्ती नदी पार कर तुलसीपुर की रानी के साथ आए। दूसरी ओर अंग्रेजों द्वारा पीछा किए जाने पर बेगम हजरत महल, शहजादी बिरजिस कद्र, नानाजी व बाला जी राव ने भी आकर तुलसीपुर रानी के यहां शरण ली। शरणार्थियों को बचाने की खातिर वे युद्ध से पीछे हट गईं और सभी को लेकर नेपाल चली गईं। वहां भी तुलसीपुर के नाम से नगर बसाया जो आज दांग जिले का मुख्यालय है।

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फजल अली ने काटा था अंग्रेज कर्नल का सिर

गोंडा गजेटियर के अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी ने सात फरवरी 1856 को अवध क्षेत्र पर कब्जा किया था। अंग्रेजों का कब्जा होते ही यहां के रजवाड़ों का विरोध अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ तेज हो गया। अंग्रेजी हुकुमत को उखाड़ फेंकने का जज्बा अवध क्षेत्र के लोगों में कूट-कूट कर भरा था। तुलसीपुर की महारानी ईश्वरी देवी अंग्रेजी हुकुमत के लिए मुसीबत बन गई थी। अंग्रेजों का सामना करने के लिए रानी तुलसीपुर ने गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह से मदद मांगी। गोंडा राजा ने जनपद के उमरी बेगमगंज के निकट बसे मिर्जापुर गांव के निवासी अपने बहादुर सेनापति फजल अली को रानी की मदद के लिए भेजा। फजल अली तीरंदाजी, बंदूक, घुड़सवारी, तैराकी, लाठी तथा भाला चलाने में माहिर थे। फजल अली के कारण अंग्रेज रानी तुलसीपुर को परास्त नहीं कर पा रहे थे। अंग्रेजों ने गोंडा के कमिश्नर कर्नल ब्वायलू को रानी तुलसीपुर तथा फजल अली को काबू करने के लिए भेजा। राप्ती नदी के किनारे दोनों सेनाओं के बीच मुकाबला हुआ। अंग्रेजी सेना भारी पड़ने लगी तो फजल अली अपनी सेना के साथ जंगल में छिप गए। जब बेतहनिया गांव के पास कर्नल ब्वायलू व फजल अली की सेना का सामना हुआ तो कर्नल ने फजल अली को आत्मसमर्पण के लिए कहा। लेकिन फजल अली ने समर्पण के बजाय ब्वायलू पर गोली चला दी। हालांकि दूसरे दिन ही अंग्रेजी सेना ने फजल अली को गिरफ्तार कर उन्हें फांसी दे दी। फजल अली की वहां समाधि भी बनी थी, जिसके अवशेष अब भगवानपुर जलाशय में विलीन हो गए हैं।

रजवाड़ों ने बौंडी से छेड़ा था युद्ध

1857 में स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांति में अवध के रजवाड़ों ने घाघरा के कछार में बसे बौंडी स्थित महाराजा हरदत्त सिंह सवाई के राजमहल के सामने लगे पीपल के पेड़ की छांव रणनीति तैयार कर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ा था। उस समय बहराइच लेफ्टिनेंट लांग बलि क्लार्क और डिप्टी कमिश्नर सीडब्ल्यू कैलिफ के कब्जे में था। 16 नवंबर वर्ष 1857 को ब्रितानी हुकूमत ने जब नवाबी सेना को परास्त किया तो अवध के नवाब वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजों से बचकर बेगम हजरत महल अपने बेटे विरजिस कदर व कुछ सेना के साथ लखनऊ से चलकर महमूदाबाद और भिठौली होकर घाघरा नदी पार कर बौंडी पहुंची तो राजा हरदत्त सिंह सवाई ने उन्हें शरण दी। छह माह तक बौंडी का राजमहल अवध के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के केन्द्र बिंदु रहा। बेगम हजरत महल ने बौंडी को अपना हेड क्वार्टर बना लिया और यहीं से सत्ता संचालन करने लगी।

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बेगम हजरत महल ने अपने भाषण से जोश भरा। स्वाधीनता संग्राम में चहलारी नरेश राजा बलभद्र सिंह समेत कई राजा शहीद हुए। गोंडा के राजा देबी बख्श सिंह ने आजादी के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई को नेतृत्व प्रदान किया। उनके नेतृत्व में हजारों सैनिकों ने बेगम हजरत महल के सैनिकों का साथ दिया। जनवरी 1858 तक यह क्षेत्र अंग्रेजी सेनाओं से पूरी तरह मुक्त रहा। अंग्रेज सैनिक अधिकारी राक्राफ्ट के नेतृत्व में जल सेना की एक टुकड़ी 05 मार्च 1858 को बेलवा पहुंची। गोंडा के राजा देबी बख्श सिंह के नेतृत्व में 14 हजार स्वतंत्र सैनिकों ने अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया। भारी संख्या में सैनिकों के हताहत होेने के कारण राजा देबी बख्श सिंह को युद्ध बंद करना पड़ा। बौंडी स्थित महाराजा हरदत्त सिंह सवाई के दर्जनों किला को अंग्रेजों ने तोपों से तहस-नहस कर दिया था। आज भी यह किला 1857 के गदर का गवाह बना हुआ है।



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