Bihar Ka Brahma Mandir: बिहार का इकलौता ब्रह्मा मंदिर, नहीं सुना होगा इसका इतिहास, यहां है ब्रह्मा का वास
Bihar Ka Brahma Mandir: पौराणिक, ऐतिहासिक महत्व के पर्यटक स्थलों के विकास व मार्केटिंग की कोई कार्ययोजना - राज्य सरकार के पास नहीं है। इस का स्पष्ट प्रमाण है, देश का ऐतिहासिक - पौराणिक, गया स्थित यह प्राचीन ब्रह्मा मंदिर।
Bihar Ka Brahma Mandir: पौराणिक, ऐतिहासिक महत्व के पर्यटक स्थलों के विकास व मार्केटिंग की कोई कार्ययोजना - राज्य सरकार के पास नहीं है। इस का स्पष्ट प्रमाण है, देश का ऐतिहासिक - पौराणिक, गया स्थित यह प्राचीन ब्रह्मा मंदिर। हास्यास्पद है कि इस मंदिर की महत्ता को पर्यटन विभाग के प्रचार – प्रसार में भी अबतक नहीं शामिल किया गया है। पर्यटन विभाग के किसी बुकलेट में इसका उल्लेख नहीं है। जिनकी महत्ता की जानकारी गिने – चुने लोगों तक ही सीमित हैं। इस प्राचीन देवस्थल के पर्याप्त सर्वेक्षण व प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है।
वर्तमान में पर्यटन – बिहार में सबसे बड़ा राजस्व प्राप्त करने वाला क्षेत्र हैं। राज्य सरकार कुछ चिन्हित पर्यटक स्थलों की ही मार्केटिंग करती रही है। राज्य में कई उपेक्षित राष्ट्रीय महत्व के स्थल हैं, जिनके विकास के लिए न कोई विजन है, न कोई कार्ययोजना। इसका स्पष्ट प्रमाण है– बिहार का यह एकमात्र ब्रह्मा (Bihar's Only Brahma Temple) मंदिर। सरकारी सोच के दिवालियापन का स्पष्ट उदाहरण है - यह मंदिर। दुखद है कि ऐसे सैकड़ों स्थलों से मीडिया जगत भी अनभिज्ञ है। अगर इसका प्रचार प्रसार हो तो यह राष्ट्रीय स्तर का विशिष्ट पर्यटक स्थल बन सकता है। इसको समझने के लिए इस प्राचीन मंदिर के अतीत व महत्ता को समझना होगा।
गया मुख्यालय से दक्षिण, एन.एच. 22 पर विष्णुपद मंदिर से 1 किलोमीटर की दूरी पर, मारनपुर स्थित , ब्रह्मयोनि पर्वत शृंखला में तीन शिखर (चोटियां) हैं, दायें शिखर पर हिन्दू धार्मिक स्थल (ब्रह्माजी का मंदिर) स्थापित है और मध्य शिखर बौद्ध सर्किट से जुड़ा पर्यटक स्थल है। गया का यह सबसे ऊंचा पर्वत शिखर है। 793 फीट ऊंचे इस पर्वत पर 424 सीढ़िया चढ़कर पहुँचा जा सकता है। यह स्थल 'पूर्व-वैदिक काल' का माना गया है।
राव भाऊ साहेब ने करवाया था मंदिर का पुर्ननिर्माण
ब्रह्मयोनि पर्वत स्थित ब्रह्मा मंदिर का पुर्ननिर्माण मराठा सरदार राव भाऊ साहेब ने 1834 ई. में करवाया था। यह प्राचीन मंदिर – ब्रह्मयोनि पर्वत के 'दायें शिखर' पर स्थित है। यह अपेक्षाकृत छोटा मंदिर है, जिसमें ब्रह्माजी की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा ब्रह्मा के 'सक्रिय नारी शक्ति का प्रतीक' माना गया है ( मूर्ति का आधा हिस्सा भूमि के उपर और आधा भाग भूमि के अंदर है)। देवी सरस्वती को आमतौर पर ब्रह्मा की पत्नी के रूप में वर्णित किया जाता है और वह उनकी रचनात्मक ऊर्जा (शक्ति) के साथ-साथ उनके पास मौजूद ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इसके अलावा थोड़ी दूरी पर, ब्रह्मयोनि पहाड़ के उपर दो संकीर्ण गुफाएं हैं- जो 'ब्रह्मयोनि गुफा' व 'मातृयोनि गुफा' के नाम से प्रसिद्ध हैं। धार्मिक विश्वास है कि इन गुफाओं के अंदर से पार निकल जाने पर 'जीवन के आवागमन से मुक्ति मिल जाती है। इस स्थल पर अष्टभुजा देवी का मंदिर भी स्थापित है। मंदिर परिसर में एक विशाल, प्राचीन वटवृक्ष है – जिसके बारे में विश्वास है कि यहां 'ब्रह्माजी ने तप' किया था।
