Naushad Ali Wikipedia Hindi: लखनऊ के इस संगीतकार ने मशहूर गायक रफी को दिया था गीत गाने का पहला मौका

Famous Music Director Naushad Ali Profile: सुरैया, Suraiya निर्मला देवी Nirmala Devi और रफी Rafi जैसे कई बड़े गायकों के सितारे बुलंद करने में लखनऊ के इस संगीतकार का था हाथ..

Written By :  Jyotsna Singh
Update:2024-11-12 11:51 IST

Famous Music Director Naushad Ali Wikipedia Hindi

Music Director Naushad Ali Wikipedia Hindi: जौहरी को ही हीरे की परख होती है, वो चाहे तो पत्थर को भी तराशकर हीरा बनाने का हुनर रखता है। ऐसा ही कुछ जादू लखनऊ के कोहिनूर माने जाने वाले इस संगीतकार के हाथों में भी ख़ुदा ने बख्शा था। यहां हम बात कर रहें हैं फिल्मी दुनियां को अपने जादुई संगीत से सजाने वाले नौशाद अली की।

नौशाद अली हिन्दी फिल्मों के ऐसे प्रसिद्ध संगीतकार हैं जो अपनी पहली फिल्म से हिट गीत देने के 64 साल बाद तक संगीत प्रेमियों के ऊपर अपना जादू चलाते रहे। नौशाद ने अपनी सांगीतिक यात्रा में 67 फिल्मों में ही संगीत दिया है। जिस दौरान कई नामचीन गायकों के भाग्य के सितारे को रौशन किया। जिसमें नौशाद को सुरैया, अमीरबाई कर्नाटकी, निर्मलादेवी, उमा देवी आदि को प्रोत्साहित कर आगे लाने का श्रेय जाता है। सुरैया को पहली बार उन्होंने ’नई दुनिया’ में गाने का मौका दिया। इसके बाद ’शारदा’ व ’संजोग’ में भी गाने गवाए। सुरैया के अलावा निर्मलादेवी से सबसे पहले ’शारदा’ में तथा उमा देवी यानी टुनटुन की आवाज का इस्तेमाल ’दर्द’ में ’अफ़साना लिख रही हूँ’ के लिए नौशाद ने किया। नौशाद ने ही मुकेश की दर्दभरी आवाज का इस्तेमाल ’अनोखी अदा’ और ’अंदाज’ में किया। ’अंदाज’ में नौशाद ने दिलीप कुमार के लिए मुकेश और राज कपूर के लिए मो. रफी की आवाज का उपयोग किया। 1944 में युवा प्रेम पर आधारित ’रतन’ के गाने उस समय के दौर में सुपरहिट हुए थे।


मुहम्मद रफी को दिया था फिल्मों में पहला ब्रेक

फिल्मी दुनिया में अपनी आवाज का जादू चलाने वाले गायक मुहम्मद रफी को फिल्मी दुनिया में लाने के पीछे भी मुजफ्फर अली का ही हाथ था। पहले फिल्म ’पहले आप’ के निर्देशक कारदार मियाँ के पास एक बार सिफारिश लेकर एक मासूम सा लड़का काम मांगने के लिए पहुँचा। तब कारदार मियाँ ने नौशाद से कहा कि नौशाद भाई, इस लड़के के लिए फिल्म में कोई गुंजाइश निकल सकती है क्या। नौशाद ने सहज भाव से कहा, ’फिलहाल तो कोई गुंजाइश नहीं है।


