Sanatan Dharma Kya Hai: सनातन धर्म नहीं आत्मा है, पढ़ें विस्तार से इसके बारे में
Sanatan Dharma Kya Hai: सनातन शब्द का ही मतलब है कि जो कालातीत है - जिसका न तो समय में आरंभ है, न ही अंत। सनातन वह है जो निराकार, अनंत, नामहीन, गुणहीन और अपरिवर्तनीय है।सनातन धर्म का उल्लेख गीता में है।
Sanatan Dharma Kya Hai: सनातन धर्म अचानक राजनितिक विमर्श और रणनीति के केंद्र में आ गया है। हालिया शुरुआत तमिलनाडु से हुई है, जहाँ द्रमुक नेता अचानक बिना किसी सन्दर्भ के सनातन पर हमलावर हो चले। बात वहां से शुरू हुई और पूरे देश में फ़ैल गयी। तमिलनाडु के लिए यह कोई नई बात भी नहीं है। दरअसल, तमिल समाज दशकों से ईवी रामास्वामी पेरियार, डीएमके संस्थापक सीएन अन्नादुरई और अन्य नेताओं को सुनता और सीखता रहा है। ये धर्म, जाति पदानुक्रम, ब्राह्मणवादी आधिपत्य, जाति, धार्मिक, लिंग उत्पीड़न आदि के मुखर आलोचक रहे हैं। उदाहरण के लिए द्रविड़ आइकन पेरियार के इस उद्धरण को ही देखें - "कोई भगवान नहीं है। जिसने भगवान को बनाया वह मूर्ख है; जो उसका नाम फैलाता है वह बदमाश है और जो उसकी पूजा करता है वह जंगली है।"
तमिलनाडु के सीएम के पुत्र तथा राज्य के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने ‘सनातन धर्म को मिटाने’ की आवश्यकता पर टिप्पणियाँ की, जिस पर देश भर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी। इन टिप्पणियों को ‘हिंदुओं का अपमान’ बताया गया। लेकिन तमिलनाडु में इस मंत्री और उनकी बातों की ज्यादा आलोचना नहीं हुई। क्योंकि उनके शब्दों की जड़ें राज्य के राजनीतिक और सांस्कृतिक लोकाचार में निहित हैं।
दरअसल, तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की जड़ें पेरियार द्वारा शुरू किए गए स्वाभिमान आंदोलन में हैं। 20वीं सदी के शुरुआती आंदोलन ने जाति और धर्म के विरोध का समर्थन किया। खुद को सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक तर्कवादी आंदोलन के रूप में स्थापित किया। वर्षों से, इन आदर्शों ने राज्य की राजनीति को प्रभावित किया है, जिसमें द्रमुक और आंदोलन से उभरी अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टियां भी शामिल हैं। पेरियार जाति और धर्म के घोर विरोधी थे। उन्होंने जाति और लिंग से संबंधित प्रमुख सामाजिक सुधारों की वकालत की। तमिल राष्ट्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान पर जोर देते हुए हिंदी के वर्चस्व का विरोध किया। 1938 में जस्टिस पार्टी, जिसके पेरियार सदस्य थे, और आत्म-सम्मान आंदोलन एक साथ आये। 1944 में नये संगठन का नाम द्रविड़ कषगम रखा गया जो ब्राह्मण विरोधी, कांग्रेस विरोधी और आर्य विरोधी यानी उत्तर भारतीय विरोधी था। उन्होंने एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र के लिए आंदोलन चलाया। इसी विचारधारा के तहत सनातन पर हमला है।
सनातन शब्द का ही मतलब है कि जो कालातीत है - जिसका न तो समय में आरंभ है, न ही अंत। सनातन वह है जो निराकार, अनंत, नामहीन, गुणहीन और अपरिवर्तनीय है।सनातन धर्म का उल्लेख गीता में है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ।।
अर्थात - हे अर्जुन! जो छेदा नहीं जाता। जलाया नहीं जाता। जो सूखता नहीं। जो गीला नहीं होता। जो स्थान नहीं बदलता। ऐसे रहस्यमय व सात्विक गुण तो केवल परमात्मा में ही होते हैं। जो सत्ता इन दैवीय गुणों से परिपूर्ण हो। वही सनातन कहलाने के योग्य है। इस श्लोक के माध्यम से भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो न तो कभी नया रहा। न ही कभी पुराना होगा। न ही इसकी शुरुआत है। न ही इसका अंत है। अर्थात ईश्वर को ही सनातन कहा गया है।
यानी साफ़ है कि सनातन शब्द वेदों से नहीं आया है, सनातन का पहला उल्लेख श्रीमद्भागवत गीता में मिलता है। जिसका मतलब आत्मा के ज्ञान से है। जो शाश्वत है। पुनर्जन्म की बात करता है। शाश्वत शब्द का इस्तेमाल जैन बौद्ध धर्मों में भी है। क्योंकि ये धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। इस्लाम, यहूदी व ईसाई धर्म में सनातन का ज़िक्र नहीं है। क्योंकि ये पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते। इन धर्मों में स्वर्ग या नर्क के बाद कुछ भी नहीं हैं। जो पुण्य करेगा वह स्वर्ग पायेगा। जो पाप करेगा वह नर्क पायेगा। यह व्याख्या इन तीनों धर्मों को नैतिक तो बनाती है। पर धार्मिक नहीं बना पाती है। भारत के तीनों धर्म- हिंदू, जैन, बौद्ध मोक्ष की बात करते है।यह स्वर्ग व नर्क से ऊपर की बात है। यही हमें सनातन बनाती है। सनातन बताती है। हिंदू धर्म बारह हज़ार साल पुराना है। जबकि कुछ पुराणिक मान्यताओं के अनुसार हिंदू धर्म नब्बे हज़ार साल पुराना है। इस्लाम 1400 साल पूर्व , यहूदी व ईसाई धर्म 2000 ईसा पूर्व , जैन बौद्ध 500 ईसा पूर्व के धर्म हैं। ईसाई, यहूदी, इस्लाम का कालखंड इतना नहीं है कि यह उनको सनातन बना पाये।यही नहीं, सनातन किसी एक परंपरा या व्याख्या में विश्वास करने वाला विचार नहीं है। सनातन युग में लिखे गये ग्रंथों में वर्ण स्वीकार किया गया है। वर्ण यानी वर्ग। जाति नहीं। जाति व्यवस्था का कोई आधार आध्यात्मिक नहीं है। यह पेशागत है। जाति को कोई दैवीय, वैदिक या उपनिषदीय मान्यता नहीं है।
अठारहवीं सदी की शुरूआत में सनातन और नूतन की पहली पहली बहस बंगाल में छिड़ी। अंग्रेज़ी पढ़े लिखे लोगों के नूतन वर्ग ने सती प्रथा, बाल विवाह जैसी प्रथाओं को ख़त्म करने की माँग की। यह बहस तीन दशक तक चली। फिर पुनर्जागरण की शुरूआत हुई। वैसे तो सनातन का रिश्ता केवल आत्मा से है। पर इसे धर्म से जोड़ कर देखने की समझ चल निकली। सनातन को हिन्दू धर्म से जोड दिया गया। बताया गया कि यह एक जीवन पद्धति है। ऋग्वेद एवं अन्य वेदों में ‘सनत धर्म’ और ‘प्रथम धर्म’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। सत्य, ऋत, धर्म और यज्ञ को प्रथम धर्म कहा गया है। जिन नियमों से समस्त ब्रह्मांड गतिशील हैं, उन्हें ही सनातन धर्म कहते हैं। मनुष्यों का धर्म उसी का एक अंग है। महात्मा गांधी ने स्वयं को पक्का सनातनी हिन्दू कहा है। उनके अनुसार हिन्दू वह है जो यह मानता है कि वेद सृष्टि के आरम्भ से हैं और वे सर्वपूज्य हैं, कर्मफल अटल और अनिवार्य है, ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, प्रत्येक जीव में ईश्वर का अंश है, अहिंसा ही परम धर्म है।मध्यप्रदेश की एक जनसभा में मोदी ने दावा किया कि सनातन धर्म ने महात्मा गाँधी को छुआ-छूत प्रथा के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी। गांधी से जुड़कर यह मुद्दा और धारदार बनता है। अपनी किताब कास्ट प्राइड : बैटिल्स फ़ॉर इक्वालिटी इन हिंदू इंडिया में मनोज मिट्टा लिखते हैं कि महात्मा गांधी ने रुढिवादिता से मुक़ाबला करने के लिए खुद को सोच समझ कर सनातनी के तौर पर पेश किया था।
बहरहाल, एक और पहलू ध्यान देने योग्य है – धार्मिकता का। सच्चाई ये है कि सन 81 के एक सर्वे में पता चला था कि दुनिया की 60 फीसदी आबादी वाले 49 देशों में लोगों में धर्म के प्रति झुकाव बढ़ा नहीं है बल्कि - अधिकांश उच्च आय वाले देश कम धार्मिक होते जा रहे थे।
