Bhagwan Shri Ram: कौन हैं सूर्यवंशी राम ? आइये जाने सब कुछ विस्तार से
Bhagwan Shri Ram: प्रश्न एक ही है कि रामपन, रामत्व, रामरस आखिर है क्या ? यह तो भ्रम है, राम ईश्वर है या राम मनुष्य है ? राम राजा हैं या सहृदय मित्र हैं।
Bhagwan Shri Ram: यहाँ समुपस्थित सभी राम-रसिकों के चरणों में प्रणाम करते हुए राम- राम निवेदन करता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि इस रामोत्सव के पूर्ण मंगल के अवसर पर मैं उपस्थित हो पाया। कल इसका मंगलाचरण हुआ, उससे मैं वंचित रहा। किन्तु ऐसा कहते हैं कि उत्तरोत्तर प्रमाण और स्वाद बलवान होता जाता है। रामोत्सव का पूरा रस, रामरस बटोरने के लिए मैं ब्रज से चला आया। आयोजकों की बड़ी कृपा है। यह रामोत्सव नित्योत्सव है, जो सर्वदा था, सर्वदा है और सर्वदा रहेगा। साथ ही यत्र-तत्र सर्वत्र भी है। यह दोनों ही इस उत्सव की विशेषताएँ हैं। रामोत्सव जनपद-जनपद में है, अंचल अंचल में है और देशव्यापी है। उत्तर-भारत, दक्षिण-भारत, पूर्वी-भारत व पश्चिम भारत व मध्य भारत में इस उत्सव को हम बाँटकर नहीं देख सकते, इसे किसी सीमा में बाँध नहीं सकते। यह हर सीमा को तोड़कर बह निकलता है, यह रामोत्सव और जैसा कि हरिदत्त जी ने विश्व के पूर्वी हिस्सों में रामोत्सव की बात की, वहाँ से लेकर सुदूर पश्चिम तक ये रामोत्सव विश्वव्यापी है। 'पश्चिमी भारत' जिसे आज वेस्टेन्डीज कहते हैं, वहाँ ये बड़ा जीवन्त उत्सव है। उसी से उनकी जीवन-शैली संचालित होती है।
उत्तर भारत की कला व संस्कृति में राम के सन्दर्भ में यह समझना चाहूंगा कि कला को मैं संस्कृति से अलग मानूँ या संस्कृति को कला की मां या बहन मानूँ, कुछ समझ में ज्यादा नहीं आ रहा है । क्योंकि दोनों को जरा भी, हाइफन लगाकर भी, दूर करूँगा तो कला भी असांस्कृतिक हो जाएगी और संस्कृति कलाहीन हो जाएगी, मुश्किल होगी। पिछले एक दो घण्टे में मैंने देखा कि मनीषियों ने कला पक्ष को ही लेकर इस विमर्श में ध्यान को केन्द्रित किया है। अस्तु।
श्रीयुत् श्रीवत्स गोस्वामी
कृष्णाय वासुदेवा हरये परमात्मने।
प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः ।।
माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः, स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।
सर्वस्व मे रामचन्द्रो दयालुः, नान्यम जाने नैवजाने न जाने ॥
सर्वप्रथम प्रश्न यह उठता है कि राम जो स्पष्ट है, प्रकट है, मर्यादित है वहाँ पर समझने को बचा क्या है ? उसके विमर्श की कोई आवश्यकता है क्या ? विमर्श कहाँ होता है, जहाँ शंकाएँ हों, प्रश्न उठे। किन्तु सूर्यवंशी राम सूर्य के समान स्वप्रकाशित व उपलब्ध हैं। लोक से लेकर शास्त्र तक सर्वत्र उपलब्ध हैं, तो फिर उनकी खोजबीन क्या ? और खोज-बीन नहीं है, तो फिर यह विमर्श कैसा? और दूसरी ओर हमारे चन्द्रवंशी कृष्ण हैं, चन्द्रमा के समान लुका-छिपी करते रहते हैं। पन्द्रह दिन तक आपको दिखाई पड़ेंगे और फिर वहाँ से गायब होना शुरू कर देंगे। अमावस्या व पूर्णिमा का खेल ये चाँद हमारा करता रहता है। उसकी खोज-बीन के लिए तो अवकाश है किन्तु सूर्य की क्या खोज-बीन करना? वो तो ज्यों का त्यों जैसा है वैसा है। न चलता है, न फिरता है, न कुछ करता है। बस वह है।
