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संयुक्त राष्ट्रः भूमिका नहीं निभा पा रहा, कई मौकों पर रहा फेल
यूएन को योगदान करने वाले सदस्य देशों में भारत 21 वां सबसे बड़ा योगदानकर्ता देश है। 2017 में भारत ने 18.58 मिलियन डालर का अनिवार्य योगदान दिया था। 2019 के लिए भारत का अनिवार्य शेयर 25.50 मिलियन डालर बना लेकिन इसमें 2.3 मिलियन डालर आयकर छूट मिल गयी।
योगेश मिश्र
-पिछले 8 नौ महीने से पूरा विश्व कोरोना महामारी से संघर्ष कर रहा है , इस वैश्विक महामारी से निपटने के प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र कहाँ रहा?
-क्या उसने एक प्रभावशाली रिस्पॉन्स किया है ?
इन दोनों सवालों का जवाब सिर्फ़ भारत ही नहीं पूरी दुनिया को संयुक्त राष्ट्र संघ से चाहिए। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना कि संयुक्त राष्ट्र संघ को अपनी बेहतर भूमिका बनानी होगी , बेहद सही समय पर सही बात है।
क्योंकि इस वैश्विक महामारी पर संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका ने उसके होने पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। नरेंद्र मोदी ने यह जानना भी ज़रूरी समझा है कि आख़िर राष्ट्र संघ में सुधार को लेकर प्रक्रिया चल रही है यह प्रक्रिया तार्किक अंत तक कब पहुँच पाएगी?
निर्णय की प्रक्रिया में हिस्सेदारी
कब तक भारत जैसे देश को संयुक्त राष्ट्र संघ निर्णय लेने की व्यवस्था से अलग रखेगा ? वह भी तब जबकि भारत जबकि भारत में होने वाले बदलावों से पूरी दुनिया प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती है। भारत की आवाज़ हमेशा शांति, सुरक्षा व समृद्धि के लिए उठी है।
अपनी उपयोगिता खोता संयुक्त राष्ट्र (फोटो सोशल मीडिया)
भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। दुनिया का हर छठा आदमी भारतीय है । दुनिया की 18 फ़ीसदी जनसंख्या भारत में बस्ती है। तक़रीबन 50 शांति मिशन में भारत ने अपने सैनिक भेजे। भारत ने नागरिकों को सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए कई बड़े फ़ैसले लिए हैं।
अपने 75 वें वर्ष में संयुक्त राष्ट्र एक विषम दौर से गुजर रहा है – वैश्विक महामारी, क्लाइमेट चेंज संकट, राष्ट्रों में जबरदस्त शक्ति प्रतिस्पर्धा, ट्रेड वॉर, आर्थिक संकट और इंटरनेशनल सहयोग में व्यापक बिखराव है।
संयुक्त राष्ट्र ने पहले भी बहुत मुश्किल हालातों का सामना किया है लेकिन आज जिस तरह से ये संगठन दरकिनार किया जा चुका है। इसमें जिस तरह की गुटबंदी है वह पहले कभी नहीं देखी गयी।
अंतरराष्ट्रीय सहयोग की विफलता
सच्चाई तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र की विफलता दरअसल अंतरराष्ट्रीय सहयोग की विफलता है। जब राष्ट्र किसी सहमति पर पहुँचने में असफल रहते हैं तो संयुक्त राष्ट्र के पास कुछ भी कर सकने की शक्ति नहीं होती।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 26 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र आम सभा को संबोधित करते हुए साफ़ साफ़ इस विश्वसनीयता के संकट को रेखांकित किया? इसके पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी ठीक यही सवाल उठाया था।
ये सवाल असलियत में सभी सदस्य राष्ट्रों से है। इसका जवाब किसी के पास नहीं है क्योंकि विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। कोविड-19 महामारी में यूएनओ न तो कुछ बोला है और न ही कुछ किया है। दुनिया के राष्ट्रों की मदद, एकजुटता और संरक्षण के लिए बने इस संगठन के औचित्य पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है।
