लखनऊ: पाटियाला की रेलवे काॅलोनी के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जन्में एक साधारण से दिखने वाले नौजवान की आंखों में सपने तैरते थे। 1955-1960 के आसपास का दौर जब भारतीय समाज में अभिनय को पेशा बनाने के बारे सोचना बहुत अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन ये किशोर कुछ अलग ही करना चाहता था, क्योंकि वह बना ही अलग मिट्टी का था। 18 अक्टूबर 1950 को जन्मे ओम राजेश पुरी अपने औसत पढ़े-लिखे अभिभावकों की 8वीं संतान थे। अभाव और संघर्षों के दौर में ओम ने अपना अलग ही रास्ता चुना तो यह कहीं न कहीं उसके भीतर छिपा विद्रोह और अपने को तपाकर कुंदन बना लेने की जबर्दस्त चाहत ही थी।
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शुरुआती जीवन
बकौल नसीरूद्दीन शाह 'ओम राजेश पुरी से ओम पुरी बनने तक की पूरी यात्रा, जिसका मैं चश्मदीद गवाह रहा हुं एक दुबले पतले चेहरे पर कई दागों वाला युवक जो भूखी आंखों और लोहे के इरादों के साथ एक स्टोव, एक साॅस पेन और कुछ किताबों के साथ एक बरामदे में रहता था, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बन गया। ओमपुरी की कहानी शौर्य गाथा भले ही न हो पर एक ईमानदार कलाकार के समर्पण, संकल्प और अभिनय को जीने की ललक की कहानी जरूर है। जिसे उसने न सिर्फ पूरा करके दिखाया बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अभिनय के चलते अपनी पहचान रेखांकित करायी।
भुखमरी और आर्थिक तंगी से जूझते परिवार में ओमपुरी ने रेल पटरियों के किनारे कोयला बिनने और सात साल की उम्र में चाय की दुकान पर काम करने जैसे अनुभव इकठ्ठा किए। जिन्होंने आगे चलकर उन्हें जिंदगी के आस-पास का बेहद साधारण दिखने वाला असाधारण अभिनेता बना दिया। पटियाला के खालसा कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही ओमपुरी को नाटकों से प्यार हो गया, जो बाद में उन्हें दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रवेश द्वार तक ले आया। इब्राहिम अल्काजी ने सबसे पहले इस अनगढ़ हीरे को पहचाना और अभिनय की बारीकियां सिखायीं। यहीं पर उन्हें सहपाठी के तौर पर मिले नसीरूद्दीन शाह जो बाद में पुणे टेलीविजन और फिल्म संस्थान भी साथ-साथ गये और उम्र भर के लिए अच्छे दोस्त भी हो गये।
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एफटीआईआई का सफर
पुणे के फिल्म संस्थान में प्रवेश के दौरान चयनकर्ताओं ने ओम को देखते ही खारिज कर दिया, लेकिन जब ओम ने अपनी अनोखी आवाज में पूरे आत्मविश्वास के साथ संवाद प्रस्तुत किए तो जैसे सम्मोहन सा छा गया। शीघ्र ही ओम सबके चहेते बन गये। ये बात दीगर है कि अपने उन तंगहाली के दिनों की याद को सम्हाले रखने के लिए ओम ने संस्थान की कैंटीन के बकाये का बिल अपने घर में फ्रेम कर के टांगा हुआ है।ओमपुरी के फिल्मी सफर का आगाज वर्ष 1976 में एक मराठी फिल्म ‘घासीराम कोतवाल’ से हुआ, जिसका निर्देशन के हरिहरन और मणिकौल ने किया था।
