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दल बदलने में माहिर हैं नरेश अग्रवाल-संजय सिंह, जानिए इनका राजनीति इतिहास
यूपी की राजनीति के दो धुरधरों की इन दिनों खूब चर्चा हो रही है। चर्चा उनकी जनसेवा की नहीं बल्कि इन दोनों नेताओं के दल बदलने को लेकर हो रही है कि दल बदलने की होड़ में कौन होगा? यहां हम बात कर रहे हैं संजय सिंह और नरेश अग्रवाल की। यह दोनों ही नेता मूल रूप से कांग्रेसी हैं
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: यूपी की राजनीति के दो धुरधरों की इन दिनों खूब चर्चा हो रही है। चर्चा उनकी जनसेवा की नहीं बल्कि इन दोनों नेताओं के दल बदलने को लेकर हो रही है कि दल बदलने की होड़ में कौन होगा? यहां हम बात कर रहे हैं संजय सिंह और नरेश अग्रवाल की। यह दोनों ही नेता मूल रूप से कांग्रेसी हैं और कई दलों में शामिल होने के बाद इन दिनों भाजपा में हैं।
पूर्व कांग्रेसी नेता संजय सिंह 1989 से अब तक 5 बार दल बदल चुके हैं। कांग्रेस से शुरू हुआ सफर जनता दल, सजपा, भाजपा फिर कांग्रेस और अब फिर वापस भाजपा पर आकर टिक गया है। 1977 में संजय गांधी के साथ दोस्ती को लेकर चर्चा में रहे संजय सिंह 1980 में पहली बार चुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचे और प्रदेश सरकार में मंत्री बने। 1989 में जब कांग्रेस का पराभव हुआ और वीपी सिंह की हवा चली तो उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और वीपी सिंह के हम राही हो गए।
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इसके बाद जब वीपी सिंह की केंद्र में सरकार गिरी और चंद्रशेखर की सरकार गठित हुई तो वह उनकी पार्टी सजपा में शामिल हो गए। मौके का लाभ उठाया और उनके दल के सहारे राज्यसभा पहुंच गए। यही नहीं चंद्रशेखर की 4 महीने की सरकार में दूरसंचार मंत्री भी बन गए। 2-3 साल राजनीतिक तौर पर थोड़ा शांत रहने के बाद जब प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार बनी तो 1998 में वह भाजपा में शामिल हो गए और अमेठी से चुनाव लड़कर कभी राजनीतिक साथी और गांधी परिवार के करीबी रहे कांग्रेस के कैप्टेन सतीश शर्मा से उनकी सीट छीन ली।
1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर एक बार फिर उन्होंने अमेठी से अपनी किस्मत आजमाई, लेकिन तब तक गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी का राजनीति में पदार्पण हो चुका था। इस चुनाव में वह सोनिया गांधी से चुनाव हार गए। जब सोनिया गांधी अमेठी से सांसद बन गईं तो अमेठी राजपरिवार के इस राजा ने कांग्रेस के साथ चलने का फैसला लिया। इस बीच 2004 मे अटल साकार गिर चुकी थी और केंद्र में कांग्रेस सरकार का गठन हो चुका था। 2009 के लोकसभा चुनाव में अमेठी से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने के कारण उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर सुलताननपुर का रुख किया और इस सीट से चुनाव जीता।
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इसके बाद जब 2014 में मोदी लहर दिखाई पड़ी तो कहा गया कि वह भाजपा में जा रहे हैं इस पर कांग्रेस में दबाव बढ़ा और उन्हें असम से राज्यसभा भेजना पड़ा। इसके बाद जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुए तो उन्होंने अपनी किस्मत सुलतानपुर से आजमाई, लेकिन कभी पारिवारिक मित्र रहे स्व संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी से बुरी तरह से चुनाव हारे। यहां तक कि इस चुनाव में वह अपनी जमानत भी न बचा सके।
2009 में मुलायम सिंह यादव की नीतियों पर आस्था व्यक्त कर अपने कुनबे समेत समाजवादी पार्टी में शामिल होने के बाद 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले नरेश अग्रवाल ने जब मुलायम सिंह के खिलाफ अपना मुंह खोला तो राजनीति के जानकारों को तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ।
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नरेश अग्रवाल मूलरूप से कांग्रेसी परिवार से राजनीति में आए। 1997 में उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर लोकतांत्रिक कांग्रेस बना ली और बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री भी बने। 2002 का चुनाव उन्होंने सपा के टिकट पर लड़ा और फिर मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व वाली प्रदेश सरकार में परिवहन मंत्री भी बने। इसके बाद 2007 का चुनाव भी वह समाजवादी पार्टी से जीते, लेकिन प्रदेश में जब मायावती की सरकार बनी तो उन्होंने सपा से नाता तोड़ लिया और बसपा में शामिल हो गए।
बसपा में शामिल होने के बाद मायावती ने पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया, लेकिन जब वह लोकसभा का चुनाव हार गए तो उन्हें राज्यसभा भेजा गया। 2012 के विधानसभा चुनाव में हवा का रुख समाजवादी पार्टी का रूख भांपकर उन्होंने बसपा से मुंह मोड़ लिया और कुनबे समेत समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। बाद में वह समाजवादी पार्टी के दम पर 2012 में एक बार फिर राज्यसभा पहुंच गए।
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28 मई 2008 को जब बसपा में शामिल हुए थे तो उन्होंने कहा था, अब पूरा राजनीतिक जीवन बहन जी को अर्पित कर रहा हूं। मायावती भावी देश की कर्णधार हैं। इसके बाद जब 30 दिसंबर 2011 को सपा में शामिल हुए तो कहा कि मुलायम सिंह को सीएम बनाकर ही चैन लूंगा। इसके बाद जब 2017 में अखिलेश यादव की प्रदेश सरकार चली गयी और देश में मोदी का जादू चलना शुरू हो गया तो उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया।