जौनपुर, रंवाई, जौनसार जहां एक महीने बाद मनाई जाती है दिवाली

Update:2017-11-24 13:52 IST

ब्यूरो

देहरादून। देश भर में मनाई जाने वाली दीपावली के एक महीने बाद पहाड़ों में एक और दिवाली मनाई जाती है। इस साल भी जौनपुर, रंवाई, जौनसार सहित पूरे पहाड़ में यह बग्वाल धूमधाम से मनाई गई।

बीते १९ नवंबर को जौनपुर के बग्वाल में रात भर ढोल नगाड़ों की थाप पर लोगों ने लोक दीवापली मनाई। मसूरी शहर के आसपास के जौनपुर के गांवों में बग्वाल पर्व को लेकर लोगों में बड़ा उत्साह देखने को मिला। बग्वाल में पहाड़ में पाई जाने वाली खास किस्म की बावला घास की एक रस्सी ढोल नगाड़ों के साथ बनाई जाती है।

इस रस्सी को नागदेवता के रूप में पूजा जाता है। रस्सी की पूजा के बाद ग्रामीण इस रस्सी को सार्वजनिक चौक पर दो गुटों में बंटकर अपनी और खींचने का प्रयास करते हैं। हर साल की तरह बग्वाल पर्व को देखने बड़ी संख्या मे देसी-विदेशी सैलानी भी जौनपुर के गांवों में पहुंचे। बग्वाल पर गांव के सभी लोग पूरी रात गांव में नाच-गाकर खुशी मनाते हैं। साथ ही ढोल नगाड़ों की थाप पर गांव में महिलाएं, युवा पूरे जोशो-खरोश के साथ लोक गीतों पर नृत्य करते हैं। खास बात यह है कि क्षेत्र के लोग देश में कहीं भी रहें, लेकिन अपने लोक पर्वों को मनाने के लिए साल में ज़रूर गांव आते हैं। उत्तरकाशी में तो इस परंपरा को विस्तार देकर अब दो दिन का कर दिया गया है।

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इस बार शनिवार-रविवार को मंगसीर की बग्वाल धूमधाम के साथ मनाई गई। ढोल-दमाऊ के साथ बाजार में पारंपरिक परिधि में रासौं नृत्य करती महिलाएं तो आजाद मैदान में देर रात तक लोग भैलू नृत्य करते रहे। कंडार देवता मंदिर से स्थानीय गण-वेश पहने महिलाओं ने रासौ तांदी नृत्य करते हुए झांकी निकाली। इस झांकी में वीर माधो सिंह भंडारी घोड़े पर सवार सबसे आगे रहते हैं।

मंगसीर बग्वाल का इतिहास

उत्तरकाशी में मंगसीर माह में मनाई जाने वाले इस त्योहार के पीछे जो कहानियां प्रचलित हैं। उसके मुताबिक सन 1627-28 के बीच गढ़वाल नरेश महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं में घुसकर लूटपाट किया करते थे। तब राजा माधो सिंह भंडारी और लोदी रिखोल के नेतृत्व में चमोली के पैनखंडा और उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र में सेना भेजी गयी थी। सेना विजय करते हुए दावघाट (तिब्ब्त) तक पहुंच गई। ऐसे में कार्तिक मास की बग्वाल के लिए माधो सिंह भंडारी घर नहीं पहुंच पाए। उन्होंने घर पर संदेश भिजवाया कि जब वे जीतकर लौटेंगे, तब ही बग्वाल मनाई जाएगी।

युद्ध के बीच में ही एक माह बाद माधो सिंह अपने गांव मलेथा पहुंचे। तब उत्सवपूर्वक बग्वाल मनाई गई। तब से गढ़वाल में मंगसीर की बग्वाल मनाने की परंपरा शुरू हो गई। इस परंपरा का खास नजारा उत्तरकाशी की गंगा घाटी में देखने को मिलता है।

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