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भारत-चीन संघर्ष और चंद्रशेखर, यहां पढ़ें आने वाली पुस्तक के कुछ अंश

चंद्रशेखर ने अपने भाषण में उन लोगों को निशाने पर लिया जिन्होंने जवाहरलाल नेहरु को भारत का एकमात्र और अंतिम उद्धारक माना था । उन्होंने कहा कि यदि कुछ लोग ऐसा मानते कि भारत बनाने का काम सिर्फ और सिर्फ जवाहरलाल नेहरु ही कर सकते हैं, तो यह वास्तव में नेहरु, कांग्रेस पार्टी और समूचे राष्ट्र के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा ।

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Published on: 8 July 2020 4:41 PM IST
भारत-चीन संघर्ष और चंद्रशेखर, यहां पढ़ें आने वाली पुस्तक के कुछ अंश
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अनूप कुमार हेमकर

बलिया: 1962 में जब चीन-भारत सीमा पर युद्ध छिड़ा तो उस समय चंद्रशेखर राज्य सभा के सदस्य बन चुके थे । चंद्रशेखर ने दो अन्य प्रसोपा सांसदों एच. वी. कामथ और फरीदुल हक अंसारी के साथ मिलकर 24 सितम्बर 1962 को प्रधानमंत्री नेहरु को भारत-चीन सीमा की स्थिति पर एक पत्र लिखा । उन्होंने और उनके साथी सांसदों ने ‘चीनी आक्रमण के दौरान भी नेहरु सरकार द्वारा चीन के साथ एकतरफा पंचशील अपनाने का आरोप लगाया’। अपने इस पत्र में तीनों प्रसोपा सांसदों ने प्रधानमंत्री नेहरु से भारतीय संप्रभुता के लिए गंभीर चीनी खतरों पर विचार-विमर्श के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाने की मांग की । इस पत्र में चीन के साथ भारत की सीमा स्थिति पर विस्तृत जानकारी भी मांगी गई थी ।

नेहरु ने अपने जवाब में भारत-चीन सीमा पर स्थिति की गंभीरता को कमतर दिखने के लिए भारत-चीन सीमा पर चल रहे सैन्य संघर्ष को ‘नेफा इलाके में कुछ मामूली घटनाओं’ के नाम से पुकारा । 19 नवम्बर 1962 भारत-चीन सीमा संघर्ष पर राज्यसभा की बहस के दौरान, चंद्रशेखर ने भारतीय कम्युनिस्टों के खिलाफ चौंकाने वाले आरोप लगाए । उन्होंने दावा किया कि वारंगल (आंध्र प्रदेश) में, रक्षा कोष के लिए धन संग्रह करने निकले एक दल पर कम्युनिस्टों ने हमला किया था । चंद्रशेखर ने यह आरोप भी लगाया कि बर्दवान (पश्चिम बंगाल) में, चीन के विरोध में आयोजित एक प्रदर्शन पर कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय से पत्थरबाजी की गई । चंद्रशेखर, भारतीय कम्युनिस्टों को उनके वैचारिक आकाओं (रूस और चीन) के पिछलग्गू होने और भारत के बजाय अन्य देशों के प्रति उनकी निष्ठा को हमेशा अपने निशाने पर रखते थे ।

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चंद्रशेखर बड़ी तैयारी के साथ सवालों को उठाते थे

चंद्रशेखर ने राज्यसभा में पहुंचते ही बड़ी तैयारी से सवालों को उठाना शुरू किया । होमवर्क और अध्ययन के साथ । तार्किक रूप से, अपनी बात कहनी शुरू की । उनके सवाल, हस्तक्षेप और टिप्पणियां, उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं-सिद्धांतों के प्रतिफलन थे । 20 फरवरी 1963 को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए उन्होंने एक महत्वपूर्ण तथ्य बताया । कहा, मैं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का एक विनम्र कार्यकर्ता हूं । नवंबर-दिसंबर 1957 में मैं ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद को एक पत्र लिखा था कि चीनी लोग तकलाकोट में एकत्र हो रहे हैं ।

