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बाबरी मस्जिद विध्वंस केस : एफआईआर से बरी होने तक का सफ़र

कोरोना संकट के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इसे और बढ़ाते हुए और हर दिन सुनवाई करते हुए 31 अगस्त तक सुनवाई पूरी करने के निर्देश दिए। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने 30 सितम्बर तक फैसला सुनाने को कहा था जो आज हो भी गया।

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Published on: 30 Sept 2020 8:19 PM IST
बाबरी मस्जिद विध्वंस केस : एफआईआर से बरी होने तक का सफ़र
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babri demolition case

लखनऊः छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद उसी दिन इस मामले में दो एफ़आईआर दर्ज की गई। पहली एफ़आईआर संख्या 197/1992 उन तमाम कारसेवकों के ख़िलाफ़ दर्ज की गई थी जिसमें उन पर डकैती, लूट-पाट, चोट पहुंचाने, सार्वजनिक इबादत की जगह को नुक़सान पहुंचाने, धर्म के आधार पर दो गुटों में शत्रुता बढ़ाने जैसे आरोप लगाए गए थे।

दूसरी एफ़आईआर 198/1992 बीजेपी, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और आरएसएस से जुड़े उन 8 लोगों के ख़िलाफ़ थी जिन्होंने रामकथा पार्क में मंच से कथित तौर पर भड़काऊ भाषण दिया था। इस एफ़आईआर में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, वीएचपी के तत्कालीन महासचिव अशोक सिंघल, बजरंग दल के नेता विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर और विष्णु हरि डालमिया नामज़द किए गए थे।

सीबीआईऔर सीआईडी

पहली एफ़आईआर में दर्ज लोगों के मुक़दमे की जांच बाद में सीबीआई को सौंप दी गई जबकि दूसरी एफ़आईआर में दर्ज मामलों की जांच यूपी सीआईडी को सौंपा गया। साल 1993 में दोनों एफ़आईआर को अन्य जगहों पर ट्रांसफ़र कर दिया गया।

ललितपुर में स्पेशल कोर्ट

कारसेवकों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर संख्या 197 की सुनवाई के लिए ललितपुर में एक स्पेशल कोर्ट का गठन किया गया जबकि एफ़आईआर संख्या 198 की सुनवाई रायबरेली की विशेष अदालत में ट्रांसफ़र की गई।

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में उसी दिन दर्ज कराए गए दो अहम मुक़दमों के अलावा 47 और मुक़दमे दर्ज कराए गए जिनमें पत्रकारों के साथ मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप लगाए गए थे। बाद में इन सारे मुक़दमों की जाँच सीबीआई को दी गई।

इसके लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट की सलाह पर लखनऊ में अयोध्या मामलों के लिए एक नई विशेष अदालत गठित हुई। लेकिन उसकी अधिसूचना में दूसरे वाले मुक़दमे का ज़िक्र नहीं था।

अलग से छोड़ दी धारा

एफ़आईआर संख्या 198 के तहत दूसरा मुक़दमा रायबरेली में ही चलता रहा। साथ ही, मुक़दमों को ट्रांसफर किए जाने से पहले साल 1993 में एफ़आईआर संख्या 197 में धारा 120बी यानी आपराधिक साज़िश को भी जोड़ दिया गया। मूल एफ़आईआर में यह धारा नहीं थी।

5 अक्टूबर 1993 को सीबीआई ने एफ़आईआर संख्या 198 को भी शामिल करते हुए एक संयुक्त आरोप पत्र दाखिल किया क्योंकि दोनों मामले एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। आरोप पत्र में बाला साहेब ठाकरे, कल्याण सिंह, चंपत राय, धरमदास, महंत नृत्य गोपाल दास और कुछ अन्य लोगों के नाम अभियुक्तों में जोड़े गए।

8 अक्टूबर 1993 को यूपी सरकार ने मामलों के ट्रांसफर के लिए एक नई अधिसूचना जारी की जिसमें बाकी मामलों के साथ आठ नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर संख्या 198 को जोड़ दिया गया। इसका अर्थ यह था कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से जुड़े सभी मामलों की सुनवाई लखनऊ की स्पेशल कोर्ट में होगी। 1996 में लखनऊ की विशेष अदालत ने सभी मामलों में आपराधिक साज़िश की धारा को जोड़ने का आदेश दिया।

तकनीकी और क़ानूनी दांव-पेंच

इस मामले में सीबीआई एक पूरक आरोप पत्र दाख़िल किया जिसके आधार पर अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि लालकृष्ण आडवाणी सहित सभी नेताओं पर आपराधिक साज़िश के आरोप तय करने के लिए पहली नज़र में पर्याप्त सबूत थे।

