ज्ञानेन्द्र रावत
बॉन में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन चल रहा है। पर्यावरण में हो रहे प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन को कम करने की दिशा में दुनिया को इस सम्मेलन से खासी उम्मीदें हैं। हो भी क्यों न, क्योंकि पेरिस सम्मेलन में दुनिया के तकरीब 190 देशों ने वैश्विक तापमान बढ़ोत्तरी को दो डिग्री के नीचे हासिल करने पर सहमति व्यक्त की थी। दरअसल १७ नवंबर तक चलने वाले बॉन सम्मेलन का मकसद ही पेरिस में जिन मुद्दों पर सहमति बनी थी, उन पर अब क्रियान्वयन करने का है। इसमें सबसे अहम यह है कि सन 2021 तक वैश्विक तापमान बढ़ोत्तरी को दो डिग्री के नीचे ही सीमित रखा जाये।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मौजूदा दौर में जिस तेजी से दुनिया चल रही है, उससे तापमान बढ़ोतरी 3 से 3.5 डिग्री तक होने की प्रबल आशंका है। यह समूची दुनिया के लिये बहुत बड़ा खतरा है जिससे निपटना बेहद जरूरी है। गौरतलब यह है कि पेरिस सम्मेलन में तापमान बढ़ोत्तरी की आदर्श स्थिति 1.5 डिग्री की सुझाई गई है। यदि दुनिया के देश ऐसा कर पाने में कामयाब हो पाते हैं तो यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी या इसे यदि यूं कहें कि यह एक अजूबा होगा तो कुछ गलत नहीं होगा। वैसे मौजूदा हालात तो इसकी कतई गवाही नहीं देते। इसका सबसे बड़ा कारण है कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का खतरनाक स्तर तक पहुंच जाना है।
बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र तक को इस बाबत चेतावनी देने को मजबूर होना पड़ा कि अगर जल्द कदम नहीं उठाए गए तो हालात भयावह होंगे। दरअसल इस बाबत विश्व मौसम संगठन की वार्षिक रिपोर्ट को नजरअंदाज करना तबाही को आमंत्रण देने जैसा ही है। संगठन की वार्षिक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि पेरिस जलवायु सम्मेलन में हुए समझौते में तय किये गए लक्ष्यों को हासिल करने के लिये तुरन्त प्रभावी कार्रवाई की जरूरत है। उसके अनुसार मानव गतिविधियों और मजबूत अलनीनो की वजह से कार्बन डाइऑक्साइड का वैश्विक स्तर 2015 के 400 पीपीएम से बढ़कर 2016 में रिकॉर्ड 403.3 पीपीएम तक पहुंच गया है। इसमें हो रही बढ़ोतरी पर अंकुश लगना समय की मांग है।
यदि कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में त्वरित कटौती नहीं हुई तो सदी के अन्त तक तापमान बढ़ोतरी खतरनाक स्तर तक पहुंच जाएगी। इस बारे में विश्व मौसम संगठन के प्रमुख पेटरेरी टालास कहते हैं कि यह पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते के तहत तय किये गए लक्ष्य से ऊपर होगा।
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पिछली बार धरती पर इस तरह के हालात 30 से 50 लाख साल पहले बने थे। उस समय समुद्र का स्तर आज के मुकाबले 20 मीटर ऊंचा था। इसलिये कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को कम किये जाने की जरूरत है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होने पर वायुमण्डल में ऊष्मा जमा होने लगती है जिससे तापमान में बढ़ोतरी होती है। कार्बन डाइऑक्साइड ऊष्मा को बनाए रखती है। नतीजतन अधिक सर्दी नहीं पड़ती है। विश्व के तापमान में कमी लाने के लिये पेरिस में दुनिया के तकरीब 190 देशों ने पिछले साल किये समझौते में तय किया कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन के प्रसार में कमी लाएंगे व विकासशील देशों की मदद करेंगे।