इस फिल्म में संस्थान के सोलह और स्नातक मिल थे। इस फिल्म ने ओमपुरी को कोई खास पहचान नहीं दी और उन्हें लम्बे समय तक सफलता का इंतजार करना पड़ा। लेकिन वर्ष 1977 में प्रेमचंद की कहानी पर आधारित फिल्म 'गोधुलि' में ओम ने अपनी प्रतिभा दर्ज करायी। गिरीश कर्नाड और बी. वी. कारंत के संयुक्त निर्देशन में बनी इस फि़ल्म ने इंडस्ट्री को एक सशक्त अभिनेता दे दिया, लेकिन यहां तक का सफर आसान नहीं था। ओम के साथ इस फिल्म में नसीर और कुलभूषण खरबंदा भी थे।
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फिल्मी सफर और अवार्ड का सिलसिला
फिल्म को 25 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में सर्वोत्तम पटकथा का सम्मान मिला। लगभग इसी समय इस फिल्म का कन्नड़ संस्करण भी आया। अगले साल सईद अख्तर मिर्जा की समानांतर फिल्म ’अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान’ ने भी ओम को नई पहचान दी। फिर वर्ष 1980 में आई फिल्म ’आक्रोश’ जिसमें भीखू की शानदार भूमिका के लिए ओम को फिल्म फेयर का सर्वोत्तम सहयोगी कलाकार का पुरस्कार मिल गया और इस तरह से ओम ने साबित कर दिया कि वे एक असाधारण अभिनेता हैं।
गोविंद निहलानी निर्देशित इस फिल्म को 1980 में सर्वोत्तम हिन्दी फीचर फिल्म के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय फि़ल्म समारोह में ’गोल्डेन पीकाॅक’ का सम्मान भी मिला।दरअसल ओमपुरी के फिल्मी ग्राफ पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि उनके अभिनय में इतनी ज्यादा विविधता है जो बहुत कम अभिनेताओं के बूते की बात होती है। उन्होंने समानांतर प्रयोगधर्मी सिनेमा में अपनी छाप छोड़ी जैसे ’अर्धसत्य’ जिसमें उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार प्राप्त हुआ वहीं अमरीश पुरी, नसीर, शबाना आजमी और स्मिता पटेल जैसे दमदार कलाकारों के साथ ओम की फि़ल्में भवानी भवाई (1980) सद्गति (1981) मिर्चमसाला (1986) और धारावी (1992) आज भी याद की जाती हैं।
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दमदार अभिनय की बदौलत कई भाषाओं में की फिल्में
1980 के आसपास ओम ने पंजाबी सिनेमा में भी हाथ आजमाया। चन परदेसी (1980) और लौंग दा लचकारा (1986) उनकी बेहद सफल पंजाबी फिल्में रहीं। 19 वर्षों के अंतराल के बाद वर्ष 2005 में ओम ने फिर एक पंजाबी फिल्म ’बागी’ की, और 2008 में गुरूदास मान की फिल्म ’यारियां’ भी बाॅक्स आॅफिस पर सफल रही। 1980 के आसपास पुरी ने हिंदी फिल्मों के अनेक चरित्रों को जिया। घायल (1990) सैम एण्ड मी (1991) नरसिम्हा (1991) माया मेमसाब (1992) सिटी आॅफ ज्वाय (1992) द्रोहकाल (1994) माचिस (1996) और मृत्युदंड (1997) कुछ ऐसी फिल्में हैं जिनमें ओम ने अपने जानदार अभिनय के चलते अपनी अलग पहचान बनाई। वहीं हम देखते हैं कि हास्य अभिनेता के रूप में वे एक मंजे हुए काॅमेडियन साबित होते हैं। मिसाल के तौर पर चाची 420 (1997) और हेरा फेरी (2000) मालामाल वीकली (2006) मेरे बाप पहले आप (2008) कुछ ऐसी ही फिल्में हैं।
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ओम ने छोटे पर्दे पर भी धूम मचाई, उनके धारावाहिक ’चच्चा जी कहिन’ (1988) को कक्का जी घर-घर में लोकप्रिय हुए तो "मिस्टर योगी" (1989) ने भी लोगों को गुदगुदाया। ओम ने रांची के एक काॅलेज में बच्चों के साथ अपनी यादें ताजा करते हुए कहा था कि वे एक साधारण स्कूल में पढ़े और उन्हें अंग्रेजी भाषा से बहुत डर लगता था, लेकिन जब ब्रितानी फिल्मों और धारावाहिकों में काम करने की बात आई तो शायद उनके भीतर का कलाकार जीत गया, ओम के अनुसार उन्होंने अपनी अंग्रेजी सुधारने के लिए जी तोड़ मेहनत की और अपनी इस कमजोरी पर विजय पाई।