2007 के बाद से चीजें आश्चर्यजनक गति से बदल गई हैं। 2007 से 2020 तक इन्हीं देशों का भारी बहुमत (49 में से 43) कम धार्मिक हो गया। ये भारी बहुमत अब सिर्फ उच्च आय वर्ग तक तक सीमित नहीं है। मिसाल के तौर पर ईरान जैसे देश में आम जन के बीच धार्मिक झुकाव घट रहा है।आस्था या विश्वास में यह गिरावट उच्च आय वाले देशों में सबसे मजबूत है । लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं है। प्यू रिसर्च इंस्टिट्यूट के आंकड़ों के अनुसार सन 51 से भारत में धार्मिक संरचना में कोई बदलाव नहीं हुआ है। 1947 में देश के विभाजन के बाद भारत की जनसंख्या तीन गुना से अधिक हो गई है। रिसर्च में पाया गया कि इस अवधि के दौरान भारत में हर प्रमुख धर्म की संख्या में वृद्धि देखी गई। हिंदुओं की संख्या 304 मिलियन से बढ़कर 966 मिलियन हो गई; मुसलमान 35 मिलियन से बढ़कर 172 मिलियन हो गए; और ईसाई कहने वाले भारतीयों की संख्या 8 मिलियन से बढ़कर 28 मिलियन हो गई। यानी अनुपातिक हिसाब से सब बढ़ गए। 2011 की गिनती में सिर्फ लगभग 30,000 भारतीयों ने खुद को नास्तिक बताया था।
समझने वाली बात यह है कि किसी भी मान्यता या धर्म पर हमले या आलोचना कई कारणों से हो सकते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि इस तरह की हमले या आलोचनाएँ किसी एक धर्म से ही सीमित नहीं हैं; ये किसी भी धार्मिक या धारणा प्रणाली के साथ हो सकती हैं। सनातन धर्म पर आलोचना या हमला भी इन्हीं वजहों से है। कई लोग हिन्दू धर्म के बारे में सीमित ज्ञान और समझ रखते हैं। इससे गलतफहमियाँ और स्टीरियोटाइप्स हो सकते हैं, जिनसे फिर आलोचना या हमला हो सकता है। धार्मिक संघर्ष इतिहास में मौजूद थे। कुछ क्षेत्रों में वे आज भी तनाव का स्रोत हैं। इन संघर्षों से धार्मिक और अन्य धर्मों की आलोचना या हमला हो सकता है। कुछ मामलों में, राजनीतिक या विचारक ग्रुप एक खास धर्म, सहित हिन्दू धर्म, को अपने निर्देशों को आगे बढ़ाने के लिए लक्ष्य बना सकते हैं। इसमें धार्मिक विभिन्नता का उपयोग विभाजन बनाने और समर्थन प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है। यही आज हमारे सामने है। इसके अलावा मीडिया सामाजिक धारणाओं को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सनसनीखेज या पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग सनातन धर्म के बारे में नकरात्मक स्टीरियोटाइप्स और गलतफहमियों का कारण बन सकते हैं। ऐतिहासिक घटनाएँ और संघर्ष भी किसी धर्म के प्रति रुझान को आकार देने में भूमिका निभा सकते हैं। पूर्व संघर्ष या उपनिवेशवादी प्रभाव ऐसे संकट या आपसी विश्वास को प्रभावित करने का कारण बन सकते हैं। इसे द्रविड़ बनाम आर्यन विवाद के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
बहरहाल, मान्यताओं, आस्थाओं और विश्वास पर प्रहार कतई सही नहीं ठहराया जा सकता। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कुरीतियों, अंधविश्वासों, कर्मकांडों को अवश्य दूर किया जाना चाहिए। इन्हीं में जात-पांत भी शामिल है। पर यह तो ईसाईयत और इस्लाम में भी है। सनातन कहे जा रहे धर्म में राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, रामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुषों ने इसी दिशा में काम किया। पर सवाल उठता है कि पश्चिमी देशों में धर्म से जुड़ी बुराइयों को दूर करने में कितनों ने अथक प्रयास किये। ईसाईयत तो यह सहन भी कर लेता है। पर इस्लाम हमेशा खतरे में आ जाता है। यहूदियों ने तो खुद को पवित्रता और रेस में इस तरह जकड़ रखा है कि खंडन मंडन के लिए इनके पास भी कोई जगह नहीं है। यानी इन तीनों धर्मों व उनके अनुयायियों में धार्मिक सहिष्णुता है ही नही। यह केवल सनातन कहे जाने वाले हिंदू धर्म में ही है, जहां वाद- विवाद को जगह है। जहां शास्त्रार्थ की परंपरा है। पर जिस तरह पिद्दी पिद्दी भर के लोग सनातन पर हमलावर हो रहे हैं। उससे तो अब लगता है कि सहिष्णुता को कायरता माना जाने लगा है। दिनकर ने लिखा है-
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित , विनीत, सरल हो।