अलबत्ता इतना ज़रूर है कि इनको एक कोरस में गाने का मौका दिया जा सकता है।’ फिल्म में गाना गाने का मौका पाने को बेताब उस लड़के ने कोरस में भी गाने के लिए हामी भर दी। गीत के बोल थे : ’हिन्दू हैं हम हिन्दुस्तां हमारा, हिन्दू-मुस्लिम की आँखों का तारा’। इसमें सभी गायकों को लोहे के जूते पहनाए गए, क्योंकि गाते समय पैर पटक-पटककर गाना था ताकि जूतों की आवाज का इफेक्ट आ सके। उस लड़के के जूते टाइट थे। गाने की रिकॉर्डिंग खत्म होने पर लड़के ने जूते उतारे तो उसके पैर बुरी तरह से घायल हो चुके थे, साथ ही छाले पड़ गए थे। यह देख नौशाद का दिल भर आया और उन्होंने उस लड़के के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ’जब जूते टाइट थे तो तुम्हें बता देना था।’ इस पर उस लड़के ने कहा, ’आपने मुझे गाने का मौका दिया, यही मेरे लिए बड़ी बात है।’ तब नौशाद ने कहा था, ’एक दिन तुम महान् गायक बनोगे।’ यह लड़का कोई और नहीं मुहम्मद रफ़ी था जिन्होंने फिल्मी संगीत की दुनियां में अपनी आवाज से अमिट छाप छोड़ी।

नौशाद अली का आरंभिक जीवन

नौशाद अली हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध संगीतकार थे। नौशाद का जन्म 25 दिसम्बर, 1919 को लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। वह 16 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई का रुख कर चुके थे। शुरुआती संघर्षपूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत में बहुत कुछ सीखने को मिला।


उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में ’प्रेम नगर’ में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 में प्रदर्शित हुई ’रतन’ से जिसमें जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यहीं से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।

इस तरह शुरू हुआ फ़िल्मी सफर

नौशाद का घर लखनऊ के अकबरी गेट के कांधारी बाज़ार, झंवाई टोला में था। वे लाटूस रोड पर अपने उस्ताद उमर अंसारी से संगीत सीखने लगे, इस बात से उनके वालिद नाराज़ रहते थे। अंत में बात यहां तक हो गई कि वालिद ने कह दिया कि अगर संगीत को अपनाओगे तो घर छोड़ दो। नौशाद ने मन में यह बात ठान ली कि घर छोड़ना सही होगा, लेकिन संगीत नहीं..। 


वे संगीत को अपनाए रहे। उनका अब मूल काम गाना-बाजाना हो गया। हालांकि उन पर कुछ कुछ समय बाद कई बार पाबंदियां लगीं, घर के दरवाज़े बंद किए गए, लेकिन नौशाद ने दादी का सहारा लिया और संगीत का शौक़ जारी रखा। उनके पांव और ख़्वाब उनके पिता कभी नहीं रोक सके। इसी बीच उन्होंने मैट्रिक पास किया। लखनऊ के ’विंडसर एंटरटेनर म्यूज़िकल ग्रुप’ के साथ दिल्ली, मुरादाबाद, जयपुर, जोधपुर और सिरोही की यात्रा पर निकले। जब कुछ समय बाद वह म्यूज़िकल ग्रुप बिखर गया तो नौशाद ने लखनऊ लौटने के बजाए मुंबई का रुख़ किया और 16 वर्ष की किशोर उम्र में यानी 1935 में वे मुंबई आ गए।

दादर के ब्रॉडवे सिनेमाघर के सामने का फुटपाथ बना आसरा

नौशाद के लिए मुंबई उम्मीदों का शहर था। यहां उन्हें पहले ठिकाने के रूप में दादर के ब्रॉडवे सिनेमाघर के सामने का फुटपाथ मिला। तब नौशाद ने सपना देखा था कि कभी इस सिनेमाघर में उनकी कोई फ़िल्म लगेगी। उस किशोर कल्पना को साकार होने में काफ़ी वक़्त लगा। ’बैजू बावरा’ जब उसी हॉल में रिलीज़ हुई, तो वहां रिलीज़ के समय नौशाद ने कहा, इस सड़क को पार करने में मुझे सत्रह साल लग गए..। शुरू में नौशाद ने एन. ए. दास यानी नौशाद अली दास के नाम से कुछ संगीतकारों के साथ काम किया। जिसके बाद नौशाद को थोड़ा बहुत काम मिलने लगा था।

