International Valentine Day 2022 : प्रेम दिवस का असली मतलब आपको नहीं मालूम? आइए समझते हैं इसके मूल अर्थ को

स्वामी विवेकानंद ने प्रेम के भाव को बेहद सरल और सहज तरीके से कम शब्दों में व्यक्त किया है।

Written By :  Priya Singh
Update:2022-02-14 10:57 IST

फोटो साभार : इंस्टाग्राम

International Valentine Day 2022 : स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekanand) जी ने प्रेम भाव पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि 'प्रेम विस्तार है स्वार्थ संकुचन'। इस विचार को स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो में ' विश्व धर्म सम्मेलन ' में व्यक्त किया था। स्वामी विवेकानन्द जी ने स्वंय अपने वास्तविक जीवन में इस विचार को सिद्ध किया। मार्गरेट एलिज़ाबेथ नोबल एक अंग्रेज़ी - आयरिश महिला थीं। जिन्हें एक संगठन द्वारा एक ' हिन्दू योगी ' को सुनने के लिए बुलाया गया था। मार्गरेट उस ' हिन्दू योगी ' के विचार और व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुईं थी। वो ' हिन्दू योगी ' स्वामी विवेकानन्द थे।



जब मार्गरेट ने विवेकानंद जी से अपने आकर्षण की बात की तो उन्होंने कहा, " प्रत्येक मनुष्य में प्रेम समाहित है। मैं भी आपसे प्रेम करता हूं, परंतु एक भाई के समान। प्रेम का एक निश्चित स्वरूप नहीं है। प्रेम साधना है।" जिसके बाद मार्गरेट स्वामी विवेकानंद जी के विचार से इतनी प्रभावित हुईं कि वो सदैव के लिए भारत वापस आ गईं। इसके बाद से उन्होंने एक साध्वी, समाज सुधारक एवं शिक्षिका कि भूमिका निभाई। कबीर का कहना है, " प्रेम पियाला जो पिये, शीश दक्षिणा देय!लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय!! जब मैं हूं तब गुरु नहीं,जब गुरु हम नाय! प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय!! "

प्रेम हमेशा सद्गुणों को जोड़ता है

अर्थात प्रेम वहीं कर सकता है जिसके अंदर प्रेम की भावना हो न कि वो जो सिर्फ़ ग्रहण करना जानता हो। प्रेम मैं से हम तक का सफ़र है,जिसमें स्वार्थ का कोई उचित स्थान नहीं है। जिस प्रकार ईश्वर ने प्राकृतिक रूप से प्रकृति का निर्माण किया है उसी प्रकार से प्रेम का भी। दोनों में ही अगर हम लोभी होकर, स्वार्थी बनकर प्रयोग करेंगे तो उसका दुष्प्रभाव हमें ही भोगना पड़ेगा। प्रेम एक बहती नदी के समान है जो निश्चल हो अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रहती है और मार्ग में आने वाले हर जीव की प्यास बुझाती है। इसमें कभी कोई मलीनता नहीं आती, मार्ग में मिलने वाली न जाने कितनी औषधीय गुणों को अपने साथ मिलाती है। ऐसे ही प्रेम भी हमेशा सद्गुणों को जोड़ता जाता है।

प्रेम में स्वार्थ का वास

वहीं स्वार्थ उस तालाब की भांति है जिसका पानी एक जगह स्थिर रहता है। शुरुआत में तो उसका पानी स्वच्छ होता है पर जैसे - जैसे समय बितता है उसमें गंदगी जमा होने लगती है, जीव - जंतु उससे दूर जाने लगते है। ठीक ऐसे ही स्वार्थी व्यक्ति के अंदर मलीनता का निवास होने लगता है और सारे जन उससे दूर जाने लगते है। अगर पेड़ पौधों की बात की जाए तो जब हम पौधे लगाते हैं तो वो हमें फल, शुद्ध वायु, ठंड से बचने के लिए लकड़ी, छाया आदि प्रदान करते हैं। वहीं जब हम स्वार्थ में आकर व अतिलोभी होकर वृक्षारोपण करते हैं तो प्रकृति का विनाश करते हैं।



वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रेम का मूल अर्थ

अर्थात प्रेम में उन्नति है और स्वार्थ में विनाश है। कबीर (Kabira) ने कहा है, "पोथी पढ़ी - पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय! ढाई आखर प्रेम का,पढ़े सो पंडित होय।" इसका अर्थ है कि बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुंच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि प्रेम या प्यार केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में " प्रेम की शुरुआत मूर्खता से होती है और अंत पश्चाताप पर।" दक्षिणी भारत के तौर -तरीकों से प्रभावित होकर आज हम जो रिश्तें विकसित कर रहे हैं, उसमें कहीं न कहीं पाखंड, दिखावा, धूर्तता आदि का वास होता है।

मीराबाई और कृष्ण का सात्विक प्रेम

वहीं वास्तविक " प्रेम शून्य से शुरू होता है और अनंत पर जाकर अंत। " उदाहरण के तौर पर आज के समय में व्यक्ति प्रेम का सात्विक मूल्य ना समझकर स्वार्थ और लोभ का जीवन जीने को आदि हो चुका है। स्वार्थपूर्ण जीवन सामान्यतः सरल और लालसा से परिपूर्ण रहता है और व्यक्ति लोभ का आदि हो जाता है इसीलिए स्वार्थी जीवन वर्तमान समय में व्यक्ति की पहली पसंद बनता जा रहा है और सात्विक प्रेम विलुप्ति के कगार पर है। अगर वास्तविक प्रेम की बात की जाए तो मीरा व चंदनबाला इसके सटिक उदाहरण हैं। चित्तौड़गढ़ की महारानी मीराबाई (Mirabai) ने अपार धन संपदा का त्याग करते हुए भगवान श्री कृष्ण (Shri Krishna) की भक्ति में अपने को समर्पित किया।



महावीर और चंदनबाला की प्रेम कथा

इसी प्रकार महावीर (Mahavir) के जिनशासन में सबसे पहली साध्वी बनी चंदनबाला (Chandanbala) जब अपने घर बेड़ियों से जकड़ी हुई थी तब महावीर को भक्त प्रेम के जोर पर वापस आना पड़ा और उन्हें बेड़ियों से स्वतंत्र करवाया। यहाँ अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है। प्रेम त्याग और समर्पण का दूसरा नाम है। मनुष्य को स्वतंत्रता अत्यधिक प्रिय है। मनुष्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहना चाहता है। प्रेम ही वो एहसास है जो मनुष्य को पूर्ण रूप से स्वतंत्र करता है। क्यूंकि प्रेम की एक निश्चित परिभाषा नहीं है न ही स्वरूप। प्रेम स्वयं से हो सकता है, परिवार से हो सकता है, समाज से हो सकता है और राष्ट्र से भी हो सकता है।

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