Nandan Nilekani, Infosys: पैदा हों भारत में नंदन नीलेकणि जैसे दर्जनों दानवीर

Nandan Nilekani, Infosys: इंफोसिस टेक्नोलॉजीज के सह - संस्थापक नंदन नीलेकणि ने देश के धन कुबेरों के समक्ष एक अद्भुत मिसाल कायम की है। उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) बॉम्बे को 315 करोड़ रुपए दान कर दिये हैं।

Update:2023-06-25 15:08 IST
Nandan Nilekani, Non-Executive Chairman Infosys(Photo: Social Media)

Nandan Nilekani, Infosys: इंफोसिस टेक्नोलॉजीज के सह - संस्थापक नंदन नीलेकणि ने देश के धन कुबेरों के समक्ष एक अद्भुत मिसाल कायम की है। उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) बॉम्बे को 315 करोड़ रुपए दान कर दिये हैं। ये भारत में किसी भी पूर्व छात्र की ओर से अपने इंस्टीट्यूट या कॉलेज को किया गया सबसे बड़ा दान है। इससे पहले भी, उन्होंने आईआईटी बॉम्बे को 85 करोड़ रुपए दान किया था। यानी अब तक वो आईआईटी बॉम्बे को 400 करोड़ रुपये का दान कर चुके हैं। वे इसी संस्थान के छात्र रहे हैं। दरअसल देश के विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्लायों के सफल छात्रों को अपने शिक्षण संस्थानों की आर्थिक मदद करनी भी चाहिए। इन संस्थानों को सरकार की मदद के सहारे पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सरकार की अपनी सीमाएं हैं। अमेरिका में

पूर्व छात्र अपने कॉलेजों और विश्व विद्लायों की भरपूर मदद करते हैं। पूर्व छात्रों की मदद से ही उनके शिक्षण संस्थानों में रिसर्च और दूसरी सुविधाएं बढ़ाई जा सकती हैं। आगे बढ़ने से पहले बता दें कि नीलकेणी की सबसे बड़ी कामयाबी आधार कार्ड है। देश के हर नागरिक को एक विशिष्ठ पहचान संख्या या यूनिक आइडेंटीफिकेशन नम्बर को उपलब्ध करवाने की योजना को उन्होंने ही सफलतापूर्वक लागू करवाया ।
तो हम पहले बात कर रहे थे कि समाज के सफल लोगों, जिनमें उद्मयी, कारोबारी, नौकरशाह आदि शामिल हैं, को उन शिक्षा के मंदिरों का साथ देना चाहिए जहाँ से वे पढ़े हैं और आज सफल उद्यमियों में शुमार हैं।

देखिए, नंदन नीलेकणि सिर्फ मुनाफा कमाने वाले उद्यमियों में से नहीं हैं। वे बार-बार साबित करते हैं कि वे अलग तरह के उद्यमी हैं। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के आईटी सेक्टर में अपनी खास पहचान रखने वाली इंफोसिस टेक्नोलॉजी ने अपनी स्थापना के 30 साल पूरे होने का जश्न मनाते हुए अपने हजारों कर्मियों को ई-सोप्स के तोहफे से नवाजा था। कंपनी के कर्मियों को उनके कार्यकाल के साल के आधार पर ई-सॉप्स दिया गया था। इंफोसिस ने ही देश में ई-सॉप्स की परम्परा चालू की थी। भारत के आईटी सेक्टर के पितृ पुरुष यानी एन.नारायणमूर्ति और नंदन नीलेकणि जैसी गजब की शख्सियतों के मार्गदर्शन में आई टी सेक्टर की सबसे सम्मानित बनी इस आईटी कंपनी ने ई-सॉप्स की शुरूआत की थी। कहने की जरूरत नहीं है कि इंफोसिस के इस फैसले से मुलाजिमों में मालिकाना हक की भावना पैदा हुई। तो बहुत साफ है नीलकेणी कुछ हटकर ही करते रहते हैं।