पूरी तरह फेल रहा
कहने को संयुक्त राष्ट्र सभी देशों की बराबरी से मदद करने, भुखमरी, युद्ध, अशिक्षा आदि समस्याओं को दूर करने के लिए बना है लेकिन इस संगठन के इतिहास में तमाम ऐसे वाकये आये हैं जब ये पूरी तरह फेल साबित हुआ है। सन 1945 में वजूद में आये इस संगठन के पास अपने 75 साल के अपने इतिहास में संयुक्त राष्ट्र के पास गौरव करने लायक बहुत कम उदाहरण होंगे।
बावजूद इसके संयुक्त राष्ट्र को सिरे से ख़ारिज भी नहीं कर सकते हैं। विश्व में जो कुछ भी संयुक्त रूप से हो रहा है वह संयुक्त राष्ट्र की ही देन है। वो चाहे मुक्त व्यापर व्यवस्था हो, ग्लोबल डाक व्यवस्था हो या कॉपीराइट कानून। लेकिन ये सब तभी मुमकिन हो पाया जब बड़ी ताकतें सहमत हुईं थीं।
लेकिन कोविड-19 की जब बात करते हैं तो दुनिया की दो सबसे बड़ी ताकतें - अमेरिका और चीन परस्पर सहयोग को राजी ही नहीं है। यहीं संयुक्त राष्ट्र फेल हो जाता है। सुरक्षा परिषद कोविड 19 के दौर में लड़ाई वाले क्षेत्रों में युद्ध विराम के प्रस्ताव लाने में नाकाम रहा, महामारी से निपटने में सभी देशों की सहयोग पूर्ण कार्रवाई के लिए भी यूएन कुछ नहीं कर पाया।
ऐसा इसलिए कि जिन 5 ताकतों (अमेरिका, चीन, रूस, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस) के दम पर यूएन चलता है वो एकमत हो ही नहीं पाए।
ब्यूरोक्रेसी और भ्रष्टाचार
संयुक्त राष्ट्र की कार्यशैली ही बहुत विवादित रही है। घनघोर ब्यूरोक्रेसी, भ्रष्टाचार, घोटाले और सुरक्षा परिषद का अलोकतांत्रिक ढांचा – ये सब यूएन को खोखला करते चले गए हैं। विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आये संयुक्त राष्ट्र का मूल उद्देश्य था युद्ध रोकना और विवादित क्षेत्रों में शांति कायम करना है।
लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से अनगिनत युद्ध हुए हैं, बहुत से अब भी चल रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र बस देख ही रहा है। ज्यादातर मामलों में इस विफलता की वजह वीटो पावर वाले पांच देशों रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की विफलता का कोई एक कारण नहीं है बल्कि ये लीडरशिप, प्रबंधन और अनुशासन की भरी कमी और व्यापक अक्षमता से उपजी वजहें हैं। ये घुन संयुक्त राष्ट्र के समस्त अंगों में लगा हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को, यूनिसेफ, ह्यूमन राइट्स कमीशन आदि सब अक्षम और बेअसर साबित हो चुके हैं।
विफलता की मिसालें
संयुक्त राष्ट्र विभिन्न देशों के करोड़ों लोगों की मदद करने में फेल साबित हुआ है। चाहे बोस्निया-सर्बिया में हजारों लोगों का नरसंहार हो या रवांडा में लाखों लोगों का नस्लीय सफाया, संयुक्त राष्ट्र या तो आँख बंद किये रहा या इन कांडों को नरसंहार मानने से ही इनकार कर दिया।
उपयोगिता खोता संयुक्त राष्ट्र (फोटो सोशल मीडिया)
लीबिया, सीरिया, ईराक, सूडान, ज़िम्बाब्वे, म्यांमार, चीन, अल्जीरिया, नार्थ कोरिया, क्यूबा, पाकिस्तान, रूस और सऊदी अरब – तमाम ऐसे उदाहरण हैं जहाँ संयुक्त राष्ट्र ने कुछ किया ही नहीं। जबकि ये सब देश मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में कलंकित रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के बारे में आरोप लगते रहे हैं कि ये संगठन भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन का बुरी तरह शिकार है। यूएन की शांति बहाली सेनाओं पर इसका कोई नियंत्रण नहीं है। असलियत में शांति बहाली फोर्सेज में कोई अनुशासन कभी रहा ही नहीं है।
