पांच खरब का चुनाव
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ दिनों बाद होने वाले चुनाव की एक बड़ी खास बात यह है कि ये दुनिया के सबसे महंगे चुनाव होंगे। ११ अप्रैल से शुरू हो कर १९ मई तक चलने वाली चुनावी प्रक्रिया पर करीब ५ खरब रुपए (७ बिलियन डालर) की जबर्दस्त रकम खर्च होगी।
लखनऊ: विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ दिनों बाद होने वाले चुनाव की एक बड़ी खास बात यह है कि ये दुनिया के सबसे महंगे चुनाव होंगे। ११ अप्रैल से शुरू हो कर १९ मई तक चलने वाली चुनावी प्रक्रिया पर करीब ५ खरब रुपए (७ बिलियन डालर) की जबर्दस्त रकम खर्च होगी। इसकी तुलना में २०१६ में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर ६.५ बिलियन डालर ही खर्च हुए थे।
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सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के आंकड़ों के अनुसार भारत में इस बार का चुनावी खर्च २०१४ के लोकसभा चुनावों की तुलना में ४० फीसदी बढऩे की संभावना है। इस बार करीब ५ खरब रुपए चुनाव संबंधी गतिविधियों पर खर्च होंगे और जनसंख्या के हिसाब से यह रकम प्रति व्यक्ति करीब ५६० रुपए पड़ेगी। चुनावी खर्च का एक बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया के इस्तेमाल, ट्रैवल और विज्ञापनों पर जाएगा। इस बार सोशल मीडिया पर ही ५ हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है जबकि २०१४ में इस पर ढाई सौ करोड़ रुपए खर्च हुए थे। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने अपनी रिसर्च में यह अनुमान निकाला है। यह रिसर्च लोगों से बातचीत, सरकारी आंकड़े, चुनाव संबंधी ठेकों, ट्रांसपोर्ट के साधनों के इस्तेमाल आदि के आधार पर किया गया है।
टीवी व अखबारों में विज्ञापनों के स्लॉट बुक करने वाली एक कंपनी के अनुसार इस चुनाव में विज्ञापनों पर २६ अरब रुपए खर्च होने का अनुमान है। चुनाव आयोग के अनुमान के अनुसार, २०१४ में भाजपा और कांग्रेस का विज्ञापनों पर कुल खर्च करीब १२ अरब रुपए का था। यानी इस बार यह खर्च दोगुना होने की संभावना है।
सोशल मीडिया तय करेगा नतीजा
फेसबुक पर या आप जिन वाट्सअप ग्रुप से जुड़े हैं उनमें रोजाना खासकर कांग्रेस और भाजपा के पक्ष या विरोध वाले ढेरों पोस्ट आप जरूर देखते होंगे। तरह तरह के राजनीतिक कमेंट, रिएक्शन, वीडियो, फोटो वगैरह आते रहते हैं। यह सब कंटेंट एक रणनीति के तहत तय चैनल के जरिए आप तक पहुंचाया जाता है। कंटेंट भी क्षेत्र के हिसाब से जनता के बीच परोसा जाता है।
भारतीय चुनावी परिदृश्य में सोशल मीडिया ने पिछले आम चुनाव में धमाकेदार इंट्री की थी। २०१४ से अब तक काफी कुछ बदल भी चुका है। ५ साल पहले का सोशल मीडिया चुनावी प्रचार आज नेटवक्र्स का जटिल मकडज़ाल बन चुका है जिसमें सबसे निचले स्तर पर हैं बूथ लेटल वालंटियर्स जिनको कंटेट जनरेट करने व 'ऊपरÓ से मिलने वाली सामग्री को अपने निजी कांन्टैक्ट्स व अपने आस पास के लोगों में सर्कुलेट करने का निर्देश होता है। यह सर्कुलेशन बहुत कुछ वाट्सअप पर होता है। वाट्सअप ने भारत में २०१६ में तेजी पकड़ी है और आज भारत में हर महीने २० करोड़ लोग इसका प्रयोग करते हैं। इसी वजह से फेसबुक की तुलना में राजनीतिक दल वाट्सअप का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं।
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इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई) के अनुसार पिछले आम चुनाव के बाद से देश में इंटरनेट बेस दोगुना होकर ५० करोड़ यूजर तक पहुंच गया है। आज शहरी इंटरनेट यूजर्स की तादाद (३० करोड़) २०१४ के कुल इंटरनेट यूजर्स (२० करोड़) से कहीं आगे निकल गई है। इसका मतलब यह है कि इंटरनेट पर राजनीतिक संदेशों को अब देश की आधी जनसंख्या तक सीधे पहुंचाया जा सकता है।
राजनीति में सोशल मीडिया की भूमिका व्यापक तो हुई है लेकिन इसे चुनावी जीत की गारंटी भी नहीं माना जा सकता। वजह है कि २०१८ में देश की ४० फीसदी से कम जनसंख्या इंटरनेट से जुड़ी हुई थी और इनमें भी महिलाओं की भागीदारी मात्र ३० फीसदी थी।