छोटे पर्दे के लिए भी दिया संगीत

नौशाद ने न सिर्फ बड़े सिल्वर स्क्रीन पर बल्कि छोटे पर्दे के लिए ’द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान’ और ’अकबर द ग्रेट’ जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया।

फ्लॉप गई थी नौशाद की आखिरी फिल्म

नौशाद को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की फिल्म ताजमहल थी। जो रिलीज होते ही ठंडे बस्ते में चली गई। वहीं मुगले आजम को रंगीन पर्दे पर फिल्माए जाने की उतनी ही खुशी भी थी।

हिन्दी सिनेपर्दे पर सुपर हिट हुईं इन फिल्मों को दिया बेहतरीन संगीत


हिन्दी सिनेपर्दे पर सुमधुर गीतों के बल पर सुपर डुपर हिट हुईं फिल्मों में अंदाज, आन, मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, बैजू बावरा, अमर, स्टेशन मास्टर, शारदा, कोहिनूर, उड़न खटोला, दीवाना, दिल्लगी, दर्द, दास्तान, शबाब, बाबुल, मुग़ल-ए-आज़म, दुलारी, शाहजहां, लीडर, संघर्ष, मेरे महबूब, साज और आवाज, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, गंगा जमुना, आदमी, गंवार, साथी, तांगेवाला, पालकी, आईना, धर्म कांटा, पाक़ीज़ा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गाड सहित कई फिल्मों में नौशाद ने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया।

मुम्बई में बनाया एक छोटा सा लखनऊ

लखनऊव्वा मिट्टी की खुश्बू में रचे बसे नौशाद ने अपनी कर्म स्थली मुम्बई में भी एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था। जिसमें उनके बेहद अजीब दोस्त मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुलतान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली ’कुमार’ इस संगत में शामिल थे। नौशाद ने मारफ्तुन नगमात जैसी संगीत की अप्रतिम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां और नवाब संझू साहब से प्रभावित होकर मुम्बई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना गहरा नाता जोड़े रखा।

नौशाद में छिपा था एक शायर

नौशाद धुनों के बादशाह होने के साथ ही एक उम्दा शायर भी थे। उनका लिखा दीवान यानी कविताओं का संग्रह ’आठवां सुर’ नाम से प्रकाशित हुआ। नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इससे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-

रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है

ये कूचा मेरा जाना पहचाना है

क्या जाने क्यूं उड़ गए पंक्षी पेड़ों

भरी बहारों में गुलशन वीराना है

इस फिल्म से शुरू हुआ गीतों का सफर

गीतकार दीनानाथ मधोक (डीएन) ने नौशाद को अपना नाम जमाने में बड़ी मदद की। संघर्ष ने दौरान नौशाद की मुलाकात हुई तो उन्होंने उनका परिचय फ़िल्म इंडस्ट्री के अन्य लोगों से करवाया, जिससे नौशाद को छोटा-मोटा काम मिलना प्रारंभ हुआ। 1940 में बनी ’प्रेम नगर’ में नौशाद को पहली बार स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन का मौका मिला। इसके बाद एक और फिल्म ’स्टेशन मास्टर’ भी सफल रही। जिसके बाद नौशाद हैट्रिक लगते चले गए। नौशाद को पहली बार ’सुनहरी मकड़ी’ फ़िल्म में हारमोनियम बजाने का अवसर मिला। यह फ़िल्म पूरी नहीं हो सकी । लेकिन शायद यहीं से नौशाद का सुनहरा सफ़र शुरू हुआ।