एक और समस्या भी है जैसा कि प्रश्न उठाया गया। राम धर्म के पालक हैं, रक्षक हैं, इत्यादि। इसमें कोई मतभेद नहीं है। किन्तु हमारे कृष्ण का निमन्त्रण अबूझ लगता है जब वह कहते हैं कि "सर्वान्धर्मान् परित्यज्य, मामेकंशरणंब्रज" या "मन्निमित्तंकृतंपापं, अपि धर्माय कल्पते। अब बताइये ऐसे कृष्ण के उपासक को राम विमर्श के लिए कहा जाय ! कृष्ण के उपासक द्वारा विग्रहवान्धर्म श्रीराम की चर्चा कराना, आपको ठीक लगता है ? जो भी है-
इस चर्चा के पीछे कुछ कर्जा उतारने की बात भी है। हमारे ब्रजराज कृष्ण रघुराज राम एक ऋणियाँ हैं, कर्जदार हैं, उपकृत हैं। यदि राम न जगायें, तो कृष्ण जगें नहीं, राम न सुलाएँ तो सोएँ नहीं। उठना उतनी बड़ी समस्या नहीं है, सोना बहुत बड़ी समस्या है। औषधिविज्ञान में कोई भी औषधि नहीं बनी है जो आपको निद्रा और वो भी सुखद निद्रा दे दे। यह समस्या माता यशोदा के सम्मुख थी, क्योंकि लाला को नींद न आवे तो माता कहती हैं-
"सुन सुत एक कथा कहुं प्यारी"
कमलनयन मन आनंद उपज्यो, चतुरसिरोमणि देत हुंकारी"
कथा आगे बढ़ी और बढ़ते-बढ़ते उस प्रसंग पर गई कि
"रावण हरण सिया को कीन्हों, सुनि नंद नंदन नींद निवारी"
श्रीकृष्ण को झपकी आ गई थी, निद्रालोक में प्रवेश हो चुका था कृष्ण का। किन्तु जैसे ही सुना हरण, तो सुनि नंद ननींद निवारी"
"चाप-चाप कह उठे सोमधर, लक्ष्मण देहु... धनुष लाओ, धनुष लाओ, लक्ष्मण देखो... जननी भ्रम भारी'।
यशोदा न समझ पायी कि ये किससे धनुष माँग रहा है और कहाँ है लक्ष्मण यहाँ ? ये हो क्या रहा है ? यह भ्रम माँ यशोदा का मात्र नहीं है। यह भ्रम जब राम थे, तब भी था और आज भी है। आज भी उतना ही भ्रम राम कथा को लेकर बना हुआ है, इसलिए विमर्श की आवश्यकता है।
संस्कृति के धरातल पर ही कला खड़ी है। दृष्टि हेतु सदैव दृश्य चाहिए; कुछ हो, कोई हो, कभी हो, बस होना चाहिए। जो होता है, वही कला में उतरता है। शून्य से कला कभी प्रकट नहीं होती। एब्सट्रेक्ट आर्ट जिसे हम कहते हैं, वो किसी एब्सट्रेक्शन से नहीं आई है। जो हमने देखा है, उसी की सारभूत अभिव्यक्ति एब्सट्रैक्शन है, उसे देखे हुए का। जैसे गुण का साक्षात्कार करके कबीर निर्गुण की कविता लिखते हैं, वो है ऐब्सट्रेक्ट आर्ट।
वो निर्गुण के माध्यम से पूर्ण व्याप्ति को, उस विश्व रूप को, एक बिन्दु के भीतर देने की चेष्टा करते हैं। यह बात उस तरह की है। शून्य से नहीं आती। वस्तु चाहिए। राम हो, राम का नाम हो, राम का रूप हो, राम की लीला हो, राम का धाम हो, तब राम कलाओं में प्रकट हो सकते हैं। नहीं तो कला की धारा बह जाएगी, राम उसमें स्नान करेंगे ही नहीं। ऋषिवर पतंजलि ने महाभाष्य में कहा "दृष्टस्य अनुव्याख्यानं भवति" यदि कोई फिनोमिना नहीं है तो उसकी व्याख्या सम्भव नहीं है। धन्यवाद है विविध कलाओं का कि राम आज भी हमें मूर्त रूप में उपलब्ध हैं, इतने कालक्रम के बाद भी। राम की लीला है, तो राम की कला है और राम की लीला ही कला है। यहाँ एक वैचारिक झंझट खड़ा होता है; जब विमर्श में कतिपय उधार लिए हुए प्रत्यय हावी होते हैं। मूर्त तथा अमूर्त कलाविधायें। जैसे अधूरी समझ ने निर्गुण एवं गुण दो अखाड़े खोल दिए, जो मूलतः हमारे यहाँ नहीं थे। कबीरदास से पूछो या नानकजी से भी पूछोगे, तो हमारे यहाँ निर्गुण एवं सगुण के अखाड़े नहीं मिलेंगे। वो हमने उनसे लिये, जिनको बाँटना था।