बहरहाल, इंटरनेट और विशेषतौर पर सोशल मीडिया के राजनीतिक इस्तेमाल में खूब पैसा खर्च किया जा रहा है। फेसबुक के विज्ञापन पोर्टल के अनुसार इस वर्ष २४ फरवरी से ९ मार्च के बीच भारतीयों ने फेसबुक पर राजनीतिक विज्ञापनों पर १० करोड़ रुपए खर्च किए।
जहां तक राजनीतिक दलों के प्रचार की बात है तो सोशल मीडिया पर ऑफीशियल और अनऑफीशियल दोनों तरह के चैनलों का इस्तेमाल किया जा रहा है और दोनों के बीच फर्क कर पाना भी मुश्किल है।
बहरहाल, देश की दो बड़ी पार्टियों - भाजपा और कांग्रेस की बात करें तो दोनों ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल के लिए खासा उपक्रम कर रखा है। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए दोनों दलों का लगभग एक जैसा सांगठनिक ढांचा है जिसमें बूथ लेवल ग्रुपों से होते हुए लोगों तक राजनीतिक कंटेट पहुंचाया जाता है। भाजपा की सेंट्रल टीम को चलाते हैं पार्टी के आईटी सेल के अगुवा अमिल मालवीय। जबकि कांग्रेस के सोशल मीडयिा हेड हैं दिव्य स्पंदन।
भाजपा के करीब १२ लाख सोशल मीडिया वालंटियर्स पार्टी के संग पंजीकृत हैं जिनके जरिए पार्टी अपने समर्थकों और मतदाताओं के संपर्क में है। वहीं कांग्रेस के करीब ३० हजार सोशल मीडिया पदाधिकारियों के अलावा ८ लाख सोशल मीडिया वालंटियर्स हैं। कांग्रेस की केंद्रीय टीम में जहां २०१४ में ४० लोग थे वहीं आज १५० लोग हैं। पार्टी ने विदेशों में भी सोशल मीडिया कार्यकर्ता नियुक्त कर रखे हैं।
दोनों पार्टियों की सेंट्रल टीमों से कंटेंट व रणनीति राज्यों के सोशल मीडिया प्रमुखों द्वारा संचालित वाट्सअप ग्रुप्स में भेजी जाती है। वहां से यह निर्वाचन क्षेत्र स्तर के कोआर्डिनेटरों या संयोजकों के ग्रुप्स में जाती है। इसी तरह आगे बढ़ते-बढ़ते यह सामग्री जिलों और बूथों तक पहुंचती है। इस लेवल पर जुड़े लोग तमाम निजी ग्रुप्स के सदस्य होते हैं और ऊपर से आई सामग्री को इन ग्रुप्स में पोस्ट या फारवर्ड करते रहते हैं। ऊपरी लेवल की टीमों से जुड़े ज्यादातर लोगों में टेलीकॉम और सॉफ्टवेयर कंपनियों में काम करने वाले प्रोफेशनल्स हैं। ये सभी अलग अलग ग्रुप्स के एडमिन हैं। सोशल मीडिया पर कितना बड़ा नेटवर्क फैला है इसका एक उदाहरण है भाजपा का पश्चिम यूपी का नेटवर्क जहां करीब डेढ़ लाख वाट्सअप ग्रुप किसी न किसी तरह टॉप लेवल से जुड़े हुए हैं।
दोनों तरफ से फ्लो होता है कंटेंट
राजनीतिक कंटेंट सिर्फ ऊपर से नीचे की ओर नहीं बल्कि नीचे से ऊपर की ओर भी फ्लो करता है। बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं से प्राप्त तमाम कंटेंट को सेंट्रल टीमें भी वायरल करती हैं। कंटेंट के बहाव पर पार्टियां वाट्सअप पर इतना निर्भर हैं कि जब वाट्सअप ने फारवर्ड मैसजों की संख्या ५ तक सीमित कर दी तो पार्टियों के सोशल मीडिया प्रकोष्ठïों को अपनी संरचना में तत्काल बदलाव करने पड़े। इन बदलावों में ज्यादा बूथ लेवल कार्यकर्ताओं को जोडऩा, मोबाइल फोनों की तादाद या इंटरनेशनल सिम की तादाद बढ़ाना शामिल था। कई राजनीतिक दल इंस्टाग्राम का भी खूब इस्तेमाल कर रहे हैं। इस प्लेटफार्म पर चूंकि युवा और शिक्षित वोटरों की संख्या ज्यादा है सो उस हिसाब से पोस्ट डाली जाती हैं। आंध्र की टीडीपी और आईएसआरसीपी ने इंस्टाग्राम पर अपने पेज बना रखे हैं। आजकल राजनीतिक 'मीम्सÓ का चलना तेजी से बढ़ा है।
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बंगाल में आज भी वाल राइटिंग का बोलबाला
चुनावों में सोशल मीडिया का दबदबा तो है लेकिन कई राज्यों में आज भी पारंपरिक तरीकों का चलन कायम है। इन तरीकों में डोर-टू-डोर प्रचार और वाल राइटिंग शामिल है। जहां तक वाल राइटिंग की बात है तो पश्चिम बंगाल इसमें सबसे आगे है। वहां दशकों पहले कम्यूनिस्टों ने दीवारों पर अपने एजेंडा लिखने की परंपरा डाली थी। अब तो सभी राजनीतिक दल दीवारों पर नारे लिखवाने के अलावा अपने नेताओं की सुंदर चित्रकारी करवाते हैं।