Allah Jilai Bai: केसरिया बालम पधारो म्हारे देश गीत को पहली बार आवाज देने वाली राजस्थानी गायिका हैं अल्ला जिलाबाई...
Allah Jilai Bai: संगीत के प्रति रूहानियत को कुछ इस तरह शब्दों में बयां करती हैं अल्ला जिलाबाई की -“संगीत एक रास्ता है जिससे इंसान ऊपर वाले से मुलाकात कर सकता है। उसमें खोकर मोक्ष भी पा सकता है।”
Allah Jilai Bai: राजस्थान की गर्म थपेड़ों के बीच “केसरिया बालम पधारो म्हारे देश,,,,,,“ गीत वहां की हवाओं में तैरता हुआ सुनाई पड़ता है। वहीं बीकानेर में अल्ला जिलाबाई की मजार पर बने बरोठे में इस गीत के गुनगुनाने की आवाज आज भी ताजा है। जहां बाई के जर्दे और इत्र की तैरती खुशबू के बीच तखत पर दी गई थाप वहां के माहौल में गूंजती हुई महसूस की जा सकती है। संगीत जिसकी नसों में लहू बन कर दौड़ता था। हम जिक्र कर रहें हैं राजिस्थानी मांड शैली की गायिका अल्ला जिलाबाई का। मांड गायन की जिस शैली में राजस्थान से ज्यादातर खूबसूरत गीत निकल कर आते हैं अल्ला जिला बाई उसकी शीर्ष गायिका हैं। उनसे पहले भी कई गायक कलाकार रहे लेकिन अल्ला जिलाबाई जैसा कोई मांड का चेहरानहीं बन पाया। संगीत के प्रति रूहानियत को कुछ इस तरह शब्दों में बयां करती हैं अल्ला जिलाबाई की -“संगीत एक रास्ता है जिससे इंसान ऊपर वाले से मुलाकात कर सकता है। उसमें खोकर मोक्ष भी पा सकता है।”
मारवाड़ के जितने अलग इलाके, उतने ही अलग तरीके से मांड गाए जाते हैं। सब अपनी-अपनी सांगीतिज्ञ खूबियों को खुद में समेटे हैं। अल्ला जिला बाई की मांड गायकी में एक परिपक्व आत्मविश्वास झलकता है। उनके बाद जन्मीं बेग़म अख्तर और बाई जी दोनों में एक समानता ये भी है कि उनकी आवाज़ में एक अनोखा भाव है, जैसे किसी को पुकार रही हों। अल्ला जिलाबाई का गाया हर गीत राजस्थान के दृश्यों को जिंदा कर देता है, संस्कृति की खुशबू फैल जाती है।
अल्ला जिलाबाई की जीवन यात्रा
अल्लाह जिलाई बाई का जन्म सन् 1902 बीकानेर राजस्थान में और मृत्यु 1972 में हुई थी। अल्ला जिला बाई का बचपन पथरीले रास्तों से होकर गुजरा। बचपन में ही पिता नबी बख़्श नहीं रहे। मां हज्जन अलीमन और बुआ उनका सहारा बनी।गुणीजनखाना से शुरू हुई थी इस गायिका की जीवन यात्रा। ये वो तालीमखाना था जो महाराज गंगा सिंह जी ने संगीत प्रशिक्षण के लिए बीकानेर में उस दौर में शुरू करवाया था। ये बीकानेर के तेलीवाड़ा में स्थित था। यहां संगीत की तालीम दी जाती थी। जहां हुसैन बख़्श लंगड़ा नाम के उस्ताद थे। वे लंगड़ा कर चलते थे। जिन्हें संगीत की तालीम देने के लिए रखा गया था। अल्ला जिला बाई का घर भी उस गुणीजनखाना के पास तेलीवाड़ा में ही था। उनकी उम्र तब 10 से 12 साल रही होगी।
