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तेल का असली राजा तो है अमेरिका
जब मिडिल ईस्ट में तेल निकलने लगा तो धीरे धीरे तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के मार्केट पर कब्ज़ा कर लिया और तबसे यही संगठन तेल और तेल के दामों को नियंत्रित कर रहा है। लेकिन अमेरिका पीछे नहीं हटा।
नीलमणि लाल
लखनऊ। भले ही सऊदी अरब, ईरान, ईराक, रूस आज के दौर में तेल के बाजार को कंट्रोल कर रहे हैं लेकिन कच्चे तेल का असली राजा अमेरिका है। अमेरिका के पास इतना तेल भण्डार है कि वो पूरी तरह आत्मनिर्भर बन सकता है। बीसवीं सदी के मध्य तक दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक अमेरिका था और वही दुनिया में तेल के दाम कंट्रोल करता था। जब मिडिल ईस्ट में तेल निकलने लगा तो धीरे धीरे तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के मार्केट पर कब्ज़ा कर लिया और तबसे यही संगठन तेल और तेल के दामों को नियंत्रित कर रहा है। लेकिन अमेरिका पीछे नहीं हटा। अमेरिका में शेल तेल यानी चट्टानों में मिलने वाले तेल की खोज के बाद से हालात बदले। ड्रिलिंग तकनीकों का विकास हुआ और अमेरिका फिर से दुनिया का टॉप तेल उत्पादक बन गया है।
कच्चे तेल को कमर्शियल तरीके से निकालने का काम
विश्व में जमीन के भीतर से कच्चे तेल को कमर्शियल तरीके से निकालने का काम सबसे पहले अमेरिका में ही हुआ था और इसके चलते तेल के दाम तय करने की पावर उसी के पास निहित थी। शुरुआत में तेल निकलने और उसकी रिफाइनिंग का काम जटिल हुआ करता था सो तेल के दाम भी ऊंचे रहते थे और इनमें लगातार उतार चढ़ाव हुआ करता था। अगर आज के दामों से तुलना करें तो 1860 के दशक में कच्चे तेल के दाम 120 डालर प्रति बैरल तक पहुँच गए थे। वैसे इसकी बड़ी वजह अमेरिका का गृह युद्ध था जिसके कारन डिमांड बहुत बढ़ गयी थी।
गृह युद्ध समाप्त हुआ तो अगले पांच सालों में दाम 60 फीसदी से ज्यादा गिर गए लेकिन फिर 50 फीसदी चढ़ गए। यानी उतार चढ़ाव बना हुआ था। 1901 में टेक्सास प्रान्त के पूर्व में तेल की खोज के बाद तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था में तेल का स्थान टॉप पर पहुँच गया और तेल उद्योग का तेजी से विकास होने लगा।
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इसके बाद 1908 में पर्शिया (आज का ईरान) और 1930 के दशक में सऊदी अरब में तेल की खोज के चलते तेल की सप्लाई और डिमांड काफी बढ़ गयी। सन 50 और 60 के इकनोमिक बूम और वियतनाम युद्ध के कारण अमेरिका में तेल की डिमांड बहुत बढ़ गयी और वो इम्पोर्टेड तेल पर निर्भर हो गया। इसका नतीजा ये हुआ कि अरब देशों और 1960 में स्थापित ओपेक को तेल के दामों में खेल करने का भरपूर मौक़ा मिल गया जो आज तक जारी है।
ओपेक का ब्रह्मास्त्र
आर्गेनाइजेशन ऑफ़ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कन्ट्रीज यानी ओपेक का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि तेल के दामों में सौदेबाजी की जा सके और प्रोडक्शन को ऐसे रखा जाए ताकि दाम पर नियंत्रण बना रहे। ओपेक के 13 मेंबर देश हैं – अल्जीरिया, अंगोला, कांगो, इक्वेटोरियल गिनी, गैबन, ईरान, ईराक, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया, सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात और वेनेज़ुएला।