केवल हमारे समाज को ही नहीं, बुद्धि को भी खण्डित करना था। हम तो "अखण्ड मण्डलारं व्याप्त येन चराचरम्" के उपासक हैं। हम खण्डित कर क्यों देखेंगे सत्य को ? वह निर्गुण एवं सगुण, व्यापक एवं व्यप्ति दोनों रूपों में हैं तो यदि राम अमूर्त हैं, तो राम कथा किसलिए है, कौन से बात है, किस शिल्प में राम निर्मित है। अगर राम अमूर्त हैं, तो अमूर्त के लिए तो ये सब काम हो नहीं सकता, क्योंकि ये सभी धंधे तो मूर्त के हैं। और यदि राम मूर्त हैं, तो फिर राम की लीला को अमूर्त विरासत में क्यों रखा गया है ? मुझे तो बड़ा सोच होता है कि रामलीला और अमूर्त ? जैसा कि इन्टैन्जीबलहैरिटेज के लिए यूनेस्को में अर्जी पे अर्जी लगाई जा रही है कि रामनगर की लीला को अमूर्त विरासत में रख लो। अरे उससे अधिक मूर्त कोई विरासत नहीं है मेरे पास और उसको हम अमूर्त में ले जा रहे हैं। ये नकली का जो आक्रमण है, इस पर सोचना पड़ेगा। तो यदि राम हैं, राम कि कला विक हैं। अगर अमूर्त अनुभव की बात है तो सब कुछ अमूर्त ही है। किन्तु जैसे ही अमूर्त चर्चा में आया, वाच्य वाचक बना, डिस्कर्सिव नॉलेज के फ्रेम में रामकथा या रामकला उत्तरी, तो वो मूर्त हुई।
और इस गुत्थी को समझने के लिए एक बात जानना जरूरी है कि जो भी मूर्त भौतिक पदार्थ हैं, वह निश्चित रूप से काल से क्षय होता है। काल किसी को छोड़ता नहीं है। अतः, यदि रामलीला मूर्त है, अमूर्त नहीं है, तो उसका अभी तक क्षय हो जाना चाहिए था। कहाँ त्रेता और कहाँ यहाँ आज हम खड़े, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। रामकथा एवं राम कला उतनी ही जीवन्त है आज जितनी त्रेता युग में रही होगी। शायद उससे भी अधिक जीवन्त है आज। उस समय शायद उतने विस्तार न रहे हों, जितने विस्तार यहाँ बैठे सुधीजनों ने गिनाये। पूरे विश्व में रामकथा के कितने विस्तार हैं। त्रेता युग में तो वाल्मीकि एक ही विस्तार कर पाए। रामकथा सम्प्रति न केवल जीवन्त है वरन् व्यापक रूप में हमें उपलब्ध है। वस्तुतः, भारतीय मनीषा के पास एक बहुत ही अद्भुत प्रक्रिया है जिसे भारतीय मनीषी पं. विमल मतिलाल के अनुसार यह एक ऐपिक प्रक्रिया है। पुराण कथाओं को समझने एवं उसके विश्लेषण की प्रक्रिया एवं परम्परा देश में कभी नहीं टूटी। कितने भी आक्रमण हुए किन्तु यह परम्परा हमने अक्षुण्ण रखी। उनका विश्लेषण व विमर्श करता क्या है ? उन विश्लेषण एवं विमर्श के द्वारा उन कथाओं का प्राण रस संचित कर उससे युगोपयोगी भावधारा को परिपुष्ट किया जाता है। रामकथा का प्राण रस अभी सूखा नहीं है, इसलिए त्रेता से आज तक जीवित है और यह जीवन्त प्राण रस ही वह अमूर्त रामरस है, जो रामलीला एवं रामकला की जीवन्त कालजयी आत्मा है और उसका जो प्रकाश है वो उसका मूर्त स्वरूप है। रामकथा और लीला मे जो भावनामयी परिधियाँ हैं, वो काल द्वारा खण्डित नहीं हुई हैं। उस भावधारा कि संवाहक जो धारा है, वह कला है। उसने रामरस को प्रवाहित रखा है। रसभाग यदि प्रवाहित नहीं है, स्थिर हो गया, तो वो दूषित हो जाता है। ये रामरस शुद्ध है, जैसे निरंतर बहता हुआ जल अपने आपको पुनर्जीवित करता रहता है।
रामलीला या रामकला की सनातन भावनामयी प्रज्ञा क्या है ? क्या है रामलीला का प्राणरस, उसकी आत्मा ? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए अगर आपकी अनुमति हो तो मैं आगे बढूँ?