कम्बोडिया हिंसा (1975 – 1979)
अमेरिका – वियतनाम युद्ध समाप्ति और कम्बोडिया गृह युद्ध के बाद खमेर रूग ने कम्बोडिया को अपने कंट्रोल में ले किये और अति माओवाद की राह पर चलते हुए देश को सोशलिस्ट शासन में बदल डाला।
1975 से 79 के बीच कम्बोडिया में व्यापक नरसंहार किया गया और बीस लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। वियतनाम के हस्तक्षेप के बाद ही खमेर रूज शासन का अंत हुआ।
संयुक्त राष्ट्र का ये हाल रहा कि उसने अति अत्याचारी खमेर रूज शासन को मान्यता दे दी थी और कम्बोडिया में मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के प्रति आँखें बंद कर रखीं थीं।
सोमालिया का गृह युद्ध (1991 से जारी)
1991 में सोमालिया में विद्रोह में तानाशाह सिअद बर्रे का तख्ता पलट दिया गया था। तबसे अब तक सोमालिया में प्रतिद्वद्वी गुटों के बीच हिंसा चल ही रही है। दिसंबर 1992 में संयुक्त राष्ट्र शांति बहाली मिशन कि स्थापना हुई थी जिसका उद्देश्य गृह युद्ध और भुखमरी के शिकार लोगों को मानवीय मदद देना था। इस काम में भी यूएन विफल रहा है।
रवांडा का गृह युद्ध (1984)
रवांडा के गृह युद्ध में बहुत बड़े पैमाने पर नस्लीय नरसंहार किया गया। रवांडा की सशस्त्र सेना और विद्रोही रवांडा पेट्रियोटिक फ्रंट के बीच संघर्ष में 1990 से 94 के बीच अनगिनत लोग मारे गए। 1994 में रवांडा के हुतू शासन में आठ लाख तुत्सी लाग मार दिए गए और ढाई लाख से ज्यादा रेप किये गए। रवांडा में यूएन सेनाएं थीं लेकिन कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया।
इजरायल
1948 में इजरायल की स्थापना के बाद से फलस्तीन संघर्ष जारी है। सब 47 से 49 के बीच करीब आठ लाख लोग विस्थापित हुए, हजारों मारे गए। गाजा पट्टी में आर्थिक नाकेबंदी रही है,कब्जे वाली जगहों पर अविध बस्तियां बसाई गयीं। ये सब बंद करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के तमाम प्रस्ताव पारित किये गए लेकिन इनका कोई असर नहीं हुआ।
सीरिया गृह युद्ध (2011 से जारी)
2011 में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर निर्दयता से कार्रवाई की गयी जिसके बाद शुरू हुआ आन्तरिक युद्ध आज तक जारी है। सीरिया के गृह युद्ध में अमेरिका समेत दुनिया की तमाम ताकतें शामिल हैं।
सीरिया के बारे में संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव पारित किये लेकिन कोई असर नहीं हुआ। रूस ने अपनी वीटो पावर का इस्तेमाल करके असद को कम से कम दर्जन भर बार बचाया है।
इनके अलावा साउथ सूडान, यमन गृह युद्ध, रोहिंगिया संकट, ईराक पर हमला, दारफुर संघर्ष, बोस्निया-सर्बिया नरसंहार, आदि ऐसे हिंसात्मक मसले हैं जहाँ संयुक्त राष्ट्र सिर्फ दर्शक ही बना रहा और शांति कायम करने में फेल रहा।
तेल के बदले अनाज घोटाला
1995 में संयुक्त राष्ट्र ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन प्रशासन द्वारा पेश प्रस्ताव के बाद ईराक के लिए ‘आयल फॉर फ़ूड प्रोग्राम’ बनाया। इसके तहत इराक को खाद्य पदार्थ, दवाइयों और अन्य मानवीय जरूरतों के बदले तेल बेचने की इजाजत दी गई थी।
2004 के बाद पता चला कि इस प्रोग्राम में बड़े पैमाने पर घोटाले और घूसखोरी की गयी। आयल फॉर फ़ूड प्रोग्राम के कार्यकारी निदेशक तक इसमें शामिल थे। घोटालों के खुलासे के बाद ये प्रोग्राम बंद कर दिया गया। इस घोटाले की रकम डेढ़ अरब डालर आंकी गयी थी।
कांगो यौन शोषण मामला
