भिखारी ठाकुर: हजामत बनाने वाला नाई इस तरह बन गया नाच का उस्ताद
अपने एक गीत के माध्यम से खुद भिखारी ठाकुर ने बताया है कि उन्होंने नौ साल की उम्र में स्कूल जाना शुरू किया मगर एक साल तक स्कूल जाने के बाद भी उन्हें अक्षर का ज्ञान नहीं हो सका। तब वह अपने घर की गाय को चराने का काम करने लगे।
लखनऊ: भोजपुरी संस्कृति को सामाजिक सरोकारों के साथ पिरोने वाले भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता है। छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में आज ही के दिन पैदा होने वाले भिखारी ठाकुर समर्थ लोक कलाकार होने के साथ ही रंगकर्मी, नारी और दलित विमर्श के उद्घोषक, लोकगीत व भजन-कीर्तन के अनन्य साधक व लोक जागरण के सही मायने में संदेशवाहक थे। उन्होंने उस्तरे से हजामत बनाने वाले नाई से नाच के उस्ताद तक का सफर तय किया था।
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माहौल न होने पर भी हासिल की महारत
सामान्य नाई परिवार में पैदा होने वाले भिखारी ठाकुर के पिता का नाम दलसिंगर ठाकुर और मां का नाम शिवकली देवी था। अन्य नई परिवारों की तरह भिखारी ठाकुर का पूरा परिवार भी जजमानी व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले काम जैसे कि हजामत बनाना, शादी विवाह, जन्म, श्राद्ध और अन्य अनुष्ठान कराना और दूसरों के घर जाकर न्योता देना आदि किया करता था।
परिवार में दूर-दूर तक गीत, संगीत, नृत्य व नाटक आदि का कोई माहौल नहीं था मगर बाद के जीवन में भिखारी ठाकुर ने इन सभी विधाओं में गजब की महारत हासिल की।
गांव के लड़के की मदद से अक्षर ज्ञान
अपने एक गीत के माध्यम से खुद भिखारी ठाकुर ने बताया है कि उन्होंने नौ साल की उम्र में स्कूल जाना शुरू किया मगर एक साल तक स्कूल जाने के बाद भी उन्हें अक्षर का ज्ञान नहीं हो सका। तब वह अपने घर की गाय को चराने का काम करने लगे।
धीरे-धीरे उन्होंने अपने परिवार के जातिगत पेशे के काम यानी हजामत बनाने का काम भी शुरू कर दिया। हजामत बनाने का काम शुरू करने के बाद उन्हें फिर पढ़ने लिखने की इच्छा जगी। तब गांव के ही भगवान साह नामक एक लड़के ने उनकी मदद की। भगवान की मदद से उन्हें अक्षर का ज्ञान हो गया। इसी बीच उनकी शादी भी हो गई और वे हजामत के जरिए रोजी-रोटी कमाने के लिए बंगाल के खड़गपुर चले गए।
30 साल की उम्र में बनाई नाच मंडली
कुछ समय बाद वे बंगाल में ही मेदिनीपुर पहुंचे और वहां उन्होंने रामलीला देखी। कुछ समय तक वहां रहने के बाद वे बंगाल से वापस अपने गांव पहुंचे और गीत-कवित्त आदि सुनने लगे। गीत-कवित्त सुनकर वे लोगों से इसका अर्थ पूछा करते थे और फिर धीरे-धीरे उन्होंने खुद गीत, कविता, दोहा और छंद आदि लिखना शुरू कर दिया।
गांव के लोगों को इकट्ठा करके उन्होंने एक बार रामलीला का मंचन भी किया। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी नाच मंडली बना ली। हालांकि उनके माता-पिता उनकी नाच मंडली को लेकर खासे नाराज रहा करते थे। वे अपने माता-पिता से छिपकर नाच में जाते थे तथा वहां कलाकारी दिखाकर पैसे कमाया करते थे।
नाटकों के जरिए कुरीतियों पर चोट