उत्तर प्रदेश सीमा के निकट रहने वाले लोगों को चीनी लोग बहका रहे हैं । कृपया सतर्क रहें और अपने लोग तैनात करें । मेरे उस पत्र का उत्तर नहीं दिया गया । तत्पश्चात मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखा कि शायद संपूर्णानंद जी यह सोच रहे हैं कि मैं राजनीति कर रहा हूं, आप सरकार के वरिष्ठ अधिकारी हैं । आपको इस संबंध में कार्रवाई करनी चाहिए । मुख्य सचिव से प्राप्त पत्र अब भी मेरे पास है । उन्होंने जवाब दिया कि मेरे पत्र को गुप्त पुलिस द्वारा देखा जा रहा है ।

चंद्रशेखर ने पूछा- कि चीन से इन स्पष्ट संकेतों के बावजूद भारत सतर्क क्यों नहीं रहा

चंद्रशेखर ने तब कहा कि इस तरह वर्ष 1959 में ही देश को यह स्पष्ट हो जाना चाहिए था, जब चीन के ‘पीपुल्स डेली’ में एक लेख छपा । समय की कमी के कारण मैं इसे उद्धृत नहीं कर रहा । पुनः छह मई, 1959 को ‘पीपुल्स डेली’ में ‘द रिवोल्यूशन इन तिब्बत एंड नेहरुज’ ‘फिलास्फी’ शीर्षक से एक लेख छपा था । चंद्रशेखर ने पूछा कि चीन से इन स्पष्ट संकेतों के बावजूद भारत सतर्क क्यों नहीं रहा ? उन्होंने जोर दिया कि भारत को 1959 में ही तिब्बत और भारत-चीन सीमा के बारे में चीनी इरादों के प्रति चौकस व मुखर हो जाना चाहिए था, लेकिन तब भी श्री भूपेश गुप्त ने आठ सितंबर, 1962 तक मौन बनाए रखा ।

चंद्रशेखर ने चीनी समाचार पत्र रेड फ्लाइट द्वारा अप्रैल 1960 में प्रकाशित एक संपादकीय का भी उल्लेख किया जिसमें दावा किया गया था कि चीन लेनिनवादी विचारधारा के यथार्थवाद में विश्वास करता है और इसलिए, भारत के साथ युद्ध अपरिहार्य था । अपने बयान में, उन्होंने भारत के साथ आसन्न युद्ध पर चीन से निकलने वाली चेतावनियों और खतरों को उजागर करने के लिए समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कई प्रामाणिक चीनी स्रोतों का हवाला दिया ।

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चंद्रशेखर ने कुछ ऐसे सवाल उठाये, जिनका भारत सरकार के पास कोई जवाब नहीं था

उन्होंने जवाहरलाल नेहरु द्वारा तिब्बती लोगों की संप्रभुता को सुरक्षित रखनेवाले उस आश्वासन की ईमानदारी पर सवाल उठाया । उन्होंने इस तथ्य पर अफसोस जताया कि जब एक बार चीनी सेना ने तिब्बती आबादी की सामूहिक हत्याओं का अभियान शुरू किया, तो नेहरु केवल उन्हें अपनी विनम्र सहानुभूति ही दे सकते थे । चंद्रशेखर ने कुछ सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठाए, जिनका भारत सरकार के पास कोई जवाब नहीं था ।

चंद्रशेखर ने नेहरु की चीन नीति के बारे में पूरे तथ्य और अकाट्य प्रमाण जुटाकर उनकी आलोचना की । उन्होंने चीनी सैन्य आक्रामकता के तुरंत बाद कोलंबो सम्मेलन में भारतीय और चीनी नेताओं के बीच हाथ मिलाने का मुद्दा उठाया । दिसंबर 1962 में छह देशों के कोलंबो सम्मेलन में भारत-चीन सीमा विवाद को हल करने के लिए मध्यस्थता की पेशकश की गई थी । चीनी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मैडम चऊ एनलाई ने किया था । भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व विदेश राज्य मंत्री लक्ष्मी मेनन ने किया । इसमें विदेशी मामलों के ऐतिहासिक प्रभाग के निदेशक एस. गोपाल भी शामिल थे ।

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चीन-भारत युद्ध के तत्काल बाद की इस कूटनीति पर, चंद्रशेखर ने जवाहरलाल नेहरु को याद दिलाया कि स्वयं नेहरु ने इतालवी फासीवादी नेता मुसोलिनी के साथ मिलने या उनसे हाथ मिलाने से इंकार कर दिया था । उस समय नेहरु ने कहा था कि मुसोलिनी के हाथ निर्दोष लोगों के खून से सने थे । इसलिए वे (नेहरु) मुसोलिनी से नहीं मिलेंगे । चंद्रशेखर ने जोर देकर कहा कि मुसोलिनी से मिलने से इनकार करके, नेहरु बचपना नहीं बल्कि अकारण हिंसक आक्रामकता के खिलाफ एक पुख्ता विरोध दर्ज कर रहे थे । आज प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय प्रतिनिधियों को चीनी प्रतिनिधिमंडल से मिलने के लिए भेजकर, प्रधानमंत्री नेहरु स्वयं उन्हीं सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं ?

चंद्रशेखर ने नेहरु को प्रेरित करने के लिए, भगवदगीता को उद्धृत किया

चंद्रशेखर ने भारत सरकार से इस अवसर पर पूरे निश्चय से इस चुनौती को स्वीकार करने का आग्रह किया । उन्होंने रुडयार्ड किपलिंग द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन को उत्साहित करने के उद्देश्य से लिखी गई प्रसिद्ध कविता का हवाला दिया: ‘वंस मोर वी हिअर द वर्ड दैट सेकेंड अर्थ ऑफ ओल्ड - नो लॉ एक्सेप्ट द स्वोर्ड ऑनशीडेड एंड ऑनकंट्रोल्ड’ (एक बार फिर वही शब्द गूंजे हैं, जिन्होंने पुरानी दुनिया को दहलाया था- म्यान से निकली अनियंत्रित तलवार के अलावा और कोई कानून नहीं) । युद्ध काल में भीरुता त्याग कड़े निर्णय लेने के लिए नेहरु को प्रेरित करने के लिए, चंद्रशेखर ने भगवदगीता को उद्धृत किया:

'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:||

(या तो तू युद्ध में मारा जा स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो

जा) ।

चंद्रशेखर ने अपने भाषण में उन लोगों को निशाने पर लिया जिन्होंने जवाहरलाल नेहरु को भारत का एकमात्र और अंतिम उद्धारक माना था । उन्होंने कहा कि यदि कुछ लोग ऐसा मानते कि भारत बनाने का काम सिर्फ और सिर्फ जवाहरलाल नेहरु ही कर सकते हैं, तो यह वास्तव में नेहरु, कांग्रेस पार्टी और समूचे राष्ट्र के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा । चंद्रशेखर ने प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता पी.सी. जोशी द्वारा लिखे गए एक पत्र का हवाला देते हुए कम्युनिस्ट नेताओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया ।

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चंद्रशेखर ने दिग्गज कम्युनिस्ट सांसद भूपेश गुप्त को भी अपने निशाने पर लिया

जोशी ने अपने साथियों के बारे में कहा था किवे झूठे, बेहद झूठे हैं । वे बिना किसी शर्म के गलत बयान देते हैं । सही सबूतों को छिपाने में उन्हें कोई लिहाज नहीं है । चंद्रशेखर ने दिग्गज कम्युनिस्ट सांसद भूपेश गुप्त को भी अपने निशाने पर लिया । भूपेश गुप्त ने भारत-रूस मित्रता बनाए रखने के लिए, भारत को रूस के मित्र देश चीन के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठाने की सलाह दी थी । चंद्रशेखर ने पूछा कि यदि भारत-रूस मित्रता का आधार इतना ढुलमुल है, तो ऐसी दोस्ती कितनी स्थायी होगी ?