आगे की यात्रा निर्बाध हो अतः गुरु कृपा की आवश्यकता है क्योंकि वही मार्गदर्शक है तो एक गुरु की बात को मैं स्मरण करता हूँ। वह कहते हैं:
"रामविमर्श मात्र बौद्धिक या साहित्यिक कौतूहल नहीं है। वह जीवन का धर्म है। जीवन की आवश्यकताओं के भीतर से राम की भावना जन्म लेती है। राम लोकोत्सव में है, इसीलिए प्रबल आध्यात्मिक स्फूर्ति हुयी हुई है। पृथ्वी पुत्र राम का दृष्टिकोण हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व और विकास की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के साथ हमारा परिचय कराता है।"
गुरुजन आगे कहते हैं कि "राम द्वारा पृथ्वी को मातृभूमि और अपने आपको उसका पुत्र समझने का अर्थ बहुत गहरा है। एवं रामभक्त का मन मानव के लिए नहीं, पृथ्वी से सम्बन्धित छोटे से छोटे तृण के लिए भी प्रेम से घुल जाता है। मातृभूमि को जो प्रेम करता है, वो कभी हृदय की संकीर्णता को सहन नहीं कर सकता।" आगे वह कहते हैं कि "पृथ्वी की कोख से जन्म लेने वाली भौतिक सामग्री पृथ्वी पर बसने वाले जन और इस जन की संस्कृति का, ज्ञान का उदय अभीष्ट है। भूमि, जन, संस्कृति के त्रिकोण में जीवन का सम्पूर्ण रस समाया हुआ है और उस रस को हम राम रस कह सकते हैं।" यह अमृत वाक्य है पं. वासुदेवशरण अग्रवाल के, जो इस बात पर जोर देते हैं कि "इस (रामरस) के साथ घनिष्ठ परिचय की आँख हमें अपनानी चाहिए। जनता के पास लोक के नेत्र हैं, परन्तु देखने की शक्ति इसमें साहित्यकारों, विचारकों एवं कलाविदों को भरनी है।" और यह तभी होगा जब शास्व लोक से जुड़ेगा अगर हमने शास्त्र को लोक से काट दिया तो ये रामरस का बहना बंद हो जाएगा।
तो राम कला विमर्श केन्द्र में एक ही प्रश्न खड़ा है कि रामरस और रामत्व क्या बला हैं ? यह रामपन किस राम का है ? यद्यपि राम एक हैं, ऐसा सब कहते हैं; परन्तु वह अनेक होते दिखते हैं। एक ही राम अनेक हो जाते हैं और अनेकता इस बात पर निर्भर करती है कि हमें राम को दिखा कौन रहा है। यदि वाल्मीकि हमें दिखा रहे हैं, तो राम का रूप कुछ दूसरा है। और यदि कालिदास तो राम दूसरे हैं। बाबा तुलसीदास दिखा रहे हैं, तब राम तीसरे हैं और यदि इस भूमि के महाप्राण निराला दिखा रहे तो शक्ति के उपासक राम हैं। उस भावजगत तक कोई पहुँच ही नहीं सकता। सभी को प्रणाम है। वाल्मीकि को भी और बाबा तुलसी को भी। उन सबका रस निचोड़कर निराला ने दे दिया, रामरस। शास्त्रीय चेतना के राम हैं और लोकचेतना के भी राम हैं। असंख्य राम हैं। और तो और, रामभक्तों में भी विविध राम हैं। ज्ञानयोगी कबीर के राम, कर्मयोगी गांधी के राम और रसिकप्रेमी भक्तों के राम तो कुछ अलग ही हैं। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम को ही रस में उतार दिया।
प्रश्न एक ही है कि रामपन, रामत्व, रामरस आखिर है क्या ? यह तो भ्रम है, राम ईश्वर है या राम मनुष्य है ? राम राजा हैं या सहृदय मित्र हैं। वो सदय हैं या निर्दयी, जैसा बालि के साथ। वह निर्गुण हैं या सगुण, क्या हैं ? मूर्त या अमूर्त ?
मेरे लिए बहुत सरल होता यदि कृष्ण सम्मुख खड़े होते। यद्यपि वो टेढ़े हैं तीन तरफ से और राम एकदम सीधे खड़े हैं, तथापि कृष्ण को समझना आसान है। राम को समझना टेढ़ी खीर है, यद्यपि ये सीधे दिखते हैं परन्तु उन्हें समझना कठिन क्यों?
रामकथा के प्रथम एवं आदिश्रोता, हर अर्थ में आदि, गिरिजा को छोड़कर कोई दूसरा हो सकता है ? क्या कोई उस कोटि का श्रोता होने का दावा कर सकता है ? हम जानते हैं कि ऐसे श्रोता के साथ क्या बीती ? क्या गिरिजा राम को समझ पायी ? समझने के चक्कर में आत्मदाह कर गुजरीं ? इतने खतरे हैं राम को समझने में। जिसके कंधे पर राम घूमते हैं, ऐसे उनके नित्यपार्षद गरुड़ जी भी नहीं समझ पाये? तो हम और आप उस सीधे राम को कैसे समझेंगे? इसकी रामकथा को क्या समझें, इसकी लीला को क्या समझें, इसकी 'कलाबाजी' को क्या समझें ?
