कृषि कानून का विरोध क्यों, जानें, इससे किसानों को कितना फायदा- क्या नुकसान
मोदी मंत्रिमंडल ने 3 जून को दो नए अध्यादेशों पर मुहर लगाई थी और EC Act में संशोधन की मंजूरी दी थी। अब संसद से मंजूरी मिल चुकी है। अब ये कानून बन गए है।
नई दिल्ली: एक ओर देश में कोरोना वायरस का प्रकोप का तेज चल रहा है। दूसरी ओर देश में राजनीतिक उथल-पुथल भी जारी है। कल यानी बृहस्पतिवार को मोदी सरकार ने कृषि संबंधी दो बिल बृहस्पतिवार को लोकसभा में पास करवा लिए है। लेकिन मोदी सरकार के इन बिलों का किसानों में जबरदस्त विरोध है। किसान इन बिलों के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं। मोदी सरकार को इन बिलों के पास होने के बाद सबसे बड़ा झटका तब लगा जब इन कृषि संबंधी बिलों के विरोध में मोदी सरकार की सहयोगी एनडीए की साथी अकाली दल की सांसद और केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपना इस्तीफा दे दिया। इस बिल का विरोध काफी तेजी से हो रहा है।
कृषि संबंधी बिलों का हो रहा जबरदस्त विरोध
मोदी सरकार अपने इन कृषि संबंधी बिलों को लोकसभा में पास करवाकर भी घिरी नज़र आ रही है। एक ओर अपनी ही सहयोगी और केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा तो वहीं कई किसान नेताओं द्वारा भी इस बिल का जबरदस्त विरोध करना। अब सरकार के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है। किसान नेताओं का बिल के विरोध में कहना है कि ये बिल उन अन्नदाताओं की परेशानी बढ़ाएंगे जिन्होंने अर्थव्यवस्था को संभाले रखा है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में कोई भी विवाद होने पर उसका फैसला सुलह बोर्ड में होगा।
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जिसका सबसे पावरफुल अधिकारी एसडीएम को बनाया गया है। वहीं इसकी अपील सिर्फ डीएम यानी कलेक्टर के यहां होगी। इस मुद्दे को लेकर पंजाब में किसान ट्रैक्टर आंदोलन कर चुके हैं और व्यापारी चार राज्यों में मंडियों की हड़ताल करवा चुके हैं। कुल मिलाकर इसके खिलाफ किसान और व्यापारी दोनों एकजुट हो गए हैं। वहीं दूसरी ओर सरकार इस बिल को कृषि सुधार की दिशा में मास्टर स्ट्रोक बता रही है। मोदी मंत्रिमंडल ने 3 जून को दो नए अध्यादेशों पर मुहर लगाई थी और EC Act में संशोधन की मंजूरी दी थी। जिनकों को अब संसद से मंजूरी मिल चुकी है। अब ये कानून बन गए है।
किसानों को इस बात का डर
इन बिलों की विरोध काफी उच्च स्वर में हो रहा है। किसान इस बिल के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं। ऐसे में अब यहां हम आपको बताते हैं कि वो कौन से पहलू हैं जिन्हें लेकर किसानों और व्यापारियों दोनों की चिंता बढ़ गई है। इन कानूनों को लेकर किस बात का डर है। जिसे सरकार अर्थव्यवस्था नायकों के दिमाग से निकाल नहीं पा रही है। या फिर किसानों-व्यापारियों का अपने भविष्य को लेकर आकलन ठीक है? दोनों पक्षों का क्या कहना है।
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इस कानून को सरकार ने कांट्रैक्ट फार्मिंग के मसले पर लागू किया है। इससे खेती का जोखिम कम होगा और किसानों की आय में सुधार होगा। समानता के आधार पर किसान प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम होगा। किसानों की आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट्स तक पहुंच सुनिश्चित होगी। मतलब यह है कि इसके तहत कांट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा। जिसमें बड़ी-बड़ी कंपनियां किसी खास उत्पाद के लिए किसान से कांट्रैक्ट करेंगी।ॉ
