Phanishwar Nath Renu: जब फणीश्वरनाथ रेणु पर चढ़ा था चुनावी बुखार, करारी हार के बाद खाई थी चौथी कसम
Phanishwar Nath Renu: 4 मार्च 1921 को फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म अररिया के औराही हिंगना गांव में हुआ था। अपनी एक से बढ़कर एक रचनाओं के जरिए हिंदी के साहित्य प्रेमियों पर छाप छोड़ी।
Phanishwar Nath Renu Death Anniversary: हिंदी साहित्य की दुनिया में फणीश्वरनाथ रेणु किसी परिचय के मोहताज नहीं है। आंचलिक साहित्यकार के रूप में उन्हें खूब प्रसिद्धि हासिल हुई और उनके योगदान को आज भी याद किया जाता है। 4 मार्च 1921 को फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म अररिया के औराही हिंगना गांव में हुआ था। अपनी एक से बढ़कर एक रचनाओं के जरिए उन्होंने हिंदी के साहित्य प्रेमियों पर अमिट छाप छोड़ी। 11 अप्रैल 1977 को मात्र 56 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया था।
देश में इन दिनों सबके ऊपर लोकसभा चुनाव का बुखार चढ़ा हुआ है। चुनावी जीत हासिल करने के लिए सभी दलों के दिग्गज नेता सियासी मैदान में उतर चुके हैं। रेणु की पुण्यतिथि के मौके पर आज उस चुनाव को भी याद करना जरूरी है जब रेणु जी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनावी अखाड़े में कूद गए थे। हालांकि इस चुनाव में करारी हार के बाद उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि राजनीति करना उन जैसे लोगों के लिए संभव नहीं है।
1972 में हुआ था दो मित्रों से मुकाबला
रेणु ने जब 1972 में अररिया जिले की फारबिसगंज विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो सबको काफी हैरानी हुई थी। रेणु निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनावी मैदान में उतरे थे और उन्हें नाव चुनाव निशान मिला था। फणीश्वर नाथ रेणु के सामने कांग्रेस के सरयू मिश्रा और सोशलिस्ट पार्टी से लखनलाल कपूर चुनाव मैदान में थे।
एक उल्लेखनीय बात यह भी थी कि इस चुनाव में आमने-सामने एक-दूसरे को चुनौती दे रहे ये तीनों उम्मीदवार काफी गहरे मित्र थे। 1942 के आजादी के आंदोलन के दौरान तीनों मित्र भागलपुर जेल में एक साथ बंद थे मगर बाद में विचारों की भिन्नता के कारण तीनों ने एक-दूसरे को चुनावी मैदान में चुनौती दे डाली। सरयू मिश्रा और लखनलाल कपूर को चुनावी मैदान में चुनौती देने के रेणु के फैसले पर भी सबको हैरानी हुई थी।
मशहूर साहित्यकारों ने किया था चुनाव प्रचार
निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में रेणु को चुनाव में जीत दिलाने के लिए उसे समय के मशहूर साहित्यकारों ने भी काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी। रेणु का चुनाव प्रचार करने के लिए रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे शीर्ष साहित्यकार भी मैदान में उतर गए थे। इन साहित्यकारों ने चुनावी सभाओं के जरिए रेणु के पक्ष में माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया।
रेणु अपनी सभाओं में मतदाताओं को अपना चुनाव निशान नाव दिखाए करते थे और लोगों के बीच किस्से-कहानियों,भजन व गीत के जरिए भी चुनाव प्रचार किया करते थे। इस चुनाव के दौरान फणीश्वर नाथ रेणु के पक्ष में एक नारा खूब चर्चित हुआ था कह दो गांव-गांव में,अबकी चुनाव में वोट देंगे नाव में।
प्रचार करने का रेणु का अलग अंदाज
1972 के इस चर्चित चुनाव के दौरान रेणु का प्रचार करने का अपना अलग अंदाज था। वे जिस भी गांव में चुनाव प्रचार के लिए जाते थे,शाम होने पर उसी गांव में ठहर जाते थे। वे गांव के लोगों के साथ ही खाते-पीते थे और इस दौरान अपना चुनाव प्रचार भी करते थे।
रेणु का कहना था कि वे किसानों, मजदूरों और आम लोगों की समस्याओं को सामने लाने के लिए चुनाव मैदान में उतरे हैं।
रेणु ने जीवन में सिर्फ एक बार चुनाव लड़ा और उन्हें इस चुनाव से काफी उम्मीदें थीं। हालांकि उनकी यह उम्मीद पूरी नहीं हो सकी। इस चुनाव के दौरान उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था।
चुनाव में झेलनी पड़ी थी करारी हार
चुनाव नतीजे के मुताबिक रेणु के गहरे मित्र और कांग्रेस प्रत्याशी सरयू मिश्रा चुनावी बाजी जीतने में कामयाब रहे। उन्हें चुनाव में 29,750 वोट मिले थे। 48 फ़ीसदी मतों के साथ उन्होंने बड़ी जीत हासिल की थी। सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी लखनलाल कपूर को 26 फ़ीसदी मतों के साथ 16,666 वोट हासिल हुए थे। रेणु जी को 10 फीसदी यानी 6498 वोट हासिल हुए थे।
रेणु खुद तो चुनाव नहीं जीत सके मगर बाद में उनके बेटे पराग राय वेणु ने 2010 के विधानसभा चुनाव में फारबिसगंज विधानसभा सीट पर जीत हासिल की थी। रेणु का संबंध कभी भी दक्षिणपंथी पार्टी से नहीं रहा मगर उनके बेटे ने इसी पार्टी से जीत हासिल की थी। 2015 में टिकट न मिलने के बाद रेणु के बेटे ने जदयू की सदस्यता ग्रहण कर ली थी।
चुनावी हार के बाद खाई थी चौथी कसम
अमर कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ के किरदार हीरामन ने तीन कसमें खाई थीं। ‘मारे गए गुलफाम’ पर ही चर्चित फिल्म तीसरी कसम बनी थी जिसमें मशहूर अभिनेता राजकपूर ने अपने अभिनय से सबका दिल जीत लिया था। इस फिल्म में तो हीरामन ने तीन कसमें खाई थीं मगर अपने एकमात्र चुनाव के दौरान रेणु को इतना कटु अनुभव हुआ कि उन्होंने आगे कभी चुनाव न लड़ने की कसम खा ली थी। उन्होंने इसे चौथी कसम बताया था।
रेणु का यह भी कहना था कि 1972 का चुनाव उन्होंने सिर्फ कांग्रेस के खिलाफ नहीं लड़ा था बल्कि यह चुनाव उन्होंने सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ लड़ा था। इस चुनावी हर के बाद उन्होंने आगे कभी चुनाव न लड़ने की बात कही थी। फारबिसगंज के पुराने लोग आज भी 1972 के उस चुनाव को याद करते हैं।