इस बीच, सबको पता है कि भारत या भारत से बाहर जाकर बड़ी कामयाबी हासिल करने वालों में आईआईटी में पढ़े छात्रों की तादाद बहुत अधिक है। एन. नारायणमूर्ति खुद आईआईटी कानपुर से हैं। ट्वीटर के पूर्व सीईओ पराग अग्रवाल भी पढ़े हैं आईआईटी, मुंबई में। इसने देश-दुनिया को चोटी के सीईओ से लेकर इंजीनियर दिए हैं। आप नए उद्यमियों, खासतौर पर ई-कॉमर्स से जुडी बात करें, और सचिन बंसल और बिन्नी बंसल की चर्चा न करें ये तो नहीं हो सकता। इन दोनों ने फ्लिपकार्ट की स्थापना की थी। ये दोनों आईआईटी, दिल्ली में रहे। भारत में पहली आईआईटी की स्थापना कोलकाता के पास स्थित खड़गपुर में 1950 में हुई थी। भारत की संसद ने 15 सितंबर 1956 को आईआईटी एक्ट को मंज़ूरी देते हुए इसे "राष्ट्रीय महत्व के संस्थान" घोषित कर दिया। इसी तर्ज़ पर अन्य आईआईटी मुंबई ( 1958), मद्रास ( 1959), कानपुर ( 1959), तथा नई दिल्ली ( 1961) में स्थापित हुंई। फिर गुवाहाटी में आई आई टी की स्थापना हुई। सन 2001 में रुड़की स्थित रुड़की विश्वविद्यालय को भी आईआईटी का दर्जा दिया गया। आईआईटी में पढ़े विद्यार्थी सारी दुनिया में छाए हुए हैं। ये सब मोटी पगार ले रहे हैं या फिर अपना बिजनेस करके खूब कमा रहे हैं। इन सबको भी अपनी आईआईटी के अलावा उन स्कूलों की भी मदद करनी चाहिए जहाँ से पढ़े हैं। ये याद रखा जाना चाहिए कि किसी भी इंसान की ज्ञान पाने की नींव तो उसके स्कूल में ही रखी जाती है। इसलिए स्कूलों के महत्व को समझा जाना चाहिए। हमें अपनी सभी कॉलेज और विश्वविद्लायों को सेंट स्टीफंस कॉलेज,आईआईटी और आईआईएम के स्तर का बनाना होगा। इन्हें आधुनिक सुविधाओँ से लैस करना होगा। हां, इस स्थिति तक पहुंचने के लिए चुनौती यह रहेगी कि इनमें बेहतरीन फैक्ल्टी की नियुक्ति हो। हमें उन अध्यापकों को प्रोत्साहित करना होगा जो अपने शिष्यों के प्रति समर्पण का भाव रखते हैं। अध्यापकों को अपने को लगातार अपडेट रखना होगा। आमतौर पर हमारे यहां बहुत से अध्यापक एक बार स्थायी नौकरी मिलने पर लिखते-पढ़ते नहीं हैं।

नंदन नीलेकणि के बहाने बिल गेट्स की भी बात करने का मन कर रहा है। वे कॉलेज ड्राप आउट हैं। वे माइक्रोसॉफ्ट के निदेशक मंडल से इस्तीफा देकर पूरी तरह से मानव सेवा में लग गए हैं। याद रख लें कि पैसे वाले तो हर काल में रहे हैं। लेकिन, गेट्स सारी दुनिया के लिए उदाहरण पेश करते हैं। बिल गेट्स का फोकस स्वास्थ्य, विकास और शिक्षा जैसे सामाजिक और परोपकारी कार्यों पर रहता है। वे विश्व से गरीबी और निरक्षरता खत्म करने का ख्वाब देखते हैं। नीलकेणी ने एक तरह से भारत के धनी समाज को परोपकार करने के लिए प्रेरित किया है। अन्य धनी लोगों को शिक्षा के प्रसार-प्रसार के अलावा नए अस्पतालों के निर्माण या पहले से चल रहे अस्पतालों के आधुनिकीरण के लिए धन देने से पीछे नहीं रहना चाहिए। टाटा समूह के सहयोग से प्रख्यात दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (डी स्कूल) में रतन टाटा लाइब्रेयरी स्थापित की गई थी। इसे अर्थशास्त्र और संबंधित विषयों में अध्ययन और अनुसंधान के लिए आदर्श लाइब्रेयरी माना जाता है। टाटा समूह ने ही बैंगलुरू के इंडियन इस्टीच्यूट ऑफ़ साइंस की स्थापना करने में निर्णाय़क भूमिका निभाई थी। इसकी परिकल्पना एक शोध संस्थान या शोध विश्वविद्यालय के रूप में जमशेद जी टाटा ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में की थी। मज़े की बात यह है कि इस विशाल आईआईएस कैंपस का निर्माण जमशेद जी ने मात्र स्वामी विवेकानंद के एक पत्र को मिलने पर करवा दिया था जिसमें स्वामी जी ने टाटा को लिखा था कि आप जमशेदपुर के स्टील प्लांट से अच्छा पैसा कमा रहे हो , यह

च्छी बात है लेकिन दक्षिण भारत में साइंस की पढ़ाई के लिये एक अच्छे संस्थान की ज़रूरत है , वह स्थापित करो । इसके लगभग तेरह वर्षों के अंतराल के पश्चात 27 मई 1909 को इस संस्थान का जन्म हुआ। होमी भाभा, सतीश धवन, जी. एन. रामचंद्रन, सर सी. वी. रमण, राजा रामन्ना, सी. एन. आर. राव, विक्रम साराभाई, मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, ए.पी.जे.अब्दुल कलाम जेसे महान विज्ञान से जुड़े व्यक्तित्व इस संस्थान के विद्यार्थी रहे या किसी न किसी रूप में इससे जुड़े रहे हैं। अगर टाटा समूह ने उदारता से इस संस्थान की स्थापना के लिए धन की व्यवस्था न की होती तो देश को यह संस्थान शायद न मिल पाता। तो लब्बो लुआब यह है कि भारत के धनी लोगों को राष्ट्र निर्माण में बढ़-चढ़कर भाग लेना होगा। अब भारत को एक नहीं दर्जनों नंदन नीलेकणि मिलने चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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