उसका दाम पहले से तय हो जाएगा। इससे अच्छा दाम न मिलने की समस्या खत्म हो जाएगी। अन्नदाताओं के लिए काम करने वाले संगठनों और कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून से किसान अपने ही खेत में सिर्फ मजदूर बनकर रह जाएगा। केंद्र सरकार पश्चिमी देशों के खेती का मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में कंपनियां किसानों का शोषण करती हैं। उनके उत्पाद को खराब बताकर रिजेक्ट कर देती हैं। दूसरी ओर व्यापारियों को डर है कि जब बड़े मार्केट लीडर उपज खेतों से ही खरीद लेंगे तो आढ़तियों को कौन पूछेगा. मंडी में कौन जाएगा।
सरकार का ये है दावा
वहीं दूसरी ओर सरकार की ओर से ये दावा किया जा रहा है कि इस कानून के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार हो सकेगा। जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी। 'एक देश, एक कृषि मार्केट' बनेगा। कोई अपनी उपज कहीं भी बेच सकेगा। किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे, जिससे बाजार की लागत कम होगी और उन्हें अपने उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी।
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इस कानून से पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कंपनी, सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं। कृषि माल की बिक्री कृषि उपज मंडी समिति में होने की शर्त हटा ली गई है। जो खरीद मंडी से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगेगा। जब किसानों के उत्पाद की खरीद मंडी में नहीं होगी तो सरकार इस बात को रेगुलेट नहीं कर पाएगी कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है या नहीं। एमएसपी की गारंटी नहीं दी गई है। किसान अपनी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं। वो इसे किसानों का कानूनी अधिकार बनवाना चाहते हैं, ताकि तय रेट से कम पर खरीद करने वाले जेल में डाले जा सकें।
जबकि इस कानून से किसानों में एक बड़ा डर यह भी है कि किसान व कंपनी के बीच विवाद होने की स्थिति में कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता। एसडीएम और डीएम ही समाधान करेंगे जो राज्य सरकार के अधीन काम करते हैं। क्या वे सरकारी दबाव से मुक्त होकर काम कर सकते हैं?
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व्यापारियों का कहना है कि सरकार के नए कानून में साफ लिखा है कि मंडी के अंदर फसल आने पर मार्केट फीस लगेगी और मंडी के बाहर अनाज बिकने पर मार्केट फीस नहीं लगेगी। ऐसे में मंडियां तो धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी। कोई मंडी में माल क्यों खरीदेगा। उन्हें लगता है कि यह आर्डिनेंस वन नेशन टू मार्केट को बढ़ावा देगा।
कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेसिंग के अभाव में किसान अपनी उपज का उचित मूल्य पाने में असमर्थ
देश में ज्यादातर कृषि उत्पाद सरप्लस हैं, इसके बावजूद कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेसिंग के अभाव में किसान अपनी उपज का उचित मूल्य पाने में असमर्थ रहे हैं। क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम की तलवार लटकती रहती थी। ऐसे में जब भी जल्दी खराब हो जाने वाली कृषि उपज की बंपर पैदावार होती है, तो किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था। इसलिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दालें, प्याज और आलू आदि को इस एक्ट से बाहर किया गया है।
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इसके साथ ही व्यापारियों द्वारा इन कृषि उत्पादों की एक लिमिट से अधिक स्टोरेज पर लगी रोक हट गई है। जब सरकार को जरूरत महसूस होगी तो वो फिर से पुरानी व्यवस्था लागू कर देगी। जबकि किसानों को ये डर है कि एक्ट में संशोधन बड़ी कंपनियों और बड़े व्यापारियों के हित में किया गया है। ये कंपनियां और सुपर मार्केट सस्ते दाम पर उपज खरीदकर अपने बड़े-बड़े गोदामों में उसका भंडारण करेंगे और बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे।