Self Realization: स्वार्थ-त्याग से होती है भगवत्प्राप्ति

Self Realization: जैसे एक आदमी अच्छी भूमि में अन्न का त्याग करता है, उसर में नहीं, इस प्रकार त्याग करने से कितना अन्न पैदा होता है। जो पैदा हुआ, उसका फिर भूमि में त्याग कर दे, उसका फिर जितना हुआ, उसको फिर त्याग कर दे, इस प्रकार फिर बढ़ते-बढ़ते उसका ठिकाना ही नहीं रहता।

Update: 2023-04-13 19:40 GMT
Self Realization (Pic: Newstrack)

Self Realization: जिस आदमी को स्वार्थ-त्याग का लाभ मालूम हो जाता है वह तो स्वार्थ का त्याग करता ही रहता है। त्याग से बहुत लाभ है – यह मानकर त्याग करना भी सकाम भाव है। जैसे एक आदमी अच्छी भूमि में अन्न का त्याग करता है, उसर में नहीं, इस प्रकार त्याग करने से कितना अन्न पैदा होता है। जो पैदा हुआ, उसका फिर भूमि में त्याग कर दे, उसका फिर जितना हुआ, उसको फिर त्याग कर दे, इस प्रकार फिर बढ़ते-बढ़ते उसका ठिकाना ही नहीं रहता। इस प्रकार यज्ञ, दान, तप कोई मनुष्य करता है, उसका फल सब मनुष्यों के लिये त्याग देना चाहिये।

सबका हित हो, ऐसे परोपकार के द्वारा दूसरों की सेवा हुई, यह पुन्य हुआ, उस पुन्य का भी दूसरों की सेवा के लिये त्याग कर दे, उस त्याग का जो फल हुआ, उसको भी दूसरों के लिये त्याग दे तो उस त्याग का ठिकाना ही न रहे। भगवान् का भजन किया, उसका दूसरों के लिये त्याग कर दिया तो भगवान् बहुत प्रसन्न होते हैं। त्याग का तेज भर गया, उसको भी दूसरों के लिये त्याग दे, त्याग करता ही जाये। कभी स्वार्थ को मंजूर करे ही नहीं। इस प्रकार के त्याग से परमगति की भी प्राप्ति हो तो उसका सब के लिये त्याग कर दे।

त्याग से ही शान्ति मिलती है। निष्कामभाव बड़े महत्व की चीज है। उससे बढ़कर कोई चीज है ही नहीं, यह समझ में आ जाय तो निष्काम होने लग जाय। एक रूपये के प्रयोजन के लिये आया, एक दु:खित होकर आया, एक आत्मतत्व की जिज्ञासा के लिये आया, एक प्रेम के नाते आया, उसको कोई और इच्छा नहीं है, यहाँ तक कि वह मुक्ति भी नहीं चाहता, वह तो केवल प्रेम के लिये ही आया है। जो नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करता है, वह जितना प्रिय लगता है, उतना कोई नहीं लगता। इस प्रकार जो निष्काम प्रेम करता है, उससे भगवान् इतने प्रसन्न हो जाते हैं कि वह उन्हें बेचे तो वे बिक जायें। वह बेचता नहीं है।

किसी के साथ देख लो, स्वार्थ का त्याग होगा तो प्रेम बढेगा। मनुष्यों में ही प्रेम बढ़ता है तो भगवान् में बढे, इसमें शंका ही क्या है। भगवान् से प्रेम हो गया तो कोई बात की चिंता ही नहीं है। उस प्रेम का यहाँ भी आदर है और वहां भी आदर है। स्वार्थ के त्याग का भाव होते ही बड़ी प्रसन्नता होती है, फिर यदि वास्तव में स्वार्थ का त्याग है, उसकी तो बात ही क्या है। प्रेम के बढ़ने का यह सरल उपाय है कि जिसके साथ प्रेम करना हो, स्वार्थ का त्याग करके उसकी सेवा करो। जो इस प्रकार करता है, उसको भगवान् के हृदय में स्थान मिलता है। भगवान् सदा उसके हृदय में बैठते हैं। स्वार्थ के त्याग का यह प्रभाव है।

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