गुणीजनखाना से बाहर आने वाली आवाजों को सुनकर गली में खेलते-खेलते वे भी मारवाड़ी लोकगीत गुनगुनाती रहती थीं। जिसे उस्ताद हुसैन बख़्श ने सुन लिया और गुणीजनखाने अपने साथ ले गए और उन्हें गाना सिखाने लगे।जिसके बाद उन्होंने बीकानेर के अच्छन महाराज से संगीत की बारीकियां सीखीं। दरअसल, अच्छन महाराज उनके समकालीन उम्दा गायक में शुमार थे। जब बाई जी जोधपुर, उदयपुर और अन्य जगहों पर कॉन्सर्ट में जाया करती थीं जहां अच्छन महाराज से जरूर मुलाकात हो जाती थी। अच्छन महाराज क्लासिकल ही गाते थे, वहीं अल्ला जिलाबाई ग़जल, ठुमरी, ख़याल और मुख्य रूप से मांड गाती थीं। उनके समकालीन गायक अलाउद्दीन भी साथ में गाया करते थे। वे बीकानेर से ही थे।
पूरी रात चलता था गीतों का दौर
बीकानेर रियासत के हर हंसी-खुशी, त्योहार के मौकों पर अल्ला जिला बाई अनिवार्य रूप से परफॉर्म करती थीं। अपने प्रशिक्षण के दौरान अल्लाह जिला बाई को गायन के साथ ही साथ नृत्य में भी रूचि हो गई। लेकिन उनके उस्ताद ने कहा कि नहीं, आपको सिर्फ गाना ही है। नृत्य छुड़वाकर उन्हें सिर्फ गायकी में ही प्रशिक्षित किया गया। उनका गायिकी का हुनर यूं परवान चढ़ा कि करीब 12 की उम्र में वे बड़ी ही कुशलता के साथ गाने लगीं। महाराजा गंगा सिंह जी के कोर्ट में वे इसी उम्र से प्रस्तुति देने लगीं। विश्व युद्ध-एक के दौरान गंगा सिंह युद्ध के लिए जाने से पहले के दिनों में अल्ला जिला बाई से ही मांड सुनते थे। वे अपना बुलंद अंदाज में इतना खूबसूरत गाती थी कि दरबार में एक के बाद एक मांड गीतों का दौर लगातार चलता ही रहता था। रात गुजर जाती थी । लेकिन महफिल समापन की ओर नहीं बढ़ पाती थी।
रियासत खत्म होने के बाद किया आकाशवाणी का रुख
अल्ला जिला बाई को बीकानेर रॉयल कोर्ट से स्कॉलरशिप के तौर पर धनराशि मिलती थी। जिससे उनकी खर्च चलता था। महाराजा गंगा सिंह जी और उनके बेटे सार्दूल सिंह जी के शासन के बाद उनकी स्कॉलरशिप रोक दी गई। जिसके बाद एक आईएएस अधिकारी सचिव राजस्थान भीम सिंह ने अल्ला जिलाबाई को आकाशवाणी से परिचित करवाया। जिसके उपरांत वे ऑल इंडिया रेडियो की ए-लिस्ट आर्टिस्ट में शुमार हो गईं। ऑल इंडिया रेडियो के जरिए उनके गीतों को सुनने के बाद मद्रास, कलकत्ता, बॉम्बे में बसे मारवाड़ी समाज के लोग उन्हें अपने आयोजनों में सम्मान के साथ आमंत्रित करने लगे। बिहार, यूपी समेत देश के ज्यादातर प्रदेशों में उनके कार्यक्रम हुए। जीवन के अंतिम समय तक वे गाती रहीं। ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स अचरज करते थे कि इतनी बुजुर्ग उम्र में भी वे कैसे गा रही थीं।
इनकी बुलंद आवाज को माइक की नहीं थी जरूरत
ये 1987 की बात है जब लंदन में बीबीसी के कार्यक्रम में उन्हें आमंत्रित किया गया। क्वीन एलिजाबेथ हॉल में उनका प्रोग्राम था। जोधपुर के कोमल कोठारी चार-पांच लोगों को भारत से लेकर गए थे। उनमें से बाई जी एक थीं। उनकी आवाज इतनी बुलंद थी, फ्रीक्वेंसी ऐसी थी कि टेक्निकल स्टाफ ने कहा आपको माइक की जरूरत नहीं है। आप गाएंगी तो यूं ही आवाज गूंजेंगी। वो वर्ल्ड कॉन्ग्रेस ऑफ म्यूजिक था। उसमें जापान, चीन समेत पूरी दुनिया के ऐसे देश उपस्थित थे जहां के राजा-महाराजा भी वहां आय थे, जिनके दरबार के गायक वहां आमंत्रित थे। एलिजाबेथ हॉल में उनका गायन बेहद सफल रहा। वे गा रही थीं तो साथ में सभी भाषाओं में अनुवाद करके भी बताया गया। इनकी