एक Teacher जिसने गरीब बच्चों को बना लिया अपने दर्द की दवा, बदल दी जिंदगी

रुमेटाइड अर्थराइटिस का दर्द असहनीय होता है। पीड़ित की निजी जिंदगी तबाही के कगार पर खड़ी होती है। लेकिन कोई एक ऐसा है जो इसे भूल अपनी जिंदगी को उन बच्चों की शिक्षा के नाम कर चुकी है, जिन्हें हम छोटू के नाम से जानते और पहचानते हैं।

Update: 2019-02-22 10:16 GMT

लखनऊ : रुमेटाइड अर्थराइटिस का दर्द असहनीय होता है। पीड़ित की निजी जिंदगी तबाही के कगार पर खड़ी होती है। लेकिन कोई एक ऐसा है जो इसे भूल अपनी जिंदगी को उन बच्चों की शिक्षा के नाम कर चुकी है, जिन्हें हम छोटू के नाम से जानते और पहचानते हैं। जी हां! सही समझा मै उन बच्चों की बात कर रहा हूं जो सड़क के किनारे टीन टप्पर वाले होटलों में काम करते हैं। इन्हीं बच्चों को दिव्या शुक्ला ने अपना लिया और दर्द को भुला दिया। दिव्या इन बच्चों को अपने पैर पर खड़ा करने के लिए शिक्षा को अपना अस्त्र बना चुकी हैं। आइए आपको रूबरू कराते हैं उनके सफ़र से...

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दिव्या कहती हैं, पापा आईपीएस थे। पूरे राज्य में ट्रांसफर होता रहता था। जब ट्रांसफर होता तो पूरा परिवार उनके साथ शिफ्ट होता। इस दौरान राज्य के बड़े जिलों से लेकर पिछड़े जिलों में रहना हुआ जहां मैंने देखा कि गरीब बच्चों को शिक्षा के लिए उनके मां-बाप स्कूल नहीं भेजते। हमेशा से उनके लिए कुछ करना चाहती थी लेकिन समय नहीं मिला तभी अचानक पापा डकैतों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो गए। मां ने आईटी कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। मैं एमए कर रही थी मां ने शादी कर दी।

दिव्या कहती हैं, पति देवीकांत शुक्ला और उनका परिवार बहुत ही मिलनसार है उन्होंने मुझे समझा और मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। सबकुछ सही चल रहा था तभी एक रोड़ एक्सीडेंट हुआ और रुमेटाइड अर्थराइटिस की चपेट में आ गई। जोड़ों का असहनीय दर्द कभी जाता ही नहीं था। ये वो समय था जब मुझे दूसरों के दर्द का एहसास हुआ। मैंने आसपास के गरीब बच्चों में अपने दर्द का ईलाज खोज लिया और उन्हें नि:शुल्क पढ़ाने का सिलसिला शुरू किया। कुछ बच्चे ऐसे थे जो दिन में मजदूरी करते थे और शाम को पढने आते थे।

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आरंभ में दिव्या को कुछ मुश्किलें झेलनी पड़ी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अब पति के रिटायर होने के बाद गोमतीनगर में रहती हैं और यात्रा चलती जा रही है।

दिव्या की एक स्टूडेंट को कुछ समय पहले ही स्कालरशिप मिली और वो पढ़ने विदेश गई थी।

 

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