Mathura Rape Case: भारत का पहला रेप केस जिसने भारत के क़ानून में बदलाव किए, वीडियो में देखें ये स्पेशल रिपोर्ट

Mathura Rape Case: रेप जैसी दर्दनाक घटना पीड़िता को शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरीके से मारकर रख देती है। एक वक्त ऐसा था जब उस परस्थिति में समाज भी पीड़िता को ही दोष दिया करता था .......

Update: 2023-04-28 08:33 GMT

Mathura Rape Case: आज के समय में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध हर दूसरे दिन सुनने को मिलते हैं। पर एक दौर ऐसा भी था जब बलात्कारियों को नहीं बल्कि रेप पिड़िता को समाज ही नहीं न्यायालय भी 'दोषी' मान लेता था।इन मामलों में अक्सर यह देखने को मिलता है कि सामान्य जन इस अपराध को पुलिस थाने में दर्ज करवाने से कतराते हैं। जिसके परिणामस्वरूप कई मामले थानों तक पहुँच नहीं पाते हैं। पर बलात्कार के मामले को थाने तक लेकर जाने में हमेशा वो पहली कड़ी हमें जाननी चाहिए कि आख़िर कब बलात्कार का पहला केस थाने तक पहुँचा और उसपर आगे क्या कार्रवाई हुई। बलात्कार का वो केस जिसने पूरे हिंदुस्तान को हिलाकर रख दिया , जिसकी वजह से स्वयं भारत के क़ानून में बदलाव लाए गए।

आज इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते है,

ये वक्त 1972 का था। महाराष्ट्र के गढचिरौली क्षेत्र के देसाईगंज ज़िले में एक आदिवासी लड़की रहती थी। उसकी उम्र 14 या 16 साल रही होगी। असली नाम कोई नहीं जानता, पर घटना के बाद अख़बारों ने उसे ‘मथुरा’ नाम दिया था।मथुरा अनाथ थी। उसके दो बड़े भाई थे, जिनमें से वो एक के साथ रहती थी। घर में दो पैसे आए इसके लिए लोगों के घरों में काम करती थी। एक घर में जहां वो काम करने जाती थी, एक औरत, नुशी भी काम करती थी। नुशी का एक भतीजा था, अशोक। वो अक्सर उस घर में आया-जाया करता था। मथुरा और अशोक की मुलाक़ात होती रहती थी। वो अच्छे दोस्त बन गए। धीरे-धीरे वो एक दूसरे को पसंद करने लगे। मथुरा ने अशोक को शादी के लिए ‘हां’ कह दिया। नुशी को भी ये रिश्ता मंज़ूर था।

वो मथुरा को अपनी बहू मानने लगी। मथुरा और अशोक के रिश्ते के बारे में पूरे गांव को पता चल गया। मथुरा के भाइयों को ये रिश्ता बिलकुल मंज़ूर नहीं था। उन्होंने पुलिस में अशोक के ख़िलाफ़ शिकायत की कि उसने मथुरा को अगवा करके रखा था और उससे वेश्यावृत्ति करवा रहा था। 26 मार्च, 1972 को पुलिस ने मथुरा, अशोक और उनके परिवार वालों को थाने में बुलाया। सबसे पूछताछ करने के बाद पुलिस ने बाक़ी सबको घर भेज दिया पर मथुरा को रोककर रखा यह कहते हुए कि थोड़े और सवाल करने हैं। रात के साढ़े दस बज रहे थे। दो पुलिसकर्मी मथुरा को एक बंद कमरे में ले गए । जहां एक ने उसका बलात्कार किया और दूसरे ने उसे ग़लत तरीके से छुआ।

बलात्कारियों ने मथुरा को डराने की कोशिश की। उन्होंने उससे कहा कि थाने में जो भी हुआ, उसके बारे में किसी को बताए न। पर मथुरा आसानी से डर जाने वालों में नहीं थी। उसने अपने भाइयों और रिश्तेदारों को सब बताया और उन्होंने कोर्ट में जाने का फैसला किया।

सेशंस कोर्ट की सुनवाई बलात्कारियों के पक्ष में

स्थानीय सेशंस कोर्ट में यह केस 1 जून, 1974 तक चला। जज ने फैसला सुनाया कि मथुरा के बलात्कारी निर्दोष हैं, क्योंकि मथुरा की मेडिकल जांच से पता चला है कि वो वर्जिन नहीं है। घटना से पहले भी उसने मर्दों के साथ यौन संबंध बनाए थे और न्यायालय के मुताबिक़ इसका मतलब ये था कि ‘उसे सेक्स करने की आदत है और उसने पुलिसवालों के साथ भी अपनी मर्ज़ी से सेक्स किया है।’