प्रस्तुति की समाप्ति के साथ हाल तालियों से गूंज उठा था। वहां सेंट्रल लंदन की जिस होटेल, ह्यूस्टन में वे ठहरी हुईं थीं, वहां कई पत्रकार पहुंचे थे। उनमें से कुछ ऐसे थे जो उनसे मिलकर रोने लगे। यात्रा में बाई जी के साथ उनके नाती डॉक्टर अजीज अहमद सुलेमानी भी वहां मौजूद थे। डॉ. सुलेमानी ने पूछा कि आप लोग क्यों रो रहे हैं तो वे बोले, उनकी आवाज में ऐसा दर्द, लोच जो कि हमारे दिल को छूता है। चाहे हम उसे पूरी तरह ना भी समझ पा रहे हों। इस शानदार सफल प्रस्तुति के बाद कमल कोठारी उन्हें अन्य देशों में भी ले जाना चाहते थे । लेकिन वे नहीं गईं। वे विदेश जाने की ज्यादा इच्छुक नहीं थी।
जब विश्वकोकिला लता जी ने फोन पर बाई से मांगी थी इजाजत*
पाकीज़ा फिल्म के म्यूजिक डायरेक्टर ग़ुलाम मोहम्मद जो की बीकानेर से ताल्लुक रखते थे। जब वे अल्ला जिला बाई से मिलने आते तो वे घर के ऊपर बने झरोखे से ही कहतीं, कुण .. तो वे कहते थे, मैं हूं गुलामियो (मैं हूं ग़ुलाम)। वे बाई की आवाज के बहुत बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि पाकीज़ा का गाना ठाड़े रहियो.. उनसे गवाएं। जो बाद में लता जी ने गाया था। लेकिन बाई जी ने मना कर दिया कि वे फिल्मों में नहीं गाएंगी उनका तब ऐसा समझना था कि फिल्मों में गाना अच्छी बात नहीं। हालांकि जब वे बॉम्बे जाती तो लता मंगेशकर और अन्य फिल्मी लोगों से उनकी मुलाकात होती थी।
गुलज़ार की 1991 में प्रदर्शित फिल्म ’ लेकिन’ में लता जी ने केसरिया बालम पधारो म्हारे देस को मांड शैली में गया था। जब इस गीत को गाने के लिए लता के सामने प्रस्ताव आया तो उन्होंने बॉम्बे से अल्लाह जिलाबाई को फोन किया कि मुझे केसरिया बालम ऑफर हुआ है और ये गाना तो आप ही गा सकती हैं, आप इजाजत दें तो मैं गाऊं। तो अल्लाह जिला बाई ने कहा, नहीं जी, आप जरूर गाएं। ये लता जी का एक गायिका का दूसरी गायिका के प्रति दिली-सम्मान था। जानी-मानी क्लासिकल सिंगर रीटा गांगुली जो अक्सर बीकानेर में बाई जी से मिलने आया करती थीं। उन्होंने इस गाने पर खूबसूरत बात बोली थी, कि केसरिया बालम तो सिर्फ अल्लाह जिलाबाई का ही है। इसे लता और शुभा मुद्गल ने भी अपनी आवाज दी है लेकिन जो कशिश, जो रूहानियत अल्लाह जिलाबाई की आवाज में है वो फिर कहीं और फिर सुनाई नहीं पड़ी। वो रंग और भाव मांड में कोई और गायक कभी हासिल नहीं कर पाया।
दिलकश आवाज की धनी अल्लाह जिलाबाई मर्दों की तरह देती थीं गालियां
अल्लाह जिलाह बाई अपने जमाने की एक बेहतरीन गायिका तो थीं हीं साथ ही उनका व्यक्तित्व भी बेहद शानदार था। किसी को इस बात का अनुमान भी न होगा जो इन्हें बेहद करीब से जानते हैं वहीं इस बात से भी ताल्लुक रखते हैं कि अल्लाह जिलाह बाई गालियां बहुत देती थीं। बिलकुल मर्दों की तरह। ज़र्दा और पान खाने की बहुत शौकीन थीं। इत्र और विदेशी परफ्यूम का उनके पास बड़ा कलेक्शन था। खुशबू लगाए बिना उनके दिन की शुरुआत ही नहीं होती थी। विदेशी ब्रांड का हैमलिन स्नो परफ्यूम उनका पसंदीदा परफ्यूम था, जिसका इस्तेमाल वो ज्यादातर करती थीं। सुगंधित इत्र को कान के पीछे मलती थीं।
ढोलक वादक दयाल जी के बिना नहीं होती थी उनकी रिकॉर्डिंग
अल्लाह जिलाह बाई जब बीकानेर आकाशवाणी केंद्र पर अपने गाने की रिकॉर्डिंग के लिए आती थीं तो ढोलक वादक दयाल जी का होना ज़रूरी होता था। दयाल जी भी बाई के बेहद चहेते कलाकारों में शुमार थे। यही वजह कि दोनों रिकॉर्डिंग के दौरान आपस में हसीं मजाक भी कर लेते थे। लेकिन अक्सर बाई के साथ मजाक करना दयाल जी पर बहुत भारी पड़ता था। बाई जी उनके मजाक का ऐसा जवाब देती थीं कि दयाल जी का चेहरा शर्म से लाल हो जाता था। कई बार तो उन्हें स्टूडियों से बाहर भागना पड़ जाता था। फिर वो कहतीं “अरे कठे गया दयाल जी, बुलाओ बियाने, नईं तो मैं रिकॉर्डिंग नईं करवाऊं” और शर्माते हुए दयाल जी स्टूडियो में आकर अपना ढोलक संभाल कर संगत देने बैठ जाते थे।
आकाशवाणी बीकानेर कार्यक्रम अधिकारी को मांगनी पड़ी थी माफी
अल्लाह जिला बाई से जुड़ा रोचक किस्सा काफी ज्यादा लोकप्रिय है जिसमें आकाशवाणी बीकानेर के कार्यक्रम अधिकारी को इनसे माफी मांगनी पड़ी थी। असल में ऐसा कई बार हुआ है जब उन्हें गुस्से में गालियां देते सुना गया था । लेकिन उदासी और हताशा कभी उनके व्यक्तिव का हिस्सा नहीं रही। एक बार बाई रिकॉर्डिंग के लिए आकाशवाणी आईं तो म्यूज़िक कम्पोज़र डी एस रेड्डी जो संगीतकार मदन मोहन के सहायक रह चुके थे, उनके स्वागत में बाहर निकल कर आए। इत्तेफाक से उसके एक दिन पहले ही उनके ठुमरी दादरा का कार्यक्रम केंद्र से प्रसारित हुआ था। वो जैसे ही ऑफिस में घुसीं, उनका सामना सामने नए-नए ज्वाइन किये एक कार्यक्रम अधिकारी से हुआ। जो हाथ जोड़कर बाई को अपने कमरे की तरफ चलने का इशारा कर रहे थे। बड़ी ही सरलता से बाई उनके कमरे की ओर चल दीं। उनके कमरे में भीतर जाते ही अभी वो कुर्सी पर बैठी भी नहीं थी कि उनके जोर जोर से कुछ कहने की आवाजें आने लगी। असल में उस नए कार्यक्रम अधिकारी से अनजाने में बहुत बड़ी गलती हो गई। हालांकि उनका मकसद बाई की तारीफ करने का था। उन्होंने कहा कि बाई जी “कल रात को आकाशवाणी पर प्रसारित हुआ आपका कार्यक्रम सुना था।
जिसमें आपने ठुमरा और दादरी बहुत अच्छे गाए।” उनके मुंह से ठुमरा-दादरी सुनते ही बाई का गुस्सा अपने चरम पर था। जिसके उपरांत अपने माथे पर हाथ मारकर जोर से चिल्लाईं ” कुण है ओ बेवकूफ़ ?”वो “आछा भाग फूट्या आकाशवाणी रा, इसा अधिकारी आय्ग्या तो डूब’र रैसी आकाशवाणी। इसका मतलब अच्छे भाग्य फूटे आकाशवाणी के, ऐसे अफसर आ गए हैं तो डूबकर रहेगा आकाशवाणी और उनके क्रोध की सीमा तब पार हो गई जब वो उस अधिकारी के कमरे से निकल कर तेज कदमों से चलते हुए स्टूडियो रिकॉर्डिंग के लिए आ गईं। लेकिन उस दिन कार्यक्रम अधिकारी के वो गलत शब्द उन्हें पूरा दिन बेचैन करते रहे। उस दिन वो बहुत विचलित रहीं। उनकी इस परेशानी को देखकर कार्यक्रम अधिकारी ने आकर उनसे हाथ जोड़ कर माफी भी मांगी थी। मगर तीन घंटे स्टूडियो में रहने के बावजूद उनका मन रिकॉर्डिंग में नहीं लगा और वो बिना रिकॉर्डिंग करवाए ही वापस घर लौट गईं। अंतिम तौर पर वो रिकॉर्डिंग दो तीन दिन बाद हुई तब वो थोड़ा सहज हुईं।