ब्रह्मयोनि का नामकरण मूलतः संस्कृत के दो शब्दों से आया है – ब्रह्म + योनि। ब्रह्म अर्थात हिन्दू देवता, जो शिव के नये अवतार के रूप में जाने जाते हैं और योनि अर्थात अवतार। ब्रह्मा को स्वयंभू भी कहा जाता है – जो सृष्टि , ज्ञान व वेद के रचयिता हैं।
बौद्ध स्थलः ब्रह्मयोनि पहाड़ की मध्य चोटी - बौद्ध धर्मावलंबियों के लिये अत्यंत पवित्र स्थल है। यहां गौतम बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के पहले, ज्ञान की तलाश में, ब्रह्मयोनि पर्वत पर कुछ समय निवास किया था। शिखर पर अशोककालीन 'बौद्ध स्तूप' स्थापित है। ब्रह्मयोनि पर्वत का उल्लेख बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। माना जाता है कि सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध की स्मृति में यहां एक स्तूप का निर्माण कराया था। शिखर पर नवनिर्मित भव्य 'बौद्ध मूर्ति' व 'भगवान बुद्ध का चरण चिन्ह' भी दर्शनीय है।
मध्य शिखर पर बौद्ध मूर्ति व स्तूप
गौतम बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के बाद , सारनाथ में प्रथम धर्मोपदेश के बाद, वे पुनः उरूवेला (बोधगया) होते हुए 100 भिक्षुओं के साथ गयाशीर्ष पर्वत (ब्रह्मयोनि पर्वत ) पर आये थे और उन्होंने आदित्य-पर्याय-सूत्र का उपदेश दिया था।
ऐतिहासिक स्त्रोतों के अनुसार, गौतम बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के पहले, ज्ञान की खोज में , जब गयाशीर्ष पर्वत (ब्रह्मयोनि पर्वत) पर पहुंचे तो यहां पर उन्होंने श्रमण एवं ब्राह्मणों को कामनाओं के वंशीभूत होकर सकाम कर्म यथा यज्ञ करना , मंत्र - जाप करना, सूर्य की ओर अपलक देखना (त्राटक कर्म) , उपर हाथ उठाकर दिनभर खडे रहना, उपवास आदि अनेक प्रकार की कठिन तपस्याओं में लीन देखा था। यहां कुछ दिन ठहरने के बावजूद गौतम बुद्ध का मन नही लगा और उद्विग्न मन होकर वे वहां से चल दिये, और वहां से उरूवेला, सेनानी ग्राम (बकरौर, बोधगया) पहुंचे थे। प्राचीन ब्रह्मयोनि पर्वत को पुरातत्त्व निदेशालय, बिहार द्वारा 'सुरक्षित घोषित स्मारक' की सूची में शामिल किया गया है। यहां से संपूर्ण शहर को देखा जा सकता है।
देश में प्रमुख ब्रह्मा मंदिरः
भारत में बहुत कम मंदिर मुख्य रूप से भगवान ब्रह्मा और उनकी पूजा को समर्पित हैं। ब्रह्मयोनि पर्वत , गया स्थित ब्रह्मा मंदिर के अलावा पूरे देश में 11 प्रमुख स्थानों पर ब्रह्माजी का मंदिर स्थापित है।
ब्रह्मा के लिए सबसे प्रमुख हिंदू मंदिर में –
1. ब्रह्मा मंदिर, राजस्थान के पुष्कर में है।
अन्य मंदिरों में -
2. राजस्थान के बाड़मेर जिले के बालोतरा तालुका के असोत्रा गांव में एक मंदिर है (जिसे खेतेश्वर ब्रह्मधाम तीर्थ के नाम से जाना जाता है )।
3. तमिलनाडु में, ब्रह्मा मंदिर - मंदिर शहर 'कुंभकोणम' के कोडुमुडी में और
4. तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में ब्रह्मपुरेश्वर मंदिर के परिसर में स्थित हैं।