राज्यसभा में चंद्रशेखर का यह ओजस्वी भाषण अनूठा है, उनके काम-काज, श्रम, प्रतिभा और विजन का भावी संकेत देने वाला । चंद्रशेखर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से सांसद थे । इस दल के पास, सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी जैसे बुनियादी, बौद्धिक, और संस्थागत संसाधन नहीं थे । चंद्रशेखर न प्रतिष्ठित परिवार से थे, न उन्हें वैभवशाली परवरिश ही मिली थी ।

ताकि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर वे तथ्यपरक मूल्यांकन प्रस्तुत कर सकें

उनका परिवार अभिजात वर्ग की शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकता था । इसके बावजूद उन्होंने महत्वपूर्ण जानकारी, तथ्य और सबूत जुटाने के लिए खुद को सम्यक और व्यवस्थित शोध के लिए प्रशिक्षित किया, ताकि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर वे तथ्यपरक मूल्यांकन प्रस्तुत कर सकें । विभिन्न स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने का उनका श्रमसाध्य प्रयास अभूतपूर्व था । सूचना प्रौद्योगिकी युग से पहले, उनके पास जानकारी जुटाने के लिए गूगल, ई-लाइब्रेरी और डिजिटल अभिलेखागार जैसे आधुनिक साधन नहीं थे ।

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भारत-चीन युद्ध के बारे में चंद्रशेखर ने लिखा हैः मैं मानता हूं कि युद्ध के लिए हमलोगों ने ही उत्तेजना पैदा की थी । पंडित जवाहरलाल नेहरु उस समय श्रीलंका जा रहे थे । जाते समय उन्होंने कहा कि चीनी फौजें हमारी सीमा में आ रही हैं, उनको उठाकर बाहर फेंक दो (थ्रो देम आउट), उनके लफ्ज थे । पंडित नेहरु की इस अचानक प्रतिक्रिया या बगैर किसी तैयारी के की गई प्रतिक्रिया से गंभीर स्थिति पैदा हुई । चीन ने भारत पर हमला कर दिया, देश में इसकी कोई तैयारी नहीं थी' ।

भारत के लोगों ने तो चीन से किसी युद्ध की कल्पना तक नहीं की थी

प्रख्यात ब्रिटिश इतिहासकार नेविल मैक्सवेल ने भारत-चीन युद्ध पर एक विवादास्पद पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने भारत को आक्रमणकारी के रूप में चित्रित किया था । इसके विपरीत, चंद्रशेखर का मानना ​​था कि आक्रामक होने के बजाय, एक राष्ट्र के रूप में भारत इस युद्ध के लिए तैयार नहीं था । हिंदी-चीनी भाई-भाई की भावना सर्वोपरि थी और भारत के लोगों ने तो चीन से किसी युद्ध की कल्पना तक नहीं की थी ।

जवाहरलाल नेहरु ने उस समय ऐसी असावधानी क्यों बरती ? यह असावधानी केवल सामरिक तैयारी के सिलसिले में ही नहीं थी, अनेक मामलों में थी । चंद्रशेखर ने लिखा है कि जहां तक मुझे याद है, सीमा विवाद पर चीन, ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के प्रतिनिधियों के बीच समझौते के लिए कई बैठकें हुईं । हर बार जो संधि हुई, चीन ने उस पर एतराज किया । इस तरह संधि केवल तिब्बत और ब्रिटिश इंडिया के बीच ही हुई थी । जिस समय भारत ने तिब्बत पर चीन की संप्रभुता स्वीकार की, उस समय हमने इन बातों को नजरअंदाज किया ।

चंद्रशेखर की दृष्टि में यहीं भारत से चूक हुई ।

हम चाउ-एन-लाई को कह सकते थे कि जो पुरानी संधिया हैं, उन पर आप हस्ताक्षर कर दीजिए । चंद्रशेखर की दृष्टि में यहीं भारत से चूक हुई । बाद में चीन के लोगों का तर्क रहा कि जब आप मानते हैं कि तिब्बत हमारा हिस्सा है, तो तिब्बत से ब्रिटिश इंडिया की जितनी संधियां हैं, उनका कोई मतलब नहीं है । हालांकि, चंद्रशेखर यह भी मानते थे कि उसके लिए प्रधानमंत्री को अकेले जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है । पंडित जी ने तो हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया था । वे जहां जनतांत्रिक संस्थाओं को मर्यादा देना चाहते थे, वहीं अपने व्यक्तित्व को एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व बनाने के लिए हमेशा सजग रहते थे ।