अफ्रीकी देश कांगो में नब्बे के दशक में गृह युद्ध के कारण संयुक्त राष्ट्र के शांति बहाली फोर्स तैनात की गयी थी। इस फोर्स का काम अमन चैन कयाम करना था लेकिन खुद इस फोर्स के लोग कांगो की महिलाओं की जिंदगियां तबाह करने लगे।
खुलासों और जांच में पता चला कि शांति बहाली फोर्स के सैनिकों ने कम से कम दो हजार महिलाओं के साथ रेप और यौन शोषण किया। चूँकि शांति बहाली फोर्सेज में अलग अलग देशों की सेनाओं के सैनिक होते हैं सो संयुक्त राष्ट्र का उन पर रत्ती भर कंट्रोल नहीं होता। यही वजह है कि इस काण्ड में संयुक्त राष्ट्र कोई भी कार्र्वाई नहीं कर पाया।
उद्देश्य से भटका यूनेस्को
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने यूनेस्को का उद्देश्य था शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति के जरिये राष्ट्रों के मध्य सहयोग बढ़ाना। ताकि न्याय. कानून के राज, मानवाधिकार और मौलिक स्वतंत्रता को आगे बढ़ाया जा सके। लेकिन यूनेस्को का इतिहास विवादित रहा है।
उपयोगिता खोता संयुक्त राष्ट्र (फोटो सोशल मीडिया)
अमेरिका ने यूनेस्को के बजटीय कुप्रबंधन और इसके नस्लीय एजेंडा के विरोध में 1985 से 2003 तक यूनेस्को का बहिष्कार किया था। अमेरिका वापस योंनेस्को से इस समझ के साथ जुड़ा कि इसमें व्यापक वित्तीय और मैनेजमेंट सुधर किये गए होंगे और ये संगठन अपने मूल सिद्धांतों पर लौट आया होगा। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।
यूनीसेफ
बच्चों के संरक्षण, उनके अधिकारों की रक्षा, उनके विकास में सहायता – इन उद्देश्यों से यूनीसेफ की स्थापना हुई थी लेकिन आज जिस तरह से बच्चे मामूली बीमारियों से मर रहे हैं, भुखमरी का शिकार हैं, युद्ध में झोंके जा रहे हैं और विस्थापित होने को मजबूर हैं उससे यूनीसेफ बिलकुल फेल साबित होता दीखता है। यूनीसेफ की सफलता पर अमेरिका समेत कई देश सवाल खड़ा कर चुके हैं। फण्ड जुटाने के लिए यूनीसेफ जिस तरह बच्चों का इस्तेमाल करता है उसकी भी निंदा हुई है। लेकिन आज यूनीसेफ उन एजेंसियों में शुमार है जिसको सबसे ज्यादा फंड मिलता है।
अपनी ही रिपोर्ट में कमियां स्वीकारीं
संयुक्त राष्ट्र ने 2005 में संगठनात्मक रिफॉर्म्स पर एक कमेटी बनाई जिसमें मोजांबिक, नॉर्वे, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और ब्रिटिश चांसलर भी शामिल थे। इस पैनल की रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि यूएन असहाय लोगों की सहायता करने में असफल रहा है, विकास पर यूएन के काम कमजोर होते हैं और यूएन की कामकाज अक्षम और प्रभावहीन है।
पैनल ने कहा कि यूएन की एजेंसियों के बीच फंडिंग के लिए प्रतिस्पर्धा चला करती है। यूएन मिशन चींटी के चाल से चलते हैं और उनकी कार्यशैली पुरानी और बेकार है। पानी और बिजली जैसे सेक्टरों में यूएन की 20 से ज्यादा एजेंसियां लगी हुईं हैं और इनमें आपसी तालमेल नहीं है, ये फंडिंग के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा में लगी रहती हैं, पर्यावरण प्रबंधन में यूएन की 30 से ज्यादा एजेंसियां लगी हुईं हैं।
रिफार्म रिपोर्ट में कहा गया कि 60 देशों में लगी यूएन की एक तिहाई एजेंसियों का सालाना बजट 20 लाख डालर प्रति एजेंसी से भी कम रहा है जिससे सिर्फ आफिस का ही खर्चा निकल पाता है। ऐसे में ये एजेंसियां लोगों की सहायता पर भला क्या खर्चा कर सकती हैं।
विश्व भर में यूएन के 1200 कंट्री ऑफिस हैं और 100 देश तो ऐसे हैं जहाँ हर एक में 10 से ज्यादा कंट्री ऑफिस हैं। इनमें कई ऑफिस ऐसे हैं जहाँ मात्र 5 लोगों का स्टाफ है लेकिन बजट 8-9 मिलियन डालर का है। इस बजट का बड़ा हिस्सा ऑफिस और वेतन पर खर्च किया जाता है जिसके बाद अन्य गतिविधियों के लिए मामूली रकम बचती है।
