जिनकी धर्म ध्वजा को देखकर ही उल्टे पांव लौटी मुगल थी मुगल सेना, जानिए पंचदशनाम आवाहन अखाड़े का इतिहास

Panchdashnam Aawahan Akhara : पंच दशनाम अखाड़े में कुशल प्रबंधन के चलते अलग अलग भूमिकाएं निभाने के लिए कई पद होते हैं और सभी के अलग-अलग कार्य और नियम होते हैं। जिसमें सबसे पहले श्री महंत, फिर अष्ट कौशल महंत जिसके उपरांत थानापति होते हैं, जिसमें दो पंच होते हैं।

Written By :  Jyotsna Singh
Update:2024-11-21 15:27 IST

जानिए पंचदशनाम आवाहन अखाड़े का इतिहास (Social media)

कुंभ स्नान के दौरान नागा पंचदशनाम आवाहन अखाड़े की पेशवाई का अलौकिक दृश्य देखते ही बनता है। जिसमें सबसे आगे लहराती धर्म ध्वजा के पीछे फूलों से सजे चांदी के रथ पर सवार श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़े के आराध्य देव भगवान गणेश की पालकी चलती है। जिसके पीछे नागा संन्यासी अपने अस्त्र शस्त्रों के साथ पेशवाई के बीच जगह-जगह रुककर युद्ध कौशल का भी प्रदर्शन कर लोगों को अपनी शस्त्र कला से अचंभित करते हैं। पेशवाई में मार्ग के दोनों ओर हजारों लोग साधु संतों का स्वागत फूल मालाओं से करने के लिए उत्साहित दिखाई देते हैं।

इस अखाड़े के नागा साधु अधर्म पर धर्म की जीत और राष्ट्र रक्षा के लिए हमेशा खुद को तैयार रखते हैं। शैव, वैष्णवों और उदासीन पंथ के संन्यासिनी के मान्यता के अनुसार कुल 13 अखाड़े हैं। इन अखाड़ों में शामिल संन्यासियों के बीच सिंहस्थ, कुंभ या अर्ध कुंभ का विशेष महत्व होता है। इन सभी अखाड़े के सदस्य महाकुंभ में अपनी परंपरा और प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं और दीक्षा ग्रहण करते हैं। यहां पर हम बात करेंगे उन सभी अखाड़ों में से एक शैव संप्रदाय के शम्भू पंचदशनाम आवाहन अखाड़े की जो सदैव कुंभ स्नान में अपनी परंपरा का निर्वहन करता आया है। जिसके महंत प्रेमपुरी महाराज हैं।

इस अखाड़े के संन्यासी भगवान श्रीगणेश व दत्तात्रेय को अपना इष्टदेव मानते हैं क्योंकि ये दोनों देवता आवाहन से ही प्रगट हुए थे। हरिद्वार में इनकी शाखा है। अखाड़े के थानापति के अनुसार प्राचीन और वर्तमान समय की परिस्थितियों में इस अखाड़े की स्थिति में बदलाव भी किया गया है। नागा संन्यासी आदि काल से चली आ रही अपनी मान्यताओं को निभाते हुए आज भी धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। साधु संन्यासियों के बीच आज भी आधुनिकता के लिए कोई जगह नहीं है। वर्तमान समय भौतिक वस्तुओं का सन्यासी जीवन के लिए कोई औचित्य नहीं है।

शंभू पंचदशनाम आवाहन अखाड़े का इतिहास और परंपरा

श्री शंभू पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा काशी के दशाश्वमेध घाट पर आज भी मौजूद है। यह अखाड़ा कई दशकों पुराना है। कहा जाता है कि इस अखाड़े की स्थापना सन 547 में हुई थी। लेकिन जदुनाथ सरकार इसे 1547 बताते हैं। पहले इससे आवाहन सरकार के नाम से जाना जाता था। जिसे छठवीं शताब्दी में धर्म की रक्षा और सनातन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए आदि शंकराचार्य के द्वारा स्थापित किया गया था। इस अखाड़े में संन्यासियों को धर्म की शिक्षा देने के साथ अस्त्र चलाने में भी पारंगत किया जाता है। इसके अलावा यह धर्म की रक्षा के साथ-साथ लोगों को धर्म के पथ पर चलने के लिए भी प्रेरित करता है। इस अखाड़े का उद्देश्य सदैव धर्म की रक्षा करना रहा है। वर्तमान समय में भी जहां विधर्म होगा, वहां नागा साधुओं का यह अखाड़ा अपने उद्देश्य के चलते मौजूद रहेगा। इस अखाड़े के नागा साधु हर परिस्थिति में धर्म की रक्षा करने के लिए तैयार रहते हैं। देश और धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने में जरा सी देर नहीं करते।