यह तो राम का सौभाग्य है कि उनको सांस्कृतिक सन्दर्भ अच्छा मिला प्रश्न संस्कृति का। साधक अपने गुरु से जिज्ञासा करता है 'कस्मै देवाय हविषा विधेम' ? तब उपाध्याय ने कहा 'तं संप्रश्नम्'। सम्पूर्ण और सम्यक् प्रश्न ही तेरा आराध्य है। उस संस्कृति के उपासक क्या कहते हैं ? सम्पूर्ण एवं सम्यक् प्रश्नकर्ता साधक भारद्वाज याज्ञवल्क्य मुनि से पूछते हैं कि 'राम कौन' ? अरे भाई साक्षात् मिलने के बाद भी पूछते हो राम कौन ? 'नाथ एक संशय बड़ मोरे' कोई नास्तिक कह रहा है ? क्या अज्ञानी कह रहा है? या अभक्त कह रहा है ? ये हमारी संस्कृति है और इसीलिए भारतीय संस्कृति की जय जयकार है। यहाँ आराधक पूछ सकता है और आराध्य के बारे में कि यह कौन सी बला है। राम कौन हैं ? याज्ञवल्क्य जी ने कहा कि क्या पूछना चाहते हो ? भरद्वाज जी ने कहा कि दोहरे संशय हैं मेरे मन में। 'एक राम अवधेश कुमारा' इसमें कोई शंका तो नहीं। किन्तु दूसरी बात जो उठती है कि 'प्रभू सोई राम के अपर कोउ?' जो मूर्त राम हैं वही राम हैं अवधेश कुमार, रघुनंदन या दूसरा कोई ? जो बड़े विद्वान जो बुद्धि की पराकाष्ठा हैं, जो कहते हैं कि आत्मा ही राम हैं, ये दस इन्द्रियों की वृत्तियाँ ही रावण के दस मुख हैं। ये कथाएँ तो बच्चों को समझाने एवं पढ़ाने के लिए बनीं। यही बड़ा झंझट है और यह झंझट भरद्वाज मुनि का अभी तक चल रहा है। रामकथा जितनी प्रचारित हुई है, उसमें ये दोनों अखाड़े वैसे ही चल रहे हैं। आप रामकथा सुन लीजिए, अगर वह 'ऊँचे स्तर' की रामकथा है तो बताया जाता है कि ये कथाएँ तो बस ऊपरी स्तर से समझाने के लिए हैं। नासमझों को समझाने के लिए रूपक बना दिए गए हैं। भारद्वाज ऋषि इसी संशय में पड़े हैं। राम कोई संस्कृति पुरुष हैं या राम इतिहास पुरुष हैं ? पहले ये तय हो तभी तो राम की कला की बात होगी, नहीं तो राम की कला तो बेमानी है।
हम फिर चौराहे पर खड़े हैं और उस चौराहे पर कह दिया जाता है कि जाकी रही भावना जैसी रामलीला देखी तिन तैसी। किन्तु थोड़ा हटकर यह देखें कि राम स्वयं अपनी लीला के बारे में क्या सोचते हैं और क्या कहते हैं। रामजन्म के समय भी माता कौशल्या के मन में यही प्रश्न उठा 'जननी भ्रमभारी'। और वह भ्रम क्या था ? 'जगउपहासी, मति थिर न रहे' माता कौशल्या डोल गई और जितने भी जानकार थे, उनकी भी मति डोल गई। तब श्री राम ने स्वयं समाधान किया अपने लीला पर प्रश्नों का। नित्य साकेत अवध की यात्रा वे रसास्वाद के लिए करते हैं। कला और लीला दोनों का अन्तिम प्रसाद स्वाद ही है। कला में अगर स्वाद नहीं आया तो कला दो कौड़ी की है और अगर स्वाद आ गया तो उससे अच्छा कुछ नहीं। सब स्वाद पर निर्भर है। 'जगदाराध्य आस्वाद्य' राम अगर निज रस का स्वाद लेने के लिए मचल जाएँ, जैसे यदि मिश्री अपनी मिठास चखने के लिए संकल्प ले ? यह संकल्प क्रान्तिकारी था। साकेत लोक में क्रान्ति घटी, भू-लोक में नहीं। जो रस स्वरूप था, वो स्वाद लेने के लिए रस से रसिक बन गया और उसने तरीका खोजा स्वाद लेने का। जाना किस सम्बन्ध में सुख है। सम्बन्ध विविध प्रकार के हैं और उन सम्बन्धों की रक्षा प्रेममयी सेवा के द्वारा ही की जा सकती है। ये तीन सूत्र हैं स्वाद लेने के, जो साकेत बिहारी को मिले उनसे जिन्होंने स्वाद लिया उन्होंने बताया। जानकारी जरूरी थी। अभी तक जगन्नाथस्वामी ने स्वाद सब को दिया है। मिश्री ने मिठास सब को दी है। किन्तु मिश्री ने कभी क्या अपनी मिठास चखी है ? अतः रामरूपी मिश्री को स्वयं स्वाद लेने वाला बनना पड़ा। आस्वाद्य से आस्वादक बन गए। विषय से आश्रय बन गए । तब माता को जनाया कि उनका पुत्र 'चरित बहुत विधि कीन्ह चहै'।
