नोटबंदीः दुनिया के तमाम देशों ने अपनाया कौन रहा सफल और कौन हुआ फ्लाप
Notebandi: आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि नोटबंद का इतिहास क्या रहा है ? दुनिया के कौन-कौन से देशों ने अपने यहां नोटबंदी करने का साहस दिखाया है ?
Notebandi: देश आठ नवंबर को एक बार फिर नोटबंदी की बरसी मनाने जा रहा है। 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साहस दिखाते हुए इसी दिन अचानक देश में पांच सौ और एक हजार के नोट तत्काल प्रभाव से बंद (notebandi date in india 2016) करने का एलान करके सबको स्तब्ध कर दिया था। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि नोटबंद का इतिहास (bharat mein notebandi ka itihaas) क्या रहा है ? दुनिया के कौन कौन से देशों ने अपने यहां नोटबंदी करने का साहस दिखाया है ? हालांकि भारत की अगर बात करें तो यहां 1978 में मोरारजी देसाई (Morarji Desai) ने भी प्रधानमंत्री रहते हुए पांच हजार और दस हजार के नोट बंद किये थे। ऐसा कहा जाता है कि नोटबंदी से कालेधन पर प्रहार होता है। देश की अर्थव्यवस्था नियमित हो जाती है। आइए जानते हैं इसका इतिहास
अमेरिका ने तकरीबन 133 साल पहले किया था यह अनूठा प्रयास
दुनिया में नोटबंदी करने के इतिहास में सबसे पहला नाम अमेरिका का है। जिसने सबसे पहले डेमानिटाइजेशन किया था। यह विमुद्रीकरण की शुरुआत का सबसे पहला उदाहरण था। जिसमें 1873 के सिक्का अधिनियम को लाकर सोने के मानक को कानूनी निविदा के रूप में अपनाने के लिए चांदी को अनिवार्य रूप से हटा दिया गया था। उस समय भी इसका जबर्दस्त असर हुआ था इससे अमेरिका में मुद्रा आपूर्ति में सिमट गई थी। नतीजतन, देश में 5 साल की आर्थिक मंदी आ गई थी। हालांकि बाद में चांदी का खनन करने वाले खनिकों और किसानों की विकट स्थिति और जनता के दबाव से मजबूर होकर सरकार ने 1878 में ब्लैंड-एलिसन अधिनियम को लागू किया था, जिसने चांदी को कानूनी लेन देन के रूप में फिर से मान्य कर दिया था।
96 साल बाद अमेरिका में निक्सन ने फिर दिखाया साहस
विमुद्रीकरण के लगभग सौ साल बाद या चार साल कम रहते 1969 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन वह साहसी व्यक्ति थे, जिन्होंने अर्थव्यस्था को संभालने के लिए एक बार फिर विमुद्रीकरण को अपनाया। उन्होंने काले धन के अस्तित्व पर अंकुश लगाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में 100 डालर से ऊपर की सभी मुद्राओं को शून्य घोषित कर दिया था। कहते हैं कि निक्सन का यह कदम बेहद सफल रहा। दावा यह भी किया जाता है कि यह अमेरिकी बैंकिंग प्रणाली के विकास के युग की शुरुआत थी। खास बात यह है कि अमेरिका में 100 डालर का नोट अब तक का सबसे व्यापक रूप से प्रचलित मूल्यवर्ग है।
मोदी से पहले मोरारजी देसाई ने 1978 में दिखाया था भारत में ये साहस
हालांकि आज की पीढ़ी यही मानती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का देश में पहली बार अभिनव प्रयास किया । लेकिन 2016 से पहले भी, भारत ने 1978 में अपनी मुद्रा का विमुद्रीकरण किय था, यह बात जानने की है। इसे अमली जामा तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पहनाया था। हालांकि लोग यह कहते हैं कि मोरारजी देसाई ने बड़े नोट बंद किये थे, जो आम आदमी पर इतना प्रभाव नहीं डालते थे। लेकिन मोरारजी देसाई का देश में अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने का पहला बड़ा और साहसिक कदम था। अर्थव्यवस्था से काले धन को बाहर करने के लिए तत्कालीन सरकार ने 10,000 रुपये, 5000, 1,000 रुपये और 500 रुपये के नोटों को बंद करने का फैसला किया था। हालांकि इस क्रांतिकरी फैसले का तत्कालीन आरबीआई गवर्नर आईजी पटेल ने विरोध किया था। लेकिन सरकार का यह मानना था कि इस कदम से भ्रष्ट पूर्ववर्ती सरकारी नेताओं, अफसरों और व्यापारियों के यहां जमा कालाधन बाहर आएगा। उस समय लोगों को किसी भी उच्च मूल्य के नोटों को बदलने के लिए एक सप्ताह का समय दिया गया था। चूंकि, उच्च मुद्रा मूल्यवर्ग ने कुल मुद्रा स्टॉक का एक बहुत छोटे प्रतिशत को निशान बनाया था, इसलिए इसका मुद्रा आपूर्ति या आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा।
1982 में घाना ने भी किया था ऐसा प्रयास
यहां एक बात पर ध्यान देना होगा कि नोटबंदी या डेमानिटाइजेशन के फैसले तात्कालिक परिस्थितियों के अधीन होते हैं। घाना भी जिस समय वित्तीय अराजकता के दौर से गुजर रहा था, उस समय कर चोरी को कम करने और मुद्रा के अतिरिक्त प्रसार को नियंत्रित करने के लिए, घाना ने अपनी 50 सेडी मुद्रा का विमुद्रीकरण किया था। लेकिन यह प्रयोग अत्यधिक असफल माना जाता है। क्योंकि इसके नतीजे के रूप में जनता ने विदेशी मुद्रा और भौतिक संपत्ति की ओर रुख करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, आम जनता ने बैंकिंग प्रणाली में विश्वास खो दिया। घाना में मुद्रा के लिए एक नया काला बाजार पैदा हुआ। जिसने घाना की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाला।
1984 में नाइजीरिया के बुहारी शासन को भी इस प्रयोग में मुंह की खानी पड़ी थी
नाईजीरियाई सेना के एक सेवानिवृत्त प्रमुख जनरल मुहम्मदु बुहारी जो वर्तमान में 2015 से नाईजीरिया के राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहे है और इससे पहले 31 दिसंबर, 1983 से 27 अगस्त, 1985 तक एक सैन्य तख्ता पलट के बाद देश के राष्ट्राध्यक्ष बने थे। उन्हें भी अपने पहले कार्यकाल में नोटबंदी के फैसले के चलते सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। दरअसल, मुहम्मदु बुहारी के नेतृत्व में सैन्य सरकार ने पुराने नोटों को अप्रचलित करने के प्रयास में नए रंगों के साथ नए नोट जारी करना शुरू कर दिया था। इस आंदोलन का उद्देश्य कर्ज में डूबी हुई अर्थव्यवस्था को ठीक करना था । लेकिन उनका यह प्रयोग बुरी तरह विफल रहा था।
1987 में नोटबंदी से म्यामार ने भी मुंह की खाई थी
म्यांमार की सैनिक सरकार ने देश में बढ़ती काली अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से प्रचलित मुद्रा के लगभग 80 प्रतिशत मूल्य को अमान्य करार दिया था। जिससे एकदम से त्राहि त्राहि मच गई थी । इसके परिणामस्वरूप छात्रों का एक जबर्दस्त प्रदर्शन हुआ था। यहां नोटबंदी बुरी तरह विफल रही।
1991 का विमुद्रीकरण जो बना सोवियत संघ के विघटन की वजह
मिखाइल गोर्बाचेव के नेतृत्व में, समानांतर अर्थव्यवस्था का मुकाबला करने के प्रयास के तहत 50 और 100 रूबल के नोटों को प्रचलन से एक झटके में हटा दिया गया। हटाए गए ये नोट सोवियत संघ में उस समय प्रचलन में रहे कुल धन का लगभग एक तिहाई थे। उस दौर में आर्थिक अव्यवस्था अपने सबसे जटिल दौर में थी । कजाकिस्तान और यूक्रेन जैसे कई सोवियत गणराज्य इस विमुद्रीकरण से खुलकर विरोध में आ गए थे। आर्थिक गतिविधियों में भी भारी गिरावट आई ।.लोगों का गोर्बाचेव सरकार पर से विश्वास उठना शुरू हो गया । जो अंततः अगस्त में गोर्बाचेव के तख्तापलट की वजह बना। इस नोटबंदी से जुड़ी घटनाओं की एक लंबी श्रृंखला अंततः यूएसएसआर के विघटन की एक बडी वजह बनी।