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बड़े बुरे तरीके से कृष्ण मेनन का त्यागपत्र हुआ

चंद्रशेखर मानते थे कि चीन युद्ध के समय हमारी कोई तैयारी नहीं थी, चूंकि हमारे रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन थे, इसलिए सारा दोष उनका बताया गया । फिर चंद्रशेखर टिप्पणी करते हैं कि कांग्रेस की परंपरा रही है कि उसका नेता कुछ भी करे, उसका दोष नहीं है । उसके लिए वह किसी दूसरे आदमी को तलाशते हैं, जिसे बलि का बकरा बनाया जा सके । बड़े बुरे तरीके से कृष्ण मेनन का त्यागपत्र हुआ । मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि कृष्ण मेनन की आवाज कभी संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका जैसी ताकतें सुनकर थर्राती थीं । लेकिन रक्षा मंत्री पद से हटने के बाद संसद के केंद्रीय कक्ष में उनके पास कोई बैठने वाला भी नहीं था

यह हमारा समाज है । यह हमारी राजनीति है ।

जब दिल्ली में यह खबर मिली कि चीन की फौज तेजपुर तक पहुंच गई है, तब चंद्रशेखर नए-नए सांसद बने थे । उन्होंने बताया है कि किसी से सलाह किए बिना वे गुवाहाटी चले गए । वहां से टैक्सी लेकर तेजपुर की ओर । वहां बिपिनपाल दास मिले, जो प्रिंसिपल थे । बाद में भारत सरकार के मंत्री भी हुए । चंद्रशेखर ने कहा है कि उन दिनों मैं काफी चिंतित था कि ऐसी स्थिति क्यों आई ? मैं सीमा पर जाकर स्थिति खुद देखना चाहता था, तब देश की हालत बहुत बुरी थी ।

ऐसा लगता था कि कहीं राजसत्ता का प्रताप-इकबाल ही नहीं है । चंद्रशेखर की अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बारे में समझ बड़ी साफ थी । उन्होंने चीन युद्ध के संदर्भ में उल्लेख भी किया है कि उस वक्त अमेरिका का जो रुख था, वह भारत के पक्ष में कतई नहीं माना जा सकता । अमेरिका का रुख हमेशा पाकिस्तान की ओर रहा । एंग्लो-अमेरिकन धुरी भारत की सच्ची हितैषी के रूप में नहीं रही । पाकिस्तान बनाने में एक नैतिक जिम्मेदारी कहीं न कहीं अमेरिकियों की भी रही होगी ।

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पंडित जी कभी-कभी लोगों का बड़ा मजाक बनाते थे

चंद्रशेखर मानते थे यद्यपि, चीन की सेना वापस चली गई थी, पर लोगों का मन आतंक, भय और असमर्थता के एहसास से भर गया था । उस समय संसद में इस बात पर बहस हो रही थी । हमारी पार्टी के नेता आर.पी. सिन्हा जी ने पंडित जी से कुछ सवाल पूछा । पंडित जी कभी-कभी लोगों का बड़ा मजाक बनाते थे । उनका भी मजाक बना दिया । सारे सदन में हंसी हो गई । वे बेचारे चुप बैठ गए । मुझे कुछ अजीब लगा ।

मैंने उठकर अंग्रेजी में कहा कि प्रधानमंत्री जी क्या युद्ध के नेता की तरह बरताव करेंगे या पुरानी गलतफहमियों में रहेंगे ? क्या अब भी हमलोगों ने काफी सबक नहीं सीखा है ? उस समय जाकिर हुसैन साहब अध्यक्ष थे । एक बार पहले कैरों के मामले में जवाहरलाल जी से मेरी बहस हो गई थी । जब मैं पंडित जी से कोई सवाल पूछना चाहता था तो जाकिर साहब जरा आंखें फेर लेते थे ।

रिपोर्ट- अनूप कुमार हेमकर, बलिया

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