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि पटियाला के छोटे से स्कूल से निकले ओम ने पूरे दस साल तक लंदन में अंगेजी फिल्मों और धारावाहिकों में न केवल काम किया बल्कि अपार लोकप्रियता और सफलता भी पाई। वे ऐसे पहले भारतीय अभिनेता हैं जिन्हें लंदन में 'आॅनर आॅफ ब्रिटिश एम्पायर' खिताब नवाजा गया। 1999 में बनी काॅमेडी ड्रामा फिल्म ईस्ट इज ईस्ट’ में उनकी जार्ज खान की भूमिका और 2010 में फिल्म 'बेस्ट इज बेस्ट' में उनकी अविस्मरणीय अदाकारी ने ये साबित कर दिया कि कला और कलाकार के लिए भौगोलिक सीमाएं नहीं होती हैं।
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ओम ने अनेक अमेरिकी फिल्मों में भी काम किया। अगस्त 2014 में अमेरिका में रिलीज हुई उनकी काॅमेडी ड्रामा फिल्म ’दी हंड्रेड फुट जर्नी’ ने विश्वभर में 90 मिलियन अमेरिकी कारोबार का व्यापार करके एक कीर्तिमान स्थापित किया। निर्माता स्टीवन स्पीलबर्ग की इस फिल्म में ओम एक भारतीय रेस्टुरेंट के मालिक का किरदार निभाते हैं। 'माई सन द फैनेटिक' (1997) 'दी पैरोल आॅफिसर' (2001) उनकी अन्य चर्चित ब्रिटिश फिल्में हैं जो व्यवसायिक रूप से भी सफल रहीं।
ओम ने हाॅलीवुड फिल्मों में भी जमकर काम किया। 'सिटी आॅफ जॉय' (1992) वोल्फ (1994) 'दी घोस्ट एण्ड दी डार्कनेस (1996) उनकी चर्चित हाॅलीवुड फिल्में हैं।उनकी हालिया फिल्मों में से चर्चित होने वाली फिल्मों में 'सिंह इज किंग', 'मेरे बाप पहले आप' और 'बिल्लू' का जिक्र किया जा सकता है। वर्ष 2009 में बनी फिल्म ' रोड टू संगम' में ओम ने मोहम्मद अली कसूरी का यादगार किरदार निभाया। 'हैंगमैन' (2010), 'डाॅन-2' (2011) भी चर्चा में रहीं।
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अब भी है जोश
कुल मिलाकर किरदार संजीदा हो या मजाकिया ओम अपने आप को हर भूमिका में ढ़ालना जानते हैं। ऐसा लचीलापन कम कलाकारों में देखने को मिलता है, शायद इसीलिए उन्हें अलग-अलग रंगों से ढले चरित्र आॅफर भी किए जाते हैं। 2015 के अक्टूबर माह में रिलीज होने जा रही काॅमेडी फिल्म 'हो गया दिमाग का दही' के प्रमोशन के लिए ओम 13 अक्टूबर को लखनऊ में थे। बातचीत में ओम ने बताया ये हल्की-फुल्की मनोरंजन फिल्म है। जिसमे मैं मिर्जा किशन सिंह जोसेफ की भूमिका निभा रहा हूं। फिल्म में मेरे साथ कादर खान, संजय मिश्रा, राजपाल यादव और रज्जाक खान जैसे कलाकार होंगे।
65 साल की उम्र में भी ओमपुरी की ऊर्जा जिंदादिली और फुर्तीलापन देखते ही बनती है। आगे की योजनाओं को लेकर भी वे आशान्वित हैं और कहते हैं कि कई फिल्में हाथ में हैं तथा जब तक काम मिलता रहेगा, करते रहेंगे।एक कलाकार कभी बुढ़ा नहीं होता है। कुल मिलाकर ओमपुरी एक बेहतर अभिनेता के साथ-साथ एक मजेदार और बेहद विनम्र इंसान भी हैं । जिन्हें खाने से ज्यादा खिलाने का शौक है और वे जिन्दगी को भरपूूर जीते हैं।
लेखक वरिष्ठ मीडिया समीक्षक है।