भिखारी ठाकुर की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे समाज को लेकर काफी जागरूक थे और समाज में फैली कुरीतियों पर उनकी हमेशा पैनी नजर रहती थी। अपने नाटकों के जरिए इन कुरीतियों पर चोट करना वे कभी नहीं भूलते थे।
इसके साथ ही समाज में प्रचलित गीत, नृत्य और नाटक की विधा की भी उन्हें अच्छी समझ थी और इसी समझ के बल पर वे धीरे-धीरे काफी लोकप्रिय हो गए।
भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी संस्कृति को सामाजिक सरोकारों के साथ पिरोया और उसे एक अलग तरह की अभिव्यक्ति दी। उनकी अलग तरह की यह अभिव्यक्ति ही भिखारी शैली के रूप में जाने जाने लगी। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने वाले भिखारी ठाकुर के नाटकों की गूंज अभी भी सुनाई देती है।
इन नाटकों ने दिलाई लोकप्रियता
भिखारी ठाकुर का व्यक्तित्व अलग ही माटी का बना था। मात्र अक्षर ज्ञान होने के बावजूद उन्हें पूरी रामचरितमानस कंठस्थ थी। भिखारी ठाकुर के नाटक बिदेशिया, बेटी वियोग उर्फ बेटी बेचवा, गंगा स्नान, कलयुग प्रेम उर्फ पिया नसइल, गबरघिचोर, बिरहा बहार, पुत्र वध, ननद-भौजाई आदि ने खूब लोकप्रियता बटोरी। उनके सभी नाटकों में बदलाव को दिशा देने वाले सामाजिक चिंतन की व्यथा साफ तौर पर दिखाई देती है।
काफी लोकप्रिय हुई फिल्म बिदेशिया
भिखारी ठाकुर के अभिनय और निर्देशन में बनी भोजपुरी फिल्म बिदेशिया भोजपुरी दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई। फिल्म बिदेशिया की ये दो पंक्तियां भोजपुरी अंचल में रहने वाले लगभग सभी पुराने लोगों के दिलों दिमाग में आज भी जिंदा हैं-
हंसी हंसी पनवा खीऔले बेइमनवा कि अपना बसे रे परदेस। कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गइले, मारी रे करेजवा में ठेस।
नाटक से फिल्म का लेना-देना नहीं
बिदेशिया फिल्म 1963 में रिलीज हुई थी। भिखारी ठाकुर के नाम का असर बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ ही बंगाल व असम सहित देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले भोजपुरिया समाज के बीच खूब था। भिखारी ठाकुर के नाम पर यह फिल्म तो खूब चली, लेकिन जिन लोगों ने पहले बिदेशिया नाटक देखा था, उन्हें जरूर निराशा हुई क्योंकि फिल्म की कहानी का बिदेशिया नाटक की कहानी से कोई लेना-देना नहीं था।
निधन के बाद भी सक्रिय रही नाच मंडली
अपनी कला से भोजपुरी समाज को सम्मोहित करने वाले भिखारी ठाकुर का 1971 में निधन हो गया। वैसे उनके निधन के बाद भी उनकी नाच मंडली चलती रही। उनके परिवार एवं रिश्तेदारों ने उनके नाच को कई वर्षों तक चलाया परंतु धीरे-धीरे यह दल बिखर गया।
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भिखारी ठाकुर को मिले कई सम्मान
29 पुस्तकें लिखने वाले भिखारी ठाकुर को कोई भरतमुनि की परंपरा का पहला नाटककार मानता है तो कोई उन्हें भोजपुरी का भारतेंदु हरिश्चंद्र कहता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर बताया था। अपने जीवनकाल में भिखारी ठाकुर को कई उपाधियां और सम्मान मिले। उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। भोजपुरी समाज में आज भी उनका नाम काफी आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है।
रिपोर्ट- अंशुमान तिवारी
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