क्या है मांड शैली
मांड शैली को परिभाषा में समेट पाना आमतौर पर संभव नहीं । लेकिन सरल रूप में यूं समझ सकते हैं कि मांड बीकानेर, सिंध, हैदराबाद, जैसलमेर, जोधपुर का एक हिस्सा मांड प्रदेश कहलाता है। इसमें जो सामूहिक संस्कृति और विरासत वाले गीत गाए जाते हैं वे मांड कहलाते हैं। दूसरा, मांड एक क्लासिकल राग तो है ही लेकिन लोक शैली इसकी अलग है। इसमें भी जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर सब जगह की मांड का अंदाज और शैली अलग हैं लेकिन विरासत एक ही है। इस गायन में एक बात या कहानी कही जाती है। इसमें वीर, विरह कई रस आते हैं। बस हर गायक का अंदाज अलग होता है।
उनकी याद में सलाना मांड उत्सव का होता है आयोजन
बाई के इस दुनिया से विदा लेने के बाद से हर साल 3 नवंबर को बीकानेर में अखिल भारतीय मांड समारोह आयोजित किया जाता है। बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन के हेड रहे डॉ. सुलेमानी यहां अल्ला जिलाबाई मांड स्कूल ऑफ म्यूजिक के भी संस्थापक हैं। जहां संगीत की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए मुफ्त में मांड गायन का प्रशिक्षण दिलवाते हैं। डॉ. सुलेमानी कहते हैं, सालाना मांड उत्सव मनाने के साथ हमारी कोशिश होती है कि नानी मां और मांड गायकी की विरासत को आने वाली पीढ़ियों के बीच भी कायम रखा जा सके। आज देखते हैं कि टीवी पर भी “पधारो म्हारे देश“ राजस्थानी गीत को गायक गाते हैं साथ ही मांड शैली का नाम भी लिया जा रहा है। स्कूलों में और बीकानेर के ब्राह्मण परिवार की बच्चियां खासतौर से इस गीत को खूब गाती हैं और बहुत अच्छा गाती हैं। वे कहते हैं, हर जमाने में गायक बदलते रहते हैं। आज बहुत से काबिल सिंगर हैं जिन्हें सुनने का दिल करता है। हर जमाने में चीज बदलती रहती है। लेकिन अल्लाह जिलाई की आवाज नहीं लौट सकती।अल्लाह जिलाई बाई के दो नाती, तीन नातिन हैं अब उनके बच्चे और बहुएं भी हैं। डॉ. सुलेमानी बताते हैं कि उनके घर की नई पीढ़ी में कोई संगीत तो नहीं सीखता पर सब परदादी पर गर्व महसूस करते हैं। उनके सालाना मांड दिवस आयोजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।
मिले कई बड़े सम्मान
1962-63 में वे हज पर गईं। डॉ. सुलेमानी बताते हैं कि उन्होंने तब परिवार और सभी के लिए बड़ी दुआएं कीं। 3 नवंबर, 1992 को उनका देहांत हुआ। उनकी आदत थी कि वो अपने घर के झरोखे में बैठा करती थीं। देहांत के बाद उनके मकबरे पर भी एक झरोखा बनाया गया। शहनाई लैजेंड उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब जब भी बीकानेर आते उनसे जरूर मिलते थे। अल्लाह जिलाह बाई को1982 में, भारत सरकार ने उन्हें कला के क्षेत्र में पद्म श्री से सम्मानित किया, जो सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक है। उन्हें 1988 में लोक संगीत के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी दिया गया था, और 2012 में मरणोपरांत राजस्थान रत्न से सम्मानित किया गया था। हालांकि बहुत लोग मानते हैं कि वे भारत रत्न की हकदार थीं।अब गिनती की रिकॉर्डिंग मौजूद हैं बीकानेर के आकाशवाणी केंद्र में
