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ये खतरनाक बम! सेकेंडों में कर सकता है कई देशों को तबाह

बहुत बड़ा करने के चक्कर में हम कई बार ऐसी चीजें बना डालते हैं, जिनका कोई इस्तेमाल नहीं हो पाता। अब बिखर चुके सोवियत संघ ने भी शीत युद्ध के जमाने में

Deepak Raj
Published on: 25 Feb 2020 2:46 PM IST
ये खतरनाक बम! सेकेंडों में कर सकता है कई देशों को तबाह
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नई दिल्ली। बहुत बड़ा करने के चक्कर में हम कई बार ऐसी चीजें बना डालते हैं, जिनका कोई इस्तेमाल नहीं हो पाता। अब बिखर चुके सोवियत संघ ने भी शीत युद्ध के जमाने में एक ऐसा एटम बम बना डाला था, जिसका कोई इस्तेमाल होना मुमकिन नहीं था। हालांकि इंसानियत के लिहाज से ये ठीक ही हुआ। वरना धरती पर भयंकर तबाही मच सकती थी।

सोवियत संघ बम बनाने के लिए बेकरार था

बात बीसवीं सदी के साठ के दशक की है। दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो गया था। अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराकर इसकी ताकत दुनिया को दिखा दी थी। दूसरा विश्व युद्ध खत्म होते ही अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध छिड़ गया था।

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दोनों देश एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए एक से एक हथियार बना रहे थे। एटम बम के मामले में अमेरिका से पिछड़ा सोवियत संघ, एक ऐसा बम बनाने के लिए बेकरार था, जो दुनिया में सबसे बड़ा हो। सोवियत संघ के एटमी वैज्ञानिक आंद्रेई सखारोव ने आखिरकार साठ का दशक आते-आते ऐसा बम तैयार कर ही लिया।

इसे नाम दिया गया जार का बम। जार रूस के राजाओं की उपाधि थी। उन्हीं के नाम पर कम्युनिस्ट सरकार ने इसे जार का बम नाम दिया। ये इतना विशाल एटम बम था कि इसके लिए खास लड़ाकू जहाज बनाया गया।

आम तौर पर हथियार और मिसाइलें लड़ाकू जहाजों के भीतर रखी जाती हैं, लेकिन जिस जार के बम यानी सबसे बड़े एटम बम को सोवियत वैज्ञानिकों ने बनाया था, वो इतना बड़ा था कि उसे विमान से पैराशूट के जरिए लटका कर रखा गया था।

एटम बम का वजन 27 टन से भी ज्यादा था

इसके लिए सोवियत लड़ाकू विमान तुपोलोव-95 के डिजाइन में बदलाव किए गए थे। 30 अक्तूबर 1961 को Tu-95 विमान ने पूर्वी रूस से उड़ान भरी थी। इसमें उस वक्त का सबसे बड़ा एटम बम यानी जार का बम रखा गया था, जिसका परीक्षण किया जाना था। ये एटम बम आठ मीटर लंबा और 2.6 मीटर चौड़ा था। इसका वजन 27 टन से भी ज्यादा था।

ये बम, अमेरिका के लिटिल बॉय और फैट मैन एटम बमों जैसा ही था, मगर उनसे बहुत बड़ा था। ये पल भर में एक बड़े शहर को खाक में तब्दील कर सकता था। सोवियत लड़ाकू जहाज टुपोलोव-95 इसे लेकर रूस के पूर्वी इलाके में स्थित द्वीप नोवाया जेमलिया पर पहुंचा।

इसके साथ ही एक और विमान उड़ रहा था, जिसको कैमरे के जरिए बम के विस्फोट की तस्वीरें उतारनी थीं। टुपोलोव विमान ने करीब दस किलोमीटर की ऊंचाई से पैराशूट के जरिए गिराया गया।

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इसकी वजह ये थी कि जब तक विस्फोट हो, तब तक गिराने वाला लड़ाकू जहाज और तस्वीरें उतारने के लिए गया विमान, दोनों सुरक्षित दूरी तक पहुंच जाएं। हालांकि इसकी उम्मीद पचास फीसदी ही थी।

दुनिया के सबसे ताकतवर एटम बम के इस धमाके से पूरा नोवाया जेमलिया द्वीप तबाह हो गया। सैकड़ों किलोमीटर दूर स्थित घरों को भी विस्फोट की वजह से काफी नुकसान पहुंचा था। विस्फोट इतना भयंकर था कि इससे पचास किलोमीटर की दूरी पर उड़ रहा टुपोलोव विमान गोते खाकर एक हजार मीटर नीचे आ गया था।

पायलट ने बमुश्किल उसे संभाला। पायलट ने बाद में बताया कि वो मंजर बेहद भयानक था। यूं लग रहा था कि बम ने पूरे इलाके को अपने अंदर समेट लिया था। इस एटम बम के परीक्षण से इतनी एनर्जी निकली थी जितनी पूरे दूसरे विश्व युद्ध मे इस्तेमाल हुए गोले-बारूद से निकली थी। इससे निकली तरंगों ने तीन बार पूरी धरती का चक्कर लगा डाला था।

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पास में ही अमेरिका का एक खुफिया विमान भी उड़ रहा था, जिसे इस एटमी टेस्ट की भनक लग गई थी। पूरी दुनिया ने सोवियत संघ के खुले पर्यावरण में एटमी टेस्ट करने की निंदा की। राहत की बात ये रही कि इससे बहुत ज्यादा रेडिएशन नहीं फैला।

इसकी वजह ये थी कि बम के तैयार होने के बाद वैज्ञानिकों को लगा कि इससे तो बहुत तबाही मच जाएगी। इसलिए इसमें विस्फोटक कम करके इसकी ताकत घटा दी गई थी। इस बम को तैयार करने में सोवियत वैज्ञानिक आंद्रेई सखारोव का बहुत बड़ा रोल था।

सखारोव चाहते थे कि हथियारों की रेस में उनका देश अमेरिका से बहुत आगे निकल जाए। इसलिए उन्होंने एटम बम और हाइड्रोजन बम की तकनीक मिलाकर के जार बम तैयार किया था।

बम तैयार होने के बाद वैज्ञानिकों के ये डर लगा कि कहीं एटमी टेस्ट इतना भयानक न हो कि उससे सोवियत संघ को ही नुकसान पहुंचे। इसीलिए इसमें विस्फोटक कम कर दिए गए थे। इस विस्फोट का असर ये हुआ था कि दुनिया के तमाम देश खुले में एटमी टेस्ट न करने को राजी हो गए। 1963 में ऐसे एटमी परीक्षणों पर रोक लगा दी गई।

सखारोव एटमी टेस्ट करने पर लगी आंशिक पाबंदी का खुलकर समर्थन किया

खुद सखारोव को लगा कि ऐसा बम तो दुनिया में भारी तबाही मचा सकता है। इसलिए वो बाद में एटमी हथियारों के खिलाफ अभियान के अगुवा बन गए। उन्होंने 1963 में एटमी टेस्ट करने पर लगी आंशिक पाबंदी का खुलकर समर्थन किया। इसके बाद रूस में ही बहुत से लोग उनके विरोधी हो गए।

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1975 में सखारोव को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला। साफ है कि दुनिया के सबसे बड़े एटम बम ने तबाही तो नहीं मचाई, मगर इंसानियत को इसके खतरों से बखूबी आगाह करा दिया। यानी 30 अक्तूबर 1961 को हुए भयंकर एटमी टेस्ट का कुछ तो असर हुआ ही।



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