फिल्म- बे़ग़म जान
रेटिंग- 3.5/5
निर्देशक- सृजित मुखर्जी
कलाकार- विद्या बालन, गौहर ख़ान, ईला अरुण, पल्लवी शारदा, आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर, चंकी पाण्डेय, नसीरुद्दीन शाह आदि
अवधि- 2 घंटे 14 मिनट
पहली राय- बेगम जान आसान फिल्म नहीं है, ड्रामा थोड़ा ज़्यादा है मगर फ़िल्म पर फबता है। बेग़म जान की शुरूआत में ही इस्मत चुगताई और सआदत हसन मंटो को निर्देशक फ़िल्म को समर्पित करते हैं। इन दोनों किस्सागो का असर फ़िल्म पर नज़र आता है। फ़िल्म के कई दृश्य आपको झकझोरने की ताकत रखते हैं। विद्या बालन समेत बाकी कलाकार फ़िल्म की पृष्ठभूमि सभी फ़िल्म के साथ जाते हैं। इंटरवल के बाद फ़िल्म थोड़ी देर पटरी से उतरती है, लेकिन अखिर तक आते आते फ़िल्म फिर से मज़बूत हो जाती है।
अगली स्लाइड में देखिए कहानी :
बेग़म जान की कहानी खुलती है एक हार्ड हिटिंग सीन से। ये वर्तमान की दिल्ली है, चलती बस में एक लड़की से रेप के इरादे को कोई है जो नाकाम करता है। लेकिन वो बेगम नही है, फिल्म कट टू पार्टिशन के दौर में पहुंचती है। भारत पाकिस्तान बंटवारे के कगार पर हैं। रेडक्लिफ लाइन का छोटा सा इतिहास बताते हुए फिल्म आपको उस कोठे में दाखिल कराती है, जो इस रेडक्लिफ लाइन यानि बंटवारे की रेखा के बीचों बीच आ रही है।
इस कोठे की मालकिन एक बेगम यानि बिद्या बालन है। जो मजलूम और मजबूर लड़कियों को अपने कोठे में पनाह दिये हुए है। यहां अलग अलग भाषा और बोली वाली तवायफें हैं, जिनके ग्राहक हिन्दू मुस्लिम राजा रंक सभी हैं। बेगम इसे अपना वतन कहती हैं और इसी वतन के टुकड़े न होने देने की ठान लेती हैं। इसी जिद और बंटवारे के दर्द के बीच बुनी गयी है एक अलग सी कहानी। जिसमें छाया है मीरा से लेकर रजिया सुल्तान , रानी लक्ष्मीबाई से लेकर महारानी पद्मिनी तक की। फिल्म के लिखने में जज्बात का इस्तेमाल किया गया है।संवाद कमाल के पिरोये गये हैं जो इसकी कहानी को अलग स्तर देते हैं।
अभिनय- फिल्म बेगम जान में भले ही मुख्य किरदार विद्या बालन का हो लेकिन कहानी हर रोल की रौशनी कम नहीं करती। छोटे छोटे सकारात्मक किरदार जहां दिल में घर बना लेते हैं, तो चंकी पाण्डेय ने वो काम किया है, जिससे आपको उनसे नफरत होने लगेगी और ये उनके लिये बड़ी कामयाबी है।
तकनीक और डायरेक्शन- फिल्म को ज्यादातर एक घर में शूट किया गया है, तो वो कोठी भी एक किरदार की तरह है। कैमरा वर्क और बैकग्राउंड म्यूजिक जबरदस्त हैं। संगीत फिल्म के साथ जाता है, लेकिन इसे ज्यादा मेलोड्रामैटिक फिल्म बना देता है। निर्देशक सृजित मुखर्जी की ये पहली फिल्म है हिन्दी में, लेकिन वो कमाल का भांप पाये हैं हिन्दी दर्शकों की नब्ज को। फिल्म की लंबाई थोड़ी छोटी होती तो फिल्म और असर करती ।
क्यों देखें : आप रियलिटी को एक तरफ कर दें, और फिल्म में उसे सिर्फ बैक़ड्रॉप की तरह देखें तो बेगम जान आपको पूरी कमर्शियल फिल्म लगेगी। इसमें संवेदनशील और सार्थक फिल्मों जैसी कहीं कही गहराई भी है, और सृजित ने प्रतीकों का खूब इस्तेमाल किया है जो अच्छा लगता है। फिल्म को पांच में 3.5 स्टार्स।