उनके मुंह से मानो सही भविष्यवाणी ही हुई थी “अगर ऐसे अफसर आ गए हैं तो आकाशवाणी डूब कर रहेगा।” और सचमुच आकाशवाणी रसातल में चला गया। आज आकाशवाणी बीकानेर में आकाशवाणी बीकानेर की ही उस अज़ीम कलाकार की गिनती की रिकॉर्डिंग मौजूद है।बहुत सारे टेप्स इरेज कर दिए गए हैं। जिन्हे नज़र मोहम्मद जी, दयाल जी, महेंद्र भट्ट जी, मुंशी खान जी, रेड्डी जी जैसे सरीखे कलाकारों की पूरी टीम ने इन रिकॉर्डिंग्स के लिए अपना खून पसीना एक कर दिया था।
मांड शैली के भविष्य को लेकर कड़ी हैं चुनौतियां
मांड गायन, राजस्थान की एक लोकप्रिय गायन शैली है और यह एक श्रृंगार प्रधान शैली है जिसे ठुमरी और गजल के समान ही दर्जा दिया जाता है। राजस्थान की इस गायन के सामने वर्तमान समय में दो विरोधाभासी चुनौतियां आकर खड़ी हो चुकीं हैं। पहली चुनौती ये है कि इस कला को अपनाकर चल रहे लोगों के लिए घर चलाना मुश्किल हो चुका है। तब दौर और था जब राजा महाराजा संगीतकारों को उच्च कोटि का दर्जा प्रदान करने के साथ उनकी हर जरूरत का पूरा ख्याल रखा करते थे पर अब दौर दूसरा है। वहीं मांड गायन के सामने दूसरी बड़ी चुनौती बन चुकी है कमर्शिलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन। इस दौर में रियलिटी शोज, कोक स्टूडियो, मूवीज जैसे नए-नए परफॉर्मिंग प्लेटफॉर्स कई फोक सिंगर्स को नाम और प्रतिष्ठा कमाने का मौका तो जरूर दे रहें हैं । लेकिन उनके लिए सृजित रोजगार की कमी है । साथ ही अब बन रहे गीतों में भी पहले जैसी गहराई और जादू नहीं दिखाई पड़ रहा है।
कई ऐसे ग्रुप हैं जो राजस्थानी लोक संगीत में गिटार, सैक्सोफोन जैसे वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट्स का प्रयोग डाल रहे हैं। इस तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में और इस व्यवसाईकरण के दौर में मांड या ऐसे लोक संगीत की रूह खो जाने का डर भी बना हुआ है। बाई के नाती डॉ. सुलेमानी का कहना है कि आज के लोक गायकों और संगीतज्ञों का दायित्व है कि चाहे जिस मंच पर भी मौजूद हों कोशिश ये रहे कि इस संगीत की मिठास और उसकी मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू बरकरार रहे और इसका रिप्रेजेंटेशन भी सही तरीके से हो। मांड कोकिला अल्लाह जिलाई बाई जैसे महान कलाकारों की जो संगीत विरासत मिली है, उसे न ही केवल संभाल कर रखना है, बल्कि उसकी वास्तविकता को बरकरार रखते हुए आगे भी बढ़ाना है। जिस मारवाड़ी गीत ‘केसरिया बालम आवो नी पधारो म्हारे देस..’को आज रिएलिटी शोज़, कल्चरल प्रोग्रामों, इंटरनेशनल जैमिंग में बार-बार सुना जाता है, उसे पहली बार बाई जी ने ही महाराजा गंगा सिंह जी के दरबार में गाया था।बाद में यही गीत टूरिस्ट और म्यूजिक मैप पर राजस्थान के साथ ही साथ भारत की भी पहचान बन चुका है।
( लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)