विशेष अदालत ने आरोप निर्धारण के लिए अपने आदेश में कहा कि चूँकि सभी मामले एक ही कृत्य से जुड़े हैं, इसलिए सभी मामलों में संयुक्त मुक़दमा चलाने का पर्याप्त आधार बनता है। लेकिन लालकृण आडवाणी समेत दूसरे अभियुक्तों ने इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दे दी।

- 12 फ़रवरी 2001 को हाईकोर्ट ने सभी मामलों की संयुक्त चार्जशीट को तो सही माना लेकिन साथ में यह भी कहा कि लखनऊ विशेष अदालत को आठ नामज़द अभियुक्तों वाला दूसरा केस सुनने का अधिकार नही है, क्योंकि उसके गठन की अधिसूचना में वह केस नंबर शामिल नहीं था।

गलत आरोप

अभियुक्तों के वकील यह साबित करने में क़ामयाब रहे कि उत्तर प्रदेश सरकार की प्रशासनिक चूक के कारण उनके ख़िलाफ़ ग़लत तरीक़े से आरोप लगाए गए हैं। इस कथित प्रशासनिक चूक का इस्तेमाल आडवाणी और अन्य अभियुक्तों ने आपराधिक साज़िश के आरोप हटाने के लिए किया क्योंकि ये आरोप केवल एफ़आईआर संख्या 197 के मामले में डाले गए थे।

हाईकोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया कि यदि उनके पास आडवाणी और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक षड्यंत्र के सबूत हैं तो रायबरेली कोर्ट में सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल करे।

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2003 में सीबीआई ने एफ़आईआर 198 के तहत आठ अभियुक्तों के ख़िलाफ़ सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाख़िल की। हालांकि बाबरी मस्जिद ढहाने के आपराधिक साज़िश के आरोप को सीबीआई इसमें नहीं जोड़ सकी क्योंकि बाबरी मस्जिद ढहाने में आपराधिक साज़िश वाली एफ़आईआर संख्या 197 और भड़काऊ भाषण वाली एफ़आईआर संख्या 198 दोनों अलग-अलग थीं।

इस बीच, रायबरेली कोर्ट ने लालकृष्ण आडवाणी की एक याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार की और उन्हें आरोपों से यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनके ख़िलाफ़ केस चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। लेकिन साल 2005 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने रायबरेली कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि आडवाणी और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमे चलते रहेंगे। यह मामला कोर्ट में आगे बढ़ा ज़रूर लेकिन उसमें आपराधिक साज़िश के आरोप नहीं थे।

पहली गवाही 2007 में

- 2005 में रायबरेली कोर्ट ने मामले में आरोप तय किए और साल 2007 में इस मामले में पहली गवाही हुई।

- 2010 में दोनों मामलों को अलग करने का निचली अदालत का फ़ैसला इलाहाबाद हाइकोर्ट ने भी बरकरार रखा।

- 2001 में इस मामले में हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सीबीआई ने पुनर्विचार याचिका दायर की थी। हाइकोर्ट ने कहा कि मामले में दो प्रकार के अभियुक्त थे - पहले वो नेता जो मस्जिद से 200 मीटर की दूरी पर मंच से कार सेवकों को भड़का रहे थे और दूसरे ख़ुद कारसेवक। यानी आडवाणी और अन्य नेताओं के नाम आपराधिक साज़िश में नहीं जोड़े जा सकते थे।

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- 2011 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया और 20 मार्च 2012 को एक हलफ़नामा दायर किया जिसमें दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई के पक्ष में दलील दी गई। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में आडवाणी, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह सहित वरिष्ठ बीजेपी नेताओं को नोटिस जारी कर बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में आपराधिक साज़िश की धारा नहीं हटाने की सीबीआई की याचिका पर जवाब देने को कहा।

हाईकोर्ट का फैसला रद

- 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला रद्द कर दिया और साज़िश के आरोप फिर लगाए गए और दोनों ही मामलों को एक साथ सुनवाई करने की अनुमति दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने इस गतिरोध को हमेशा के लिए ख़त्म करते हुए लाल कृष्ण आडवाणी और 20 अन्य लोगों सहित कई अभियुक्तों के ख़िलाफ़ साज़िश का आरोप फिर से लगाने का आदेश दिया।

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- सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी करने के लिए एक समय सीमा तय कर दी। पहले यह दो साल की दी गई थी जो पिछले साल अप्रैल में ख़त्म हो रही थी लेकिन बाद में डेडलाइन इसे नौ महीने तक बढ़ा दिया गया।

कोरोना संकट के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इसे और बढ़ाते हुए और हर दिन सुनवाई करते हुए 31 अगस्त तक सुनवाई पूरी करने के निर्देश दिए। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने 30 सितम्बर तक फैसला सुनाने को कहा था जो आज हो भी गया।

प्रस्तुति - नीलमणि लाल



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