किन्तु प्रेम के इस रास्ते पर अभी तक राम चले नहीं हैं। सेवा कराई है, सेवा की नहीं। अतः, कहते हैं हाथ जोड़कर 'जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै'। माँ मुझे वो रास्ता बताइये, जो मुझे प्रेम का स्वाद दिला सके बस और मुझे कुछ नहीं चाहिए। माँ कौशल्या ने पूरा पाठ पढ़ाया। प्रेम का खेल खेलने आए हो, प्रेम का रस चाखना चाहते हो ? तब 'तजहुँ तात यह रूपा'। छोड़ो ऐश्वर्य को। ऐश्वर्य को तिलांजलि दी है। “ऐश्वर्य शिथिल प्रेम" ऐश्वर्य में प्रेम की गाँठ ढीली पड़ जाती है। माँ ने राम की भगवत्ता एवं ऐश्वर्य को छुड़ाया। क्यों ? विवशता थी। क्योंकि ये जो भक्तजन हैं, जिनके साथ खेलने आए हो, वे भक्तगण अमानवीय या अतिमानवीय कार्य, व्यापार, प्रक्रियाओं एवं संकेतों को समझते नहीं। यद्यपि वे कहते तो हैं, दावा तो करते हैं कि वे चौरासी लाख योनि में सर्वोपरि हैं। किन्तु वे सबसे मूढ़ हैं, क्योंकि बिना सिखाए अपने बल-बूते मानव के बछड़ा-बछिया कुछ भी नहीं कर पाते। हर पशु-पक्षी, कीट-पतंग अपने आप सब कुछ कर लेता है, बिना सीखे। बछड़े को कोई नहीं सिखाता कि रंभाना, कैसे और किस थन से दूध पीना है। हमारे बच्चे को दस महीनों तक कान में माँ सुनाओ तो बमुश्किल से निकलता है माँ। बड़ा तीर मार दिया। बछड़ा तो भूमि पर आते ही रंभाने लगा, हमारा बछड़ा ग्यारहवें महीने में एक शब्द बोला 'माँ'। सोचिये हम चौरासी लाख में सर्वोपरि हैं, कि सबसे नीचे बैठे हैं ? भगवान को समझ में आ गया। 'न मानुषात् श्रेष्ठतरम्विद्यते क्वचित्' इसका मतलब यही है कि मानव की विवशता है कि वह अतिमानवीय एवं अमानवीय संकेतों को नहीं समझता।
इसलिए प्रभु को यदि मानव से खेलना है, भगवान को भक्तों से खेलना है, तो भक्त की भाषा में बात करनी पड़ेगी। भक्त के तौर-तरीके अपनाने पड़ेंगे, और कोई तरीका नहीं है। श्री चैतन्यमहाप्रभु का एक सूत्र वाक्य है अद्भुत : 'प्रभुरजतैक खेला, सर्वोत्तम नर लीला' यहाँ सर्वश्रेष्ठ का आशय है, इस मानवता से प्रभु का पूर्ण संवाद। यह सब जब राम को समझ आया, तब उन्होंने अपनी लीला आरम्भ की।
'रोदनठाना'। भगवान को कभी आपने रोता देखा है, अगर भगवान रोए तो फिर वो किस बात का भगवान ? अरे रोने के लिए तो हम ही बहुत हैं। हमारे रोने-पीटने को शान्त करने वाले को ही तो भगवान माना गया है, शास्त्रों में। और यहाँ भगवान खुद रो रहे ! ऐसे भगवान का क्या करें ? किन्तु 'रोदन तो ठाना। जब एक सामान्य मानव बालक की भांति कौशल्या की गोद में प्रभु रो रहे हैं, तब यह रस लेने एवं रस देने की लीला आरम्भ हुई। कला रोने से शुरू हुई और चार भाग बने उसके आस्वादन के; दास्य, वात्सल्य, सख्य तथा माधुर्य। गुरु सेवा की है। वात्सल्य भाव में सुख देने के लिए ठुमक चले हैं अजर बिहारी। सुग्रीव, विभीषण से मित्रता का वह मानक स्थापित किया, जिसका कोई ठिकाना नहीं है और माधुर्य रस की अनुभूति के लिए दोष मढ़ा गया मंथरा के सिर पर। इच्छा इनकी थी वन में जाने की। क्यों जाने की इच्छा थी ? महाप्राण निराला ने ही इस रहस्य को खोला- 'न खेल पाती थी मैं यह खुला खेल' ! महलों में कहाँ खुला खेल खेलेंगे ? वहाँ तो 'बा अदव, मुलाहिजा, होशियार रघुनन्दन पधार रहे हैं !' तो इसमें माधुर्य का जो जादू है, सब गया हवा में। मधुर रस के आस्वादनार्थ वन गए। इनका स्वरूप ही है वनबिहारी का। जब प्रकट हुए 'भये प्रकट कृपाला दीनदयाला' और आभूषण क्या है ? 