EC Controversy: चुनाव आयोग को लेकर पहले भी हुए हैं कई विवाद
EC Controversy: जबसे चुनाव आयोग बहुसदस्यीय बना है तबसे कोई न कोई विवाद होता आया है। कई विवाद सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुँच चुके हैं।
EC Controversy: चुनाव आयोग में अरुण गोयल की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़े सवालात खड़े कर दिए हैं। लेकिन चुनाव योग के बारे में ये कोई पहला विवाद नहीं है। पहले भी ऐसे कई विवाद सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुँच चुके हैं, खास कर जबसे चुनाव आयोग बहुसदस्यीय बनाया गया है।
दरअसल, जबसे चुनाव आयोग बहुसदस्यीय बना है तबसे कोई न कोई विवाद होता आया है। चुनाव आयोग 1950 से 15 अक्तूबर, 1989 तक एक सदस्यीय था लेकिन वीपी सिंह सरकार ने 16 अक्तूबर, 1989 को पहली बार एक अधिसूचना के जरिये इसे बहुसदस्यीय बना दिया। इस अधिसूचना के अंतर्गत मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री के साथ दो चुनाव आयुक्तों - एसएस धनोवा और वीएस सैगल की नियुक्ति की गयी थी। नयी व्यवस्था शुरू हो पाती इसके पहले ही राष्ट्रपति ने 1 नवंबर 1990 को इसे भंग कर दिया था।
इसके बाद टीएन शेषन देश के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर 12 दिसंबर 1990 को नियुक्त किये गए थे। शेषन भी एक रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट थे। उन्होंने पदभार ग्रहण करने के साथ ही आयोग के अधिकारों का इस्तेमाल सख्ती से करना शुरू कर दिया जिससे राजनीतिक दल परेशान हो उठे। नरसिंह राव सरकार ने शेषन यानी चुनाव आयुक्त की शक्तियों पर लगाम कसने के लिए आयोग को बहुसदस्यीय बनाने का रास्ता निकाल लिया। 1 अक्तूबर 1993 को अध्यादेश जारी करके आयोग को बहुसदस्यीय बना दिया गया। साथ ही एक जीवीजी कृष्णामूर्ति और मनोहर सिंह गिल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया।
अध्यादेश के माध्यम से मूल कानून चुनाव आयोग के कामकाज से संबंधित अध्याय में धारा नौ और 10 जोड़ी गई। इसमें प्रावधान था कि सारे कामकाज सर्वसम्मति से किये जाएंगे लेकिन किसी मामले में एकमत नहीं होने पर बहुमत की राय से फैसला किया जायेगा। इसके चलते आयोग में कामकाज और अधिकारों को लेकर घमासान होने लगा और मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के चेंबर में 11 अक्तूबर, 1993 को जीवीजी कृष्णामूर्ति के साथ उनकी तीखी नोंक-झोंक भी हुयी। यह मामला उच्चतम न्यायालय तक पहुँच गया। उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश एएम अहमदी की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस मामले में 14 जुलाई, 1995 को अपना फैसला सुनाया और 1991 के कानून में संशोधन करने संबंधी अध्यादेश और दो चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की अधिसूचना को वैध करार दिया।
कई विवाद
2014 के लोकसभा चुनावों के बाद चुनाव आयोग की भूमिका के खिलाफ विवादों की एक श्रृंखला शुरू हुई थी। यह सब तब शुरू हुआ जब आयोग ने राज्यों में चुनावों के अलग-अलग कार्यक्रमों की घोषणा की। ओडिशा सहित राज्यों में, जहां चुनाव दो चरणों में कराए जा सकते थे, आयोग ने चार चरणों में चुनाव कराने की घोषणा की।
वास्तव में लगभग उसी समय, चुनाव आयुक्तों के बीच अनबन की अफवाहें फैल रही थीं। खबरों के मुताबिक, आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मुद्दे पर मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा और चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के बीच स्पष्ट टकराव हुआ था। 2019 में चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में क्लीन चिट देने के मामले में असहमति व्यक्त की थी। आयोग ने इस बारे में बहुमत से निर्णय लिया था। लवासा ने इस पर आपत्ति करते हुये मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को पत्र लिखा जिसमें असहमति को भी फैसले में दर्ज कराने का अनुरोध किया था।
राष्ट्रपति को पत्र
2021 में, राष्ट्रपति को लिखे एक पत्र में रिटायर्ड अफसरों और राजनयिकों के एक समूह ने चुनाव आयोग के "कमजोर आचरण" पर अपनी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने उल्लेख किया कि यह संस्था विश्वसनीयता के संकट से पीड़ित है।
कोरोना की दूसरी लहर के दौरान, चुनाव आयोग कई न्यायिक आदेशों के बावजूद कोरोना सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन किए बिना राजनीतिक दलों को विधानसभा चुनाव रैलियां निकालने की अनुमति देने के लिए सवालों के घेरे में आ गया था। अप्रैल 2021 में मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी ने कहा था - आपकी संस्था कोरोना की दूसरी लहर के लिए एकमात्र जिम्मेदार है। मद्रास उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि चुनाव आयोग के अधिकारियों पर हत्या के आरोपों के तहत भी मामला दर्ज किया जाना चाहिए।
2017 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए मतदान कार्यक्रमों को अलग-अलग करने के आयोग के फैसले ने भी विवाद पैदा कर दिया था। उस समय मुख्या चुनाव आयुक्त एके जोती विवादों में आ गए थे। जोती 1975 बैच के गुजरात कैडर के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी थे और दिल्ली जाने से पहले गुजरात के मुख्य सचिव भी रह चुके थे। गैर भाजपा राजनीतिक दलों ने चुनाव की तारीखों में देरी करने के लिए उन पर पक्षपात का आरोप लगाया था।