5. आंध्र प्रदेश के तिरुपति के पास, श्रीकालहस्ती के मंदिर शहर में, ब्रह्मा को समर्पित एक मंदिर है।
6. आंध्र प्रदेश के चेब्रोलू में भी एक चतुर्मुख ब्रह्मा मंदिर है।
7.बेंगलुरु, कर्नाटक में ब्रह्मा मंदिर में सात फीट ऊंची, एक चतुर्मुख प्रतिमा स्थापित है।
8. गोवा के तटीय राज्य में, , राज्य के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में , सत्तारी तालुका के कैरम्बोलिम के छोटे और दूरदराज के गांव में 5वीं सदी की एक ब्रह्मा मंदिर है।
9. महाराष्ट्र के सोलापुर जिले से 52 किमी दूर , मंगलवेधा और मुंबई के पास सोपारा में , ब्रह्मा का एक प्रसिद्ध प्रतीक मौजूद है।
10. गुजरात के खेड़ब्रह्मा में उन्हें समर्पित 12वीं सदी का एक मंदिर है और
11. कानपुर में एक ब्रह्म कुटी मंदिर भी है। खोखान, अन्नमपुथुर और होसुर में मंदिर मौजूद हैं।
इसके अलावा त्रिमूर्ति को समर्पित कई मंदिर परिसरों में भी ब्रह्मा की पूजा की जाती है।
ब्रह्मा की महत्ता
ब्रह्मा को अक्सर वैदिक देवता प्रजापति के रूप में जाना जाता है। वेदांतिक हिंदू धर्म में , ऐसे अन्य हिंदू देवताओं के साथ, ब्रह्मा को निराकार (निर्गुण) ब्रह्म (सगुण) के रूप में देखा जाता है, त्रिमूर्ति में ब्रह्मा को "निर्माता" के रूप में जाना जाता है, सर्वोच्च हिंदू देवताओं में त्रिमूर्ति - जिसमें विष्णु, संरक्षक और शिव, संहारक भी शामिल हैं। ब्रह्मा को आमतौर पर लाल या सुनहरे रंग के दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसके चार सिर और हाथ हैं। उनके चार सिर चार वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं और चार प्रमुख दिशाओं की ओर इशारा करते हैं। वह कमल पर बैठे हैं और उसका वाहन हंस या सारस है।
देवी सरस्वती को आमतौर पर ब्रह्मा की पत्नी के रूप में वर्णित किया जाता है और वह उनकी रचनात्मक ऊर्जा (शक्ति) के साथ-साथ उनके पास मौजूद ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती हैं। शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा ने अपने संतानों को अपने मस्तिष्क से बनाया और इस प्रकार, उन्हें 'मानसपुत्र' कहा गया। वैष्णव पुराण शास्त्रों में, ब्रह्मा विष्णु की नाभि से निकले कमल पर उत्पत्ति हुए , क्योंकि विष्णु (महाविष्णु) ने सृष्टि की रचना की थी। शैव ग्रंथों में वर्णन है कि शिव द्वारा ब्रह्मांडीय चक्र, प्रकट होने के बाद , शिव ने विष्णु को सृष्टि रचने के लिए कहा, शिव ने विष्णु को आदेश दिया था - ब्रह्मा के निर्माण के लिए।
ब्रह्मानंद पुराण जैसे प्रारंभिक ग्रंथों का वर्णन है कि एक शाश्वत महासागर के अलावा कुछ भी नहीं था जिससे 'हिरण्यगर्भ' नाम का एक सुनहरा अंडा निकला। अंडा टूट गया और ब्रह्मा, जिसने स्वयं को उसके भीतर बनाया था, अस्तित्व में आया (स्वयंभू नाम प्राप्त किया) फिर, उन्होंने ब्रह्मांड, पृथ्वी और अन्य चीजों का निर्माण किया। उन्होंने लोगों को अपनी रचना पर बसने और जीने के लिए भी बनाया।
जैसा कि महाभारत और पुराणों में वर्णित है, ब्रह्मा एक "द्वितीयक निर्माता" हैं और सबसे अधिक वर्णित हैं। इसके विपरीत, शिव-केंद्रित पुराणों में ब्रह्मा और विष्णु का वर्णन अर्धनारीश्वर द्वारा किया गया है, जो कि आधा शिव और आधा पार्वती है ; या वैकल्पिक रूप से , ब्रह्मा का जन्म रुद्र से हुआ था , या विष्णु, शिव और ब्रह्मा ने अलग-अलग युगों (कल्प) में चक्रीय रूप से एक-दूसरे का निर्माण किया था। देवी ने ब्रह्मा की रचना की और इन ग्रंथों में यह कहा गया है कि ब्रह्मा उनकी ओर से काम करने वाले क्रमशः दुनिया के एक माध्यमिक निर्माता हैं।
ब्रह्मा - ब्रह्मांड में सभी रूपों का निर्माण करते हैं, लेकिन आदिम ब्रह्मांड को स्वयं नहीं बनाते हैं। इस प्रकार अधिकांश पुराण ग्रंथों में , ब्रह्मा की रचनात्मक गतिविधि इस पर निर्भर करती है। ब्रह्मा हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक है , उन्हें स्वयंभू (शाब्दिक 'स्वयं जन्म') के रूप में भी जाना जाता है और वे सृजन, ज्ञान और वेदों से जुड़े हैं। ब्रह्मा - सृष्टि, ज्ञान और वेदों के देवता हैं। ब्रह्मांड के निर्माता , त्रिमूर्ति के सदस्य हैं।
इन्हें स्वयंभू, विरिंची, प्रजापति के नाम से भी जाना जाता है। इनका निवास - सत्यलोक या ब्रह्मलोक माना जाता है। इनके अस्त्र - ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मशीर्ष अस्त्र, ब्रह्माण्डस्त्र हैं। इनका प्रतीक - कमल का फूल, वेद, जपमाला और कमंडल है और इनका वाहन हंस है।
ब्रह्माजी के संतानः शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा ने अपने संतानों को अपने मस्तिष्क से बनाया और इस प्रकार, उन्हें मानसपुत्र कहा गया। ब्रह्माजी (मन से जन्मे) से उत्पन्न उनके कई संतान हुए , जो इसप्रकार हैं – - अग्नि, अंगिरस, अत्रि, भृगु, चित्रगुप्त, दक्ष, हिमवान, जाम्बवन, काम, क्रतु, कुमार, मारीचि, नारद, पुलहा, पुलस्त्य, रुद्र, शतरूपा, स्वायंभुव मनु और वशिष्ठ।
इस भूभाग का ऐतिहासिक महत्त्व
पटना से 112 कि॰मी॰ दक्षिण-पश्चिम में पर्यटन व तीर्थाटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक विरासत से संपन्न प्राचीन पौराणिक नगर गया - हिन्दुओं और बौद्धों का अति प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। सात पर्वतों वाले इस शहर का वैदिक नाम 'ब्रह्मगया' है। यह स्थल – 'पवित्र मोक्ष स्थल' और 'देवताओं का विश्राम स्थल' माना जाता है। गया शहर को विष्णुनगरी भी कहा जाता है. तंत्रशास्त्र के अनुसार गया - भैरवीचक्र पर स्थित नगर माना जाता है।
गया फल्गु नदी के किनारे बसा यह एक प्राचीन नगर है. रामशिला एवं ब्रह्मयोनि पहाड़ियों से घिरा यह शहर 'मंदिरों की शिल्पकला' के लिए भी दर्शनीय है। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार , सत्ययुग में गया तीर्थ को उत्तम जानकर ब्रह्माजी ने यहां सर्वप्रथम पिण्डदान किया था। उसी समय से पिण्डदान की प्रथा जारी है। उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए त्रेता युग में स्वयं भगवान श्रीराम , द्वापर युग में पितामह भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर , भगवान कृष्ण सहित कई महापुरुषों ने पिण्डदान किया।
