जन्म दिन विशेष: ‘कल सुनना मुझे’, सुदामा पांडे का प्रजातंत्र- ‘धूमिल’

ये कविता वाराणसी के रहने वाले सुदामा पांडे ,धूमिल की हैं । हिंदी साहित्य जगत के यंग्री यंगमैन कहे जाने वाले धूमिल ने ही लिखा था कि तिरंगा तीन थके रंगों का नाम है जिसे एक पहिया ढोता है ।

Update: 2017-11-09 09:35 GMT
जन्म दिन विशेष: ‘कल सुनना मुझे’, सुदामा पांडे का प्रजातंत्र- ‘धूमिल’

विनोद कपूर

एक आदमी रोटी बेलता है

दूसरा रोटी खाता है ,

एक तीसरा आदमी भी है ,

जो न रोटी बेलता है न खाता है

बल्कि रोटियों से खेलता है ,

बताईए ये तीसरा आदमी कौन है

हमारे देश की संसद मौन है ।

ये कविता वाराणसी के रहने वाले सुदामा पांडे ,धूमिल की हैं । हिंदी साहित्य जगत के एंग्री यंगमैन कहे जाने वाले धूमिल ने ही लिखा था कि तिरंगा तीन थके रंगों का नाम है जिसे एक पहिया ढोता है । जनता के प्रायः सारे जरूरी सवालों पर मौन साधे रहने वाली संसद पर अपने खास तरह के तंजों के लिए मशहूर धूमिल ने करीब चार दशक पहले यह सवाल पूछा था । कौन कह सकता है कि उनके दिलोदिमाग में सामंतों, पेशेवर राजनीतिज्ञों और धर्म के नाम पर गर्दन काट लेने वाले इस देश के लोकतंत्र को झकझोर देने वाली हरकतों के अंदेशे नहीं थे, जिनके आज हम सब भुक्तभोगी हैं?

आम आदमी की विवशता और उच्च मध्यवर्गों के लगभग आपराधिक चरित्रों को पहचान लेने वाले धूमिल का जन्म 9 नवम्बर 1936 को यूपी के वाराणसी में हुआ था ।

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उन्होंने ठीक से होश भी नहीं संभाला था कि पिता की मौत के बाद उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी।

इतना ही नहीं, 13 साल के होते-होते उनकी शादी कर दी गई और अपनी जिम्मेदारियां निभाने के लिए उन्होंने एक औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र से बिजली संबंधी कामों का डिप्लोमा किया और उसी में अनुदेशक नियुक्त हो गये। नौकरी मिली तो उसके चक्कर में उन्हें सीतापुर, बलिया और सहारनपुर आदि में रहना पडा लेकिन उनका मन तो बनारस में रमता था ।

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उनका रहन सहन इतना साधारण था कि ब्रेन ट्यूमर के शिकार होकर 10 फरवरी, 1975 को जब वो मौत से हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे।

वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह बताते हैं कि औपचारिक उच्च शिक्षा से महरूम धूमिल बाद में कविता सीखने व समझने की बेचैनी से ऐसे ‘पीड़ित’ हुए कि जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। उन्होंने कई शब्दकोशों की मदद से अंग्रेजी भी सीखी, ताकि उसकी कविताएं भी पढ़ व समझ सकें।

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विधिवत अध्ययन की कमी को उन्होंने जीवन भर झेला और कई जगह इसका जिक्र भी किया ।

खाये-पिये और अघाये लोगों की ‘क्रांतिकारी’ बौद्धिक जुगालियों में गहरा अविश्वास व्यक्त करने में उन्होंने ‘सामान्यीकरण’ और ‘दिशाहीन अंधे गुस्से की पैरोकारी’ जैसे गंभीर आरोप भी झेले।

उनका विश्वास था कि कुछ सस्ती और हल्की सुविधाओं के लालची लोग एक दिन खत्म हो जायेंगे और इसी विश्वास के बल से उन्होंने ‘अराजक’ होना भी कुबूल किया ।

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धूमिल ने अपना छायावादी अर्थ वाला उपनाम क्यों रखा, इसकी भी एक दिलचस्प कथा है।

बनारस में उनके समकालीन एक और कवि थे- सुदामा तिवारी। वेे अभी भी हैं और सांड बनारसी उपनाम से हास्य कविताएं लिखते हैं। धूमिल नहीं चाहते थे कि नाम की समानता के कारण कन्फ्यूजन हो। इसलिए उन्होंने अपने लिए उपनाम की तलाश शुरू की और चूंकि कविता के संस्कार उन्हें छायावाद के आधार स्तंभों में से एक जयशंकर ‘प्रसाद’ के घराने से मिले थे, जिससे उनके पुश्तैनी रिश्ते थे, लिहाजा तलाश ‘धूमिल’ पर ही खत्म हुई।

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धूमिल के जीवित रहते 1972 में उनका सिर्फ एक कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था- संसद से सड़क तक। संसद से सडक तक ने सभी को चौंकाया । खासकर साहित्य के शौकीन युवा पढने वालों को । ‘कल सुनना मुझे’ उनके निधन के कई बरस बाद छपा। उस पर 1979 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया। बाद में उनके बेटे की कोशिशों से उनका एक और संग्रह छपा- सुदामा पांडे का प्रजातंत्र ।

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