'भूषण वनमाला'। स्वभावतः ये वन बिहारी हैं, आनन्दबिहारी हैं, अवध बिहारी नहीं हैं। अवध को छोड़कर चल दिए और चित्रकूट में जाकर माधुर्य का वह आनन्द लिए कि बेचारे जयन्त को अंधा होना पड़ा, काना होना पड़ा। हमारे सूरदास जी ने देखा, तुलसीदास जी भी देख पाए। चित्रकूट के घाट पै भई संतन की भीर। क्या कर रहे हमारे राम। तिलक देत रघुवीर। हमारे सूरदास जी ने देख लिया। 'मुख मुख जोड़ तिलक की करनी'। राघवेन्द्र सरकार प्रिया जू को तिलक लगाते हैं। तुलसीदास ने जो चंदन घिसा है, उसे पहले प्रिया जी को लगाते हैं। प्रिया जी कहती हैं कि आप पहले धारण नहीं करेंगे ?
बोले नहीं। प्रिया जी के पास जाते हैं और मस्तक से मस्तक, नासिका से नासिका सटाकर प्रिया जी के तिलक की छाप अपने माथे पर लेते हैं। माधुर्य की पराकाष्ठा चित्रकूट में। 14 वर्ष के वनवास के कारण हम विलाप करते हैं, किन्तु साढ़े बारह वर्ष तो चित्रकूट विहार में काटी है। हम झूठे राम के लिए आँसू बहाते हैं। 'चित्रकूट बसि राम लखन सिय, आनंद अवधि अवध बिसराई'। तीनों ये भूल गए कि हम अयोध्यावासी हैं। इसके आगे महाप्राण बताते हैं; पंचवटी का राज। पंचवटी में संयोग के पश्चात माधुर्य का दूसरा किनारा वियोग देखने प्रिया और प्रियतम आगे बढ़ते हैं और दोष मढ़ दिया रावण पर।
राम की लीला अमूर्त तत्त्व को मूर्त करती है। अजन्मा जन्म लेता है। उसके हेतु अनेका तथापि प्रेम ते प्रकट भए हम जाना। मूल हेतु राम का प्रेमी ही है। बस केवल प्रेम का स्वाद लेने व देने हरि आए हैं। 'जानत प्रीति रीति रघुराई'। एक ही क्षण में दो लोगों के प्राण जाने थे, एक पिता, दूसरे जटायु। श्रीराम ने निर्णय किया कि भक्त को गोदी दूँगा, पिता को नहीं। इसलिए निर्दयी राम हैं समाज के लिए, किन्तु भक्तों के लिए 'वज्रादपिकठोर' भी कुसुम से भी कोमल हैं। सुग्रीव की पत्नी की चिन्ता में सीता महारानी की चिन्ता ही छोड़ दी, 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास'। मित्रता की रक्षा कैसे राम ने की है।
सबरी को पा के क्या कहते हैं-
नवधा भगति कहउँ तोड़ पायी।
वाल्मीकि या भारद्वाज जैसे ऋषियों को यह शास्त्र न देकर राम ने अपने प्रेम के शास्त्र को लोक के हृदय में डाल दिया। अद्भुत घटना है श्रीमद्भागवत कहती है कि भगवत के जो वाक्य हैं, वाणी हैं वही शास्त्र हैं, बचश्च शास्त्रम्। शास्त्र कहीं अलग से बन के नहीं आते। अगर उन्हीं नवधा भक्ति का एकत्र प्रकाश मिलता है, राम के अनुसार, मात्र शबरी में। अन्यत्र एक, दो, चार लक्षण प्रकाशित हो सकते हैं, किन्तु नौ के नौ मात्र शबरी में प्रकाशित हैं। दूसरी बात, यहाँ बात भक्ति, प्रेम व सेवा की है। उसकी अधिकारी मात्र नारी है। राम अपने शास्त्र का अधिकारी एक नारी को समझते हैं, पुरुष को नहीं समझते थे। यह राम का नारी विमर्श है और अद्भुत है, इतना उन्मुक्त सम्बन्ध है शबरी के साथ कि अल्प मिलन में शबरी को 4 बार भामिनी कहते हैं। कौन? मर्यादा पुरुषोत्तम !!