कांगो या जैरे का विमुद्रीकरण
मोबुतु सेसे सेको एक तानाशाह शासक थे इन्होंने ही कांगो का नाम बदलकर जैरे किया। सेको ने अपने कार्यकाल में लगातार मुद्रा सुधार कार्यक्रम शुरू किए। 1993 में अप्रचलित मुद्रा को सिस्टम से वापस ले लिया गया था। लेकिन बढ़ते आर्थिक व्यवधानों के परिणामस्वरूप 1997 में मोबुतु को सत्ता से हटाकर देश निकाला दे दिया गया। बाद में कैंसर से उनका निधन हुआ।
1996 मे ऑस्ट्रेलिया का सफल विमुद्रीकरण
आस्ट्रेलिया में भी आर्थिक सुधार और अर्थव्यवस्था में काले धन पर अंकुश लगाने के लिए, ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने सभी कागज-आधारित नोटों को 1996 वापस ले लिया था। इसने इन्हें एक ही मूल्यवर्ग के लंबे जीवन वाले नोटों में बदला गया था। आस्ट्रेलिया का यह कदम जीवन को बेहतर बनाने में सफल रहा। पॉलिमर-आधारित नोटों के निर्माण के लिए प्रारंभिक लागत के बावजूद, इसने ऑस्ट्रेलिया को व्यापार के अनुकूल देश बनाने में मदद की।
यूरोपीय संघ 2002 विमुद्रीकरण
1 जनवरी, 2002 को जब एक एकीकृत मुद्रा 'यूरो' की शुरूआत हुई तो यूरोपीय संघ के 12 देशों की मौजूदा मुद्राओं के विमुद्रीकरण की शुरुआत हुई। इस दौरान लगभग आठ अरब नोट और 38 अरब सिक्के 218,000 बैंकों, डाकघरों और 2.8 मिलियन बिक्री आउटलेट के माध्यम से वितरित किए गए। साथ ही नौ अरब राष्ट्रीय नोटों और 107 अरब राष्ट्रीय सिक्कों का एक बड़ा हिस्सा एकत्र किया गया। 1998 के मध्य से शुरू होने वाली पूर्व तैयारी और नागरिकों को अग्रिम रूप से सूचित करने के परिणामस्वरूप यह सफल मुद्रा विमुद्रीकरण में गिना गया।
उत्तर कोरिया का 2010 का विमुद्रीकरण
काला बाजारी को रोकने और अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए किम जोंग-द्वितीय सरकार ने मुद्रा परिवर्तन की शुरुआत की। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के रूप में इस कदम का उलटा असर हुआ और लोगों ने इस कदम का कड़ा विरोध किया। इसके बाद वित्त मंत्री की हत्या तक कर दी गई।
जिम्बाब्वे में 2015 हुआ विमुद्रीकरण
मुद्रा स्फीति से प्रभावित अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए, जिम्बाब्वे सरकार ने 2015 में जिम्बाब्वे डॉलर को अमेरिकी डॉलर से बदलने का फैसला किया। जल्दबाजी में किया गया यह कदम असफल साबित हुआ। क्योंकि अधिकांश धन धारकों ने अपनी संचित बचत के मूल्य में कमी देखी इससे लोगों में आक्रोश के साथ-साथ, अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । क्योंकि प्रतिस्पर्धा में कमी के कारण निर्यात को बड़ा झटका लगा। इससे देश के हालात और खराब हुए।
वेनेज़ुएला में 2016 का विमुद्रीकरण
बढ़ती मुद्रास्फीति दर पर अंकुश लगाने के लिए, जो 425% तक पहुंच गई थी, देश में अंतरराष्ट्रीय माफियाओं के पनपने के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए, निकोलस-मादुरो के नेतृत्व वाली सरकार ने अपने 100 बोलिवर नोटों के विमुद्रीकरण की घोषणा की (जो देश की नकदी का 77% थे ) मुद्रा की निकासी से पहले नागरिकों को 72 घंटे का समय दिया गया था। लेकिन इसका जबर्दस्त विरोध हुआ, सड़क जाम करने और एटीएम के खराब होने के बाद, सरकार को पुरानी मुद्रा के उपयोग की समय सीमा बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा। ये प्रयोग बहुत सफल नहीं कहा जाता है।