'वायु-पुराण' के गया-माहात्म्य के अनुसार प्राचीन गया नगर 'गयासुर' नामक राक्षस के नाम पर बसा - जो भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। हिन्दुओं में अटूट आस्था है कि यहां पिण्डदान करने से आत्मा का स्वर्गारोहण होता है। इस विश्वास की एक पौराणिक कथा है कि असुरों में गयासुर नाम से प्रसिद्ध एक बलशाली और पराक्रमी राक्षस हुआ , जो केवल तपस्या में प्रीति रखता था। उसका तप सम्पूर्ण भूतों को पीड़ित करने वाला था। उसके तप से यमराज की चिंता बढ गयी और देवतागण संतृप्त हो गये। गयासुर ने दीर्घकाल तक कोलाहल पर्वत पर तपस्या की। उसके इस तप से भगवान नारायण ने उसके शरीर को समस्त तीर्थों से अधिक पवित्र होने का वर दे दिया।
परिणामस्वरूप मनुष्य , गयासुर का स्पर्शमात्र कर , ब्रह्मलोक का अधिकारी होने लगा। मृत्युलोक के प्राणियों से ब्रह्मलोक की भूमि भरने लगी और अन्य लोक खाली होने लगे, इससे भयभीत हो देवतागण ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी, भगवान शंकर के साथ देवताओं भगवान विष्णु की शरण में गये और वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण जानकारी देते हुए अपना वर वापस लेने का आग्रह किया। भगवान विष्णु ने देवताओं से यज्ञ के लिए गयासुर के पवित्र शरीर को दान में माँग लेने की सलाह दी।
तदनुसार देवताओं ने उसके शरीर को अचल बनाने का निर्णय लिया और इस कार्य के लिए गयासुर से उसकी देह को यज्ञस्थल बनाने की मांग की। गयासुर इस कार्य के लिए सहर्ष तैयार हो गया। इसके पश्चात् ब्रह्माजी ने उसके शरीर पर यज्ञ आरंभ किया। यज्ञ पूरा होने के पश्चात् गयासुर फिर उठने लगा। ब्रह्माजी ने यम को कहलाया, यम ने ब्रह्मा के आदेश पर धर्मशिला लाकर गयासुर के मस्तक पर रखा। इसके बावजूद भी उसका हिलना बंद नहीं हुआ।
तब देवतागण बेचैन हो गये। पुनः भगवान विष्णु के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बतायी। तब भगवान विष्णु गदाधर रूप ले प्रकट हो, गयासुर के तप से प्रभावित होकर, वर माँगने को कहा। तब गयासुर ने कहा कि जब तक पृथ्वी का अस्तित्व रहे, चाँद और तारे रहे , ब्रह्मा-विष्णु-महेश इस शिला पर विराजमान रहेगें। भगवान विष्णु ने एवमस्तु कहते हुए गयासुर के उपर रखे धर्मवती शिला को इतना कस के दबाया कि उनका चरण-चिन्ह स्थापित हो गया। 'भगवान् विष्णु के चरण का छाप' आज भी विष्णुपद मंदिर में विद्यमान है। तभी से गया एक पवित्र स्थान माना जाने लगा है।
प्राचीन काल से गया मगध साम्राज्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग रहा है. पूर्व में मगध का नाम कीकट था और इसे अनार्यों का निवास स्थान समझा जाता था। महाभारत के अनुसार , मगध के प्राचीन राजवंश का संस्थापक 'बृहप्रिय' था, जो उपरिचर का पुत्र और जरासंध का पिता था। मगध के नये राजवंश का सर्वप्रथम शासक बिंबिसार हुए , जिसने अंग को जीतकर दक्षिण बिहार का एकीकरण किया और उसने कोसल तथा वैशाली से वैवाहिक संबंध स्थापित किये थे. इसके शासनकाल में मगध एक समृद्ध राज्य बना। गयाधाम अद्भुत स्थान पर स्थित है. यहां से पूर्व दिशा में देवघर का वैद्यनाथधाम और पश्चिम दिशा में स्थित काशी का विश्वनाथधाम लगभग समान दूरी पर स्थित हैं।
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