लेखक: डॉ. उपाध्याय रवींद्र
25-26 वर्ष पूर्व, मेरी पहली तैनाती जहाँ हई थी टेहरी गढ़वाल में,वहाँ पहली बार इंटरसेक्शन में कृषि विज्ञान की मान्यता मिली! 11रहवीं के पाठ्यक्रम में एक हिंदी का भी प्रश्नपत्र था! कई कवियों की रचनाएँ पढ़ानी थीं.. सुपरचित कवि तो थे ही, अपरचित कवियों को भी पढ़ाने का उत्तरदायित्व था! जो पुस्तक मिली थी उसमे छपाई की अनेक त्रुटियाँ थीं.. प्रधानाचार्य जी मान्यता के साथ साथ वे पुस्तकें भी लेते आये थे और सौपते हुए कहा था लीजिये एक और हिंदी की कक्षा आप को पढ़ानी पड़ेगी।
कबीर को पढ़ाते हुए एक दोहे पर अटक गया और बार बार वाचन करने पर भी उसका अर्थ नहीँ खुला। संयोग से उसी समय लोकसेवा आयोग से अपर सबार्डिनेट का परिणाम आया जिसके साक्षात्कार में उपस्थित होने की सूचना मिली(1992)! सीधे घर न जाकर गोरखपुर आया , यहाँ से आवश्यक कागजपत्र लेकर अपने गुरुदेव (स्व0) प्रो0 रामचन्द्र तिवारी जी के आवास पर पहुंचा और उन्हें सादर नमन करते हुए मैंने अपनी समस्या बताई।मेरे लिए यह अत्यंत चुनौतीपूर्ण था कि वापस कालेज जाकर उस दोहे को पढ़ाना ही पढ़ाना है इसलिए गुरुदेव के अतिरिक्त और कहाँ जाऊँ! उन्होंने दोहा सुनाने को कहा! जहाँ तक याद आ रहा है ~
आवत गरी एक है, उलटत होय अनेक।
कह कबीर तहैं उलटि ये, वही एक की एक।।
दोहा सुनते ही उनकी प्रतिक्रिया क्या थी~ यह तो न लिखूँगा और न ही बताऊँगा~ किन्तु उन्होंने सामान्य होकर जितने सहज ढंग से उसकी व्याख्या की उससे न केवल आत्मा तृप्त हो गयी.. मेरे सम्मान के समक्ष जो चट्टान खड़ी थी उसे भीउन्होंने सहजता से हटा दिया!! सारी समस्या ग़लत छपाई के कारण आ गयी थी और मैं कई दिनों तक इससे दुखी रहा की इन बच्चों को ग़लत क्यों पढ़ाऊँ ,, भले ही ये भोले हैं और मेरी व्याख्या से असहमत नहीँ होंगे। सही दोहा था- आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक। कह कबीर नहि उलटि ये , वही एक की एक।।
अर्थात- मुख से निकलते समय गाली एक ही होती है .. यदि उसका उत्तर गाली से ही दिया जाय तो उत्तर प्रत्युत्तर में वह अनेक हो जाती है,, कबीर कहते हैं कि यदि उसे उल्टा या उसका प्रत्युत्तर न दिया जाय तो वह एक ही रह जाती है और स्वयं देने वाले के पास ही रह जाती है। यह सारी दिक्कत गारी के बजाय गरी छपने के कारण उपस्थित हुयी थी जिसका समाधान मुझे गुरु चरणों में ही आकर मिला।
आज शिक्षक दिवस पर स्वयं को शिक्षक की भूमिका में होते हुए भी, अपने उन समर्पण शील गुरुजनों की निष्ठा के मुकाबले कमजोर पाता हूँ और असहाय होकर उन गुरुजनों का पुण्य स्मरण जो आज सशरीर हमारे बीच नहीँ हैं, करता हूँ।। सचमुच जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अपने गुरुजनों के कितने ऋणी हैं.. आज अपने सभी अशरीरी और सशरीरी गुरुजनों को सादर नमन करते हुए उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण और प्रणाम करता हूँ|
रामनाम के पटतरे, देबे कै कछु नाहिं। क्या ले गुरु सन्तोषिये , हौस रही मन माहिं।।