असलियत यह है कि बॉन सम्मेलन में दुनिया के देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिये अपने-अपने लक्ष्य घोषित करने होंगे। प्रत्येक पांच साल में उनकी समीक्षा होगी। फिर नए सिरे से उनको निर्धारित किया जाएगा। खुशी की बात यह है कि दुनिया के 148 देश उत्सर्जन में कमी लाने के लिये तैयार हैं। लेकिन दुख इस बात का है कि अब भी कुछ देश इसके लिये तैयार नहीं हैं। और-तो-और अभी तक उन्होंने इसके लिये जरूरी लक्ष्य तक निर्धारित नहीं किये हैं। जहां तक धनी देशों द्वारा गरीब देशों को इस खतरे से निपटने के लिये आर्थिक मदद देने के लिये 2020 तक 100 अरब डॉलर का हरित कोष बनाने का सवाल है, अभी तक इस कोष में बहुत कम राशि ही आ सकी है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति को लेकर पेरिस में सहमति बनी थी लेकिन उसके लिये कैसा तंत्र स्थापित किया जाये इस बारे में अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है।
इसी तरह जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिये गरीब और विकासशील देशों को कम कीमत पर तकनीक देने का सवाल है, इस पर भी अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है।
कोयला आधारित ऊर्जा के स्थान पर सौर ऊर्जा और उद्योगों में अक्षय ऊर्जा के उपयोग के सवाल पर सहमति भी सबसे बड़ा मुद्दा है। क्योंकि दुनिया में खासकर अमेरिका में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र ने रोजगार के अवसरों के मामले में जैव ईंधन क्षेत्र को पछाड़ दिया है। अक्षय ऊर्जा से सम्बन्धित उद्योगों में 2016 में पूरी दुनिया में तकरीब 81 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया। यह अच्छा संकेत है। जाहिर है इसका भी निर्णय बॉन में होना है।
दुनिया में कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका शीर्ष पर है और दुनिया में कार्बन उत्सर्जन के मामले में उसकी हिस्सेदारी 16.4 टन है जबकि इस मामले में रूस का योगदान 12.4 टन, जापान 10.4 टन, चीन 7.1 टन, यूरोप 7.4 टन और भारत का योगदान 1.6 टन है। दिसम्बर 2016 में मराखेज में यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की बैठक में तकरीब 200 देशों ने न केवल पेरिस समझौते का स्वागत किया बल्कि उन्होंने समझौते के क्रियान्वयन की दिशा में अपनी प्रतिबद्धता भी जाहिर की है। जी-7 के देशों के नेता भी इसका समर्थन कर चुके हैं।
अमेरिका के अन्दर भी ट्रंप प्रशासन पर दबाव है कि वह ग्लोबल वार्मिंग से लड़ाई में अपना सहयोग जारी रखे। गूगल, इन्टेल, माइक्रोसॉफ्ट, नेशनल ग्रिड, नोवांटिस कॉरपोशन, शेल, यूनीलीवर, रियो टिंटो, वॉलमार्ट, एपल, बीपी, डूपोंट आदि जानी-मानी कम्पनियां भी इसके समर्थन में हैं और उन्होंने इस बाबत ट्रंप प्रशासन से पत्र लिखकर अपील भी की है कि वह पेरिस समझौते में अपना सहयोग जारी रखें। यही नहीं कैलीफोर्निया, न्यूयार्क, ओरेगन सहित वहां के नौ राज्यों के गवर्नरों, लॉस एंजिलिस, सैन फ्रांसिस्को, न्यूयार्क, सिएटल आदि महानगरों के मेयरों तक ने पेरिस समझौते का समर्थन किया है और ट्रंप प्रशासन से अनुरोध किया है कि वह पेरिस समझौते से खुद को अलग न करे।
जहां तक भारत का सवाल है, भारत की प्रतिबद्धता तो पेरिस समझौते के अनुपालन की दिशा में जगजाहिर है। वह चाहे अक्