बम्बई हाई कोर्ट पिड़िता के पक्ष में , कही कन्सेंट की बात

न्यायाधीशों का यह शर्मनाक बयान गुस्सा दिला देनेवाला था। केस की दोबारा सुनवाई के लिए बंबई हाईकोर्ट में अपील की गई। सेशंस कोर्ट के जजमेंट को ख़ारिज करते हुए हाईकोर्ट ने कहा, ‘अगर पीड़िता डर या किसी और वजह से ना नहीं बोल पा रही तो उसे कंसेंट नहीं माना जा सकता। ऐसे में हम ये नहीं कह सकते कि उसने अपनी मर्ज़ी से सेक्स किया है।’ दोनों दोषी पुलिसकर्मियों को 1 और 5 साल की सज़ा सुनाई गई।

सुप्रीम कोर्ट फिर बलात्कारियों के पक्ष में

इसके बाद जो हुआ वो बिलकुल अप्रत्याशित था। सितंबर 1979 में बॉम्बे हाई कोर्ट के जजमेंट के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई। सुप्रीम कोर्ट के जज जसवंत सिंह, कैलाश राम और कौशल ने पुलिस कांस्टेबल गणपत और तुकाराम को बरी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने जजमेंट में कहा:

1. मथुरा ने शोर नहीं मचाया था।

2. उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं थे ।यानि उसने संघर्ष नहीं किया यानि रेप नहीं हुआ।

3. सुप्रीम कोर्ट ने कहा- 'उसे सेक्स करने की आदत थी।उसने पुलिसवालों को उकसाया होगा।’

देशभर हुआ एकजुट

देशभर में तहलका मच गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में लॉ के प्रोफेसर उपेंद्र बक्शी, रघुनाथ केलकर और लतिका सरकार ने पुणे की वक़ील वसुधा धागमवार के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट के जजों को एक खुला ख़त लिखा।वसुधा धागमवार ने ही मथुरा का केस लड़ा था। ओपन लेटर में प्रोफ़ेसर्स ने पूछा, 'क्या शादी से पहले सेक्स करना इतना बड़ा टैबू है कि पुलिस को नाबालिग लड़कियों का रेप करने का लाइसेंस मिल जाए?'इसी दौरान इस फैसले के ख़िलाफ़ देशभर में कई महिला संगठन तैयार हो गए, जिनमें से एक था ‘फ़ोरम अगेंस्ट रेप’, जिसका नाम बाद में ‘फ़ोरम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ़ वीमेन’ (FAOW) पड़ा।दबाव में आकर सुप्रीम कोर्ट फैसले पर पुनर्विचार करने को तैयार तो हुआ, मगर जजों के मुताबिक़ मथुरा के पक्ष में फ़ैसला सुनाने के लिए कोई ‘locus standi’ नहीं था। यानी क़ानून की नज़रों में मथुरा पीड़िता नहीं थी और उसे अपने लिए इंसाफ़ मांगने का कोई हक़ नहीं था। उस समय रेप के क़ानून इतने मज़बूत नहीं थे और रेपिस्ट से ज़्यादा पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाते थे। इसलिए क़ानूनी तौर पर मथुरा पीड़िता थी ही नहीं, बल्कि दोषी भी ठहराई जा सकती थी।

पाकिस्तान के अखबार Dawn की वजह से गया ध्यान

यह वो दौर था जब उच्चतम न्यायलय आम जनता की पहुंच से बहुत दूर था। इस ओपन लेटर को भारतीय मीडिया तक ने तवज्जो नहीं दी।कुछ महीनों बाद पाकिस्तान के अखबार Dawn ने इस ओपन लेटर को छापा और तब भारतीय मीडिया ने इस ओपन लेटर पर ध्यान दिया।

भारत सरकार ने बदला कानून

दिल्ली समेत देश के कई शहरों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन हुए। 8 मार्च, 1980 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, नागपुर समेत कई शहरों में स्त्रियां सड़कों पर उतर आई। केस को रिओपन करने की, मथुरा को न्याय दिलाने की आवाज़ें तेज़ हो रही थीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का दिल नहीं पिघला। गौरतलब है कि भारत सरकार को 1983 में रेप कानूनों को बदलना पड़ा।

इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 376 में चार नए विभाग, ए, बी, सी और डी जोड़े गए। इनके तहत अगर कोई भी पुलिसकर्मी, सरकारी कर्मचारी, या महिला/बाल संस्था या हॉस्पिटल का मालिक अपनी हिफ़ाज़त में किसी औरत को रेप करता है तो उसे 10 साल की सज़ा से लेकर उम्रक़ैद तक हो सकती है।

‘एविडेंस ऐक्ट’ में सेक्शन 114ए जोड़ा गया जिसके तहत “अगर पीड़िता यह कहती है कि उसने यौन संबंध के लिए हां नहीं कहा था, तो कोर्ट को इस बात का यक़ीन करना चाहिए कि उसके साथ ज़बरदस्ती की गई थी (अगर इसके ख़िलाफ़ कोई सबूत न हो तो।)

मथुरा रेप केस के बाद इन कैमरा रेप ट्रायल्स भी शुरू हुए और विक्टम की पहचान ज़ाहिर करने पर प्रतिबंध लगाया गया।

1983 में ‘क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऐक्ट भी आया जिसके तहत “अगर पीड़िता मानसिक तौर पर विचलित हो या वो नशे में हो और ऐसे में उसे यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया गया हो तो इसे बलात्कार माना जाएगा।”

कोर्ट के आदेश के मुताबिक किसी भी महिला को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। वहीं अगर अपराध गंभीर है तो पुलिस को गिरफ्तार करने से पहले लिखित में मजिस्ट्रेट को कारण देना होगा कि आखिर रात को गिरफ्तारी क्यों की जा रही है।

मथुरा रेप केस ने पूरे देश को सोचने पर मजबूर किया था कि ‘बलात्कार’ क्या है। कंसेंट का उल्लंघन कब और कैसे होता है। इसी के आधार पर नए क़ानून बने ताकि बलात्कार की पीड़िताओं की सुरक्षा बेहतर तरीके से की जा सके।

क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट 1983 (नंबर 43) ने 25 दिसंबर 1983 को बनाए गए एविडेंस एक्ट की धारा 114 (ए) के सामने एक वैधानिक प्रावधान किया, जिसमें कहा गया है कि अगर पीड़िता कहती है कि उसने संभोग के लिए सहमति नहीं दी, न्यायालय यह मान लेगा कि खंडन योग्य उपधारणा के रूप में उसने सहमति नहीं दी थी ।

इस घटना के बाद नए कानून भी बनाए गए।सेक्शन 376(A), 376(B), 376(C), 376(D) को आई.पी.सी. के सेक्शन 376 (इंडियन पीनल कोड के तहत रेप की सजा) में अधिनियमित (इनेक्टेड) किया और जोड़ा गया, जिसकी वजह से इस सेक्शन में यह बदलाव आया की इस सेक्शन के तहत कस्टोडियल रेप को दंडनीय बना दिया गया। (इस कानून को निर्भया कांड के बाद 2013 में और अमेंड किया गया था)।

हिरासत में बलात्कार को परिभाषित करने के अलावा, संशोधन ने इसे स्थानांतरित कर दिया।एक बार यौन संबंध स्थापित हो जाने पर अभियुक्त से अभियुक्त पर सबूत का भार ; इसमें बंद कमरे में मुक़दमे, पीड़ित की पहचान प्रकटीकरण पर रोक, और सख्त सज़ा के प्रावधान भी जोड़े गए हैं।

टू फ़िंगर टेस्ट- मथुरा की जब मेडिकल जांच की गई थी तब डॉक्टर ने टू फ़िंगर टेस्ट किया था।ये रेप टेस्ट का सबसे घटिया तरीका है।ये टेस्ट न सिर्फ़ वैज्ञानिक तौर पर गलत है बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने अब इसे भारत में गैरकानूनी घोषित कर दिया है।

अब कहां है 'मथुरा'?

कहा जाता है मथुरा ने देसाइगंज छोड़ दिया।उसने नाम बदल लिया और एक आदमी से शादी की। उसके दो बेटे हुए, लेकिन मथुरा एक कच्चे मकान में गुमनाम ज़िन्दगी जी रही है।

इस केस में मथुरा को न्याय तो नहीं मिला।पर देश के कानून में बदलाव हुए जिससे कई महिलाओं और लड़कियों को न्याय दिलाने के रास्ते खुल गए।इस केस ने महिलाओं के कानूनी अधिकारों के मुद्दों, उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक मानसिकता के बारे में अधिक जागरूकता पैदा की और इसलिए यह, भारत में महिला अधिकार आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।

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