राम अनन्त, रामलीला अनन्ता। पंथ निरपेक्षता का जो सन्दर्भ है आज हमारी संस्कृति में, उसकी व्याख्या, उसका खण्डन व मण्डन करने में पूरा देश ओवर टाइम लगा हुआ है। धर्म निरपेक्षता कहिए, पंथ निरपेक्षता कहिए वह है तो रामत्व का एक महत्वपूर्ण आयाम ही। क्यों ? क्योंकि कबीर और रैदास का भी रामत्व है। उसे हम नकार नहीं सकते। उसको छोड़ के राम, राम की कला एवं रामलीला की बात हम नहीं कर सकते।
राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविकल अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह।।
यह भी रामरस की धारा है और वह रामत्व ही गाँधी के राम में विकसित हुआ। गाँधी का जो रामत्व है, वह इन्हीं संतों की वेदी पर खड़ा है। कुछ अनोखी घटनाएँ भी होती हैं, रामत्व के साथ। औरंगजेब जब दक्षिण में अपनी
कला और संस्कृति में श्रीराम :: 34
आखरी लड़ाई लड़ रहा होता है, उस बीच में चित्रकूट आता है। वहाँ कई महीने रहता है। क्या कर रहा है? चित्रकूट में वहाँ एक राम मंदिर बनवाता है। मंदिर को ग्राम दान करता है। वह काशी में विश्वनाथ मंदिर तोड़ चुका है। मथुरा में कृष्ण मंदिर तोड़ चुका है, और भी अनेक मंदिर तोड़ चुका है और मरने वाला है, मरने के पहले वह राम मंदिर बना रहा है।
जैसे इतिहास की गति विलक्षण है, वैसे ही राम की लीला भी विलक्षण है। राम का जो स्वरूप है, वो ज्ञान गिरागोतीत है, जिसे बाबा तुलसीदास स्थापना देते हैं कि जो अविगत, अकथ, अपार है, सोइ सच्चिदानन्द घन करत चरित उदार। जिसको हम अविगत, अपार, नेति नेति कह रहे हैं, वहीं भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप, उन्होंने किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप'।
राम मानव जीवन जीने में सहायक जितने भी कलाएँ हैं, उन सबके भी आदिगुरु हैं। रामत्व का, रामरस का प्रथम कलाकार तथा आदिगुरु कौन है? स्वयं श्री राम।
नाम ललित लीला ललित ललित रूप रघुनाथ।
ललित वसन, भूषण ललित ललित अनुज शिशु साथ ॥
भगवान का होना ही लीला होना है। भगवान अपने अस्तित्व से जाना जाता है। अपने अस्तित्व से ही करता है, उसका होना ही सब कुछ करता है। जिसका सब कुछ ललित है और ललित ही सौन्दर्य की आत्मा है। कला हमको जो दे सकती है वो लालित्य दे सकती है। उससे ऊपर कुछ नहीं। आनन्द अनुभूति व रसानुभूति के विग्रह जो हैं, वो राम हैं अर्थात् हमारी जितनी कलाएँ हैं, उन कलाओं की विषयवस्तु भी राम हैं, कला के प्रेरक व उद्गम राम ही हैं। वही कलाकार हैं, क्योंकि यदि वो कला करके न दिखाएँ तो क्या हमारे बस में है कि हम गा सकें? नाट्य कर सकें? या अभिनय कर लें?
कला और संस्कृति में:35
नहीं कर सकते। ये पूरा जो अयोध्या से लेकर लंका तक, पुनः वापसी साकेत तक जो राम का चरित्र है, यह सब रामलीला है। साहित्य, संगीत, प्रदर्श, मूर्तिकला, स्थापत्य, नाट्य इन सबमें तब राम रस का विस्फोट होता है, जब राम रस का विस्फोट होता है, तब ये सब कलाएँ विधाएँ प्रकट होती हैं, तो लोक से शास्त्र तक सब रामरस में भीग जाता है, एकाकार हो जाता है और उसी रस से हम और आप दो दिनों से भीग रहे हैं।
(ग्लोबल इन साइक्लोपीडिया ऑफ रामायण संगोष्ठी में लेखक द्वारा दिया गया समापन वक्तव्य ।कला व संस्कृति में श्रीराम पुस्तक से साभार। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है। )