एक ट्रिलियन डालर खर्चा
संयुक्त राष्ट्र की 17 विशेषज्ञ एजेंसियां हैं, 14 कोष हैं और 17 विभाग हैं जिनमें 41 हजार लोग काम करते हैं। संयुक्त राष्ट्र के बजट पर सभी 193 सदस्य देशों में हर दो साल में सहमति बनती है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों द्वारा दिए गए चंदे से चलता है। सदस्यता की एक शर्त चन्दा देना भी है सो कोई देश चंदा देने से इनकार नहीं कर सकता।
कोई देश कितना धन देगा इसका एक बेहद जटिल फार्मूला है जो 8 बिन्दुओं पर आधारित होता है लेकिन बहुत कुछ देश की सकल राष्ट्रीय आय, विदेशी कर्ज और जनसंख्या पर निर्भर करता है।
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अनिवार्य चंदे के अलावा सदस्य देश अपनी मर्जी से भी योगदान कर सकते हैं। आईएमएफ, यूनिसेफ, यूएन डेवलपमेंट प्रोग्राम, वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम और यूएन कमिश्नर फॉर रिफ्यूजी जैसे कई यूएन संगठन स्वैक्षिक चंदे पर निर्भर रहते हैं।
1950 के दशक से तुलना करें तो आज संयुक्त राष्ट्र का खर्चा 40 से 50 गुना बढ़ चुका है। संयुक्त राष्ट्र के बजट में सभी देश योगदान करते हैं और उसी पैसे से इस संगठन के प्रशासन-प्रबंधन का खर्चा चलता है। संयुक्त राष्ट्र की 74 फीसदी फंडिंग सरकारों से आती है लेकिन कुछ स्वतंत्र संगठन भी संयुक्त राष्ट्र को धन देते हैं। इनमें यूरोपियन कमीशन और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन शामिल हैं।
12 एजेंसियों को मोटी फंडिंग
संयुक्त राष्ट्र को जो पैसा मिलता है वो उसकी सभी एजेंसियों आदि को बराबर से नहीं बंटता है। यूएन की 12 सबसे बड़ी एजेंसियों को ही अधिकांश रकम मिलती है।
मिसाल के तौर पर 2017 में यूएन को 53.2 बिलियन डालर मिले जिसका 86 फीसदी मात्र 12 एजेंसियों को चला गया और इस लिस्ट में टॉप पर था डिपार्टमेंट ऑफ़ पीसकीपिंग ऑपरेशंस यानी शांति बहाली सेनाओं वाला विभाग। कहीं शांति कायम रखने में नाकामयाब इस विभाग को 8.3 बिलियन डालर मिले थे।
अमेरिका टॉप पर
संयुक्त राष्ट्र को फंडिंग करने वाले देशों में अमेरिका टॉप पर है। 2018 में अमेरिका ने सबसे ज्यादा 10 अरब डालर का योगदान किया था। अन्य टॉप 10 देशों में जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम, जापान, चीन, स्वीडन, नॉर्वे, कनाडा, इटली और फ्रांस हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प ने यूएन की फंडिंग घटाने की पेशकश की थी लेकिन कांग्रेस यानी संसद में उनका प्रस्ताव पास नहीं हो पाया क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी कोई कटौती नहीं चाहती थी।
भारत का योगदान
यूएन को योगदान करने वाले सदस्य देशों में भारत 21 वां सबसे बड़ा योगदानकर्ता देश है। 2017 में भारत ने 18.58 मिलियन डालर का अनिवार्य योगदान दिया था। 2019 के लिए भारत का अनिवार्य शेयर 25.50 मिलियन डालर बना लेकिन इसमें 2.3 मिलियन डालर आयकर छूट मिल गयी।
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ये छूट भारत में यूएन के स्टाफ के वेतन पर थी। भारत की अर्थव्यवस्था में मजबूती के साथ भारत का योगदान लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2013 में भारत की हिस्सेदारी 16.97 मिलियन डालर की थी। भारत यूएन में स्वैक्षिक योगदान भी करता है। अगर अनिवार्य और स्वैक्षिक योगदान को मिला दें तो भारत ने 2019 में करीब ढाई अरब रुपये दिए थे।