यह होती है इस अखाड़े की आंतरिक व्यवस्था

पंच दशनाम अखाड़े में कुशल प्रबंधन के चलते अलग अलग भूमिकाएं निभाने के लिए कई पद होते हैं और सभी के अलग-अलग कार्य और नियम होते हैं। जिसमें सबसे पहले श्री महंत, फिर अष्ट कौशल महंत जिसके उपरांत थानापति होते हैं, जिसमें दो पंच होते हैं। एक रमता पंच दूसरा शंभू पंच। इसके अलावा पांच सरदार जो भंडारी, कोतवाल ,कोठारी, कारोबारी और पुजारी महंत के तौर पर नियुक्त किए जाते हैं।जो अखाड़े की पूजा अर्चना और धार्मिक कार्यों को देखते हैं। अखाड़े की क्रिया प्रतिक्रिया में कोई बाधा न हो इसके लिए सभी सदस्य एकजुट होकर अपने - अपने कार्य करते हैं।

ये होते है पंच दशनाम अखाड़े के नियम

पंच दशनाम अखाड़े में शामिल होने के लिए सदस्य को सबसे पहले शुद्ध मन से गुरु की सेवा में लीन होना पड़ता है। उसे काम, क्रोध और लोभ जैसी कई बुराइयों का त्याग कर सिर्फ परमात्मा के ध्यान में लीन रहना पड़ता है। सबसे खास बात है कि नाग संन्यासी कभी भिक्षा नहीं मांगते हैं। जो श्रद्धालु उन्हें कुछ दान आदि देना चाहते हैं तो नागा साधु उसे अपनी स्वीकृति और उचित लगने के उपरांत ही स्वीकार करते हैं। वह अखाड़े में शामिल होकर अखाड़े और गुरु की सेवा करता है। नागा संन्यासी को बेहद कठिन मार्ग पर चलते हुए अस्त्र-शस्त्र की भी शिक्षा लेनी पड़ती है, जिसका वो समय के अनुसार प्रयोग करते हैं। जो अंत तक इस परंपरा पर टिका रहता है, वही अंत में नागा संन्यासी बनता है।

मुगलों को इन नागा साधुओं ने दी थी तगड़ी चुनौती

सन् 1664 में औरंगजेब की सेना ने जब काशी विश्वनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था तब उसे पंच दशनाम अखाड़े के नागाओं ने मिलकर मुंह तोड़ जवाब दिया था। इसे बैटल ऑफ ज्ञानवापी के नाम से भी जाना जाता है। सनातन धर्म को खत्म करने पर आमादा मुगल जब काबुल और बिलोचिस्तान की ओर से आक्रमण कर जोधपुर तक आ गए थे तब आक्रमणकारियों से उस समय नागाओं ने ही इस जगह को बचाया था। कहा जाता है कि उस समय सारे हिंदू मंदिर चुन चुन कर तोड़े जा रहे थे और साधु संतों के कत्लेआम का माहौल चारों ओर आम हो गया था। इसी के साथ मुस्लिम शासकों ने हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति पर भारी कर लगा दिया था। ऐसी स्थिति में मुगलों की क्रूरता से मुकाबला लेने के लिए नागा सन्यासियों ने जमकर सामना किया था। इसी के साथ 1666 ईस्वी के हरिद्वार कुंभ मेला के अवसर पर सम्राट और औरंगजेब के सैनिकों ने आक्रमण किया। जिनका मुकाबला नागा संन्यासियों के साथ मिलकर साधु-संतों ने टक्कर ली थी। इस लड़ाई में संतों की भारी संख्या और उनके पराक्रम और धर्म-ध्वजाएं देखकर मुगल सेना के मराठे भी संतों के साथ दल में मिल गए थे जिसके बाद औरंगजेब को भारी पराजय के साथ वापस लौटना पड़ा था।

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