ओपेक की दादागिरी 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के समय खुल कर सामने आई जब ओपेक के अरब सदस्यों ने इजरायल की मदद करने पर अमेरिका के खिलाफ तेल प्रतिबन्ध लगा दिए और अमेरिका को तेल की सप्लाई रोक दी। विश्व की ये बहुत बड़ी और अभूतपूर्व घटना थी कि अमेरिका के खिलाफ किसी ने ऐसा एकदम उठा लिया था। लेकिन सन 73 की इसी कदम ने ओपेक का पलड़ा हमेशा के लिए भरी कर दिया। उसने दिखा दिया था उसके पास तेल रूपी ब्रह्मास्त्र है जिसके सामने सभी को झुकना पड़ेगा।
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ओपेक 'प्राइसिंग ओवर वॉल्यूम'
ओपेक ‘प्राइसिंग ओवर वॉल्यूम’ की रणनीति पर चलता है जिसमें तेल उत्पादन से दाम लिंक्ड रहते हैं। 73 के तेल प्रतिबन्ध का असर ये हुआ कि तेल बाजार पर खरीदार की बजाये विक्रेता का पूर्ण कंट्रोल हो गया। 73 के पहले तेल मार्केट को ‘सेवेन सिस्टर्स’ कंट्रोल करते थे। ये कोई बहनें नहीं बल्कि पशिमी देशों की सात तेल कम्पनियाँ थीं जो अधिकाँश तेल मैदानों को ऑपरेट करती थीं।
1973 के बाद शक्ति संतुलन इन सात कंपनियों की बजाये ओपेक देशों की ओर झुक गया। बाद में विश्व की अनेक घटनाओं ने ओपेक को तेल के दामों पर कंट्रोल बनाये रखने में मदद की जिसमें सोवियत संघ का विघटन शामिल है। सोवियत संघ के टूटने के अनेक प्रभाव रहे थे, कई साल तक रूस का तेल प्रोडक्शन बाधित रहा, कई देशों की मुद्राएँ अवमूल्यित हो गयीं और इन सबका असर तेल की डिमांड पर पड़ा। लेकिन ओपेक के देश तेल का प्रोडक्शन सामान लेवल पर बनाये रहे, उनको सोवियत संघ के टूटने और उसके प्रभावों का कोई असर नहीं हुआ।
ओपेक प्लस का उदय
तेल उत्पादक देशों में एक नया गुट बना 2016 में जिसे ओपेक प्लस का नाम दिया गया। पोएक प्लस में ओपेक के सदस्यों के अलावा रूस और कजाकस्तान जैसे दस अन्य तेल निर्यातक देश शामिल हैं। चूँकि पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स का कोई सस्ता और सुलभ विकल्प नहीं है सो ओपेक प्लस का तेल के दामों पर प्रभाव बना हुआ है।
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जब दुनिया में तेल की डिमांड कम हो जाती है तो ओपेक के देश अपना प्रोडक्शन कोटा घटा देते हैं नतीजा ये होता है कि बाजार में तेल कम पहुंचता है और दाम चढ़ जाते हैं जिससे उत्पादक देशों को कोई नुकसान नहीं होता। कोरोना काल में ही तेल के दाम क्रैश कर गए थे क्योंकि आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ गयीं थीं, आवागमन बंद था और आर्थिक मंदी आ गयी थी। ऐसे में ओपेक और उनके सहयोगी देशों ने तेल उत्पादन में ऐतिहासिक कटौती कर दी लेकिन फिर भी कच्चे तेल के दाम बीस साल के सबसे निचले स्तर पर आ गए।
अब फिर मांग उठी है कि सरकार को ईंधन की कीमतों पर अपना नियंत्रण फिर से करना चाहिए और आम लोगों को राहत देनी चाहिए। हालांकि, सरकार इसे पूरी तरह से ख़ारिज कर चुकी है। साल 2018 में तेल मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने साफ कर दिया था कि सरकार तेल पर फिर से कंट्रोल करने पर कतई विचार नहीं कर रही है।
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