नौशाद के संगीतबद्ध मशहूर गीतों से हिट हुईं ये फिल्में


हिन्दी सिनेपर्दे तक प्रशंसकों को खींच कर लाने का हुनर नौशाद के संगीत में बखूबी था। उनके जादुई संगीत का ही कमाल था कि ’मुग़ल-ए-आजम’, ’बैजू बावरा’, ’अनमोल घड़ी’, ’शारदा’, ’आन’, ’संजोग’ जैसी को हमेशा के लिए अमर बनाया। ’दीदार’ के गीत- ’बचपन के दिन भुला न देना’, ’हुए हम जिनके लिए बरबाद’, ’ले जा मेरी दुआएँ ले जा परदेश जाने वाले’ आदि की बदौलत इस फ़िल्म ने लंबे समय तक चलने का रिकॉर्ड क़ायम किया। इसके बाद तो नौशाद की लोकप्रियता में ख़ासा इजाफा हुआ। ’बैजू बावरा’ की सफलता से नौशाद को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फ़िल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में फालके अवॉर्ड, 1984 में ’लता अलंकरण’ तथा 1992 में पद्म भूषण से उन्हें नवाज़ा गया।

नौशाद के प्रसिद्ध गीत

Full View

1.’मन तरपत हरि दर्शन..’ (बैजू बावरा)

2.’ओ दुनिया के रखवाले..’ (बैजू बावरा)

3.’झूले में पवन के’ (बैजू बावरा)

4 ’मोहे पनघट पे नंद लाल’ (मुग़ल-ए-आज़म)

5. ’प्यार किया तो डरना क्या..’ (मुग़ल-ए-आज़म)

6.’खुदा निगेबान..’ (मुग़ल-ए-आज़म)

7.’मधुबन में राधिका नाचे रे..’ (कोहिनूर)

8.’ढल चुकी शाम-ए-गम...’ (कोहिनूर)

9.नन्हा मुन्ना राही हूँ (सन ऑफ़ इंडिया)

10.अपनी आज़ादी को हम (लीडर)

11.इंसाफ़ की डगर पर (गंगा जमुना) जैसे कई शानदार गीतों की लिस्ट बेहद लंबी है।

नौशाद के कहने पर जब बिना शराब पिए सहगल ने गाया गाना

’शाहजहाँ’ के गीत ’जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे...’ तथा ’गम दिए मुस्तकिल, कितना नाजुक है दिल...ये वो सुपर डुपर हिट गीत हैं जिन्हें नौशाद ने सहगल से अपनी एक शर्त पर गवाया था। असल में उस समय ऐसा माना जाता था कि सहगल बगैर शराब पिए गाने नहीं गा सकते। नौशाद ने सहगल से बगैर शराब पिए एक गाना गाने के लिए कहा तो सहगल ने कहा, ’बगैर पिए मैं सही नहीं गा पाऊँगा।’ इसके बाद नौशाद ने सहगल का एक गाना शराब पिए रिकॉर्ड करवाया और वहीं इसी गाने को दोबारा बगैर सहगल से बिना शराब पिए गवाया। जब सहगल ने अपने गाए दोनों गाने सुने तो उन्हें बिना शराब पिए हुए गीत ने ज्यादा प्रभावित किया। तब वे नौशाद से बोले, ’काश! मुझसे तुम मुझे पहले ही मिल गए होते!’

नौशाद को मिले ढेरों सम्मान और पुरस्कार

सन 1954 में ’बैजू बावरा’ फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार

संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में फालके अवॉर्ड

1984 में लता मंगेशकर सम्मान

1984 में अमीर खुसरो पुरस्कार

1992 में पद्म भूषण

1992 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार

महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार

इस फिल्म के लिए दिया था नौशाद ने आखिरी गीत

नौशाद ने फिल्मी दुनिया में सन् 1940 से 2006 तक खूबसूरत धुनों से बंधे गीतों को पेशकर लोगों को अपना दीवाना बनाया। उनकी इस सांगीतिक यात्रा का आखिरी नगमा 2006 में बनी ’ताजमहल’ के लिए संगीत दिया। नौशाद ने 5 मई, 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।अपने अंतिम दिनों तक वे कहते थे, ’मुझे आज भी ऐसा लगता है कि अभी तक न मेरी संगीत की तालीम पूरी हुई है और न ही मैं अभी तक कोई अच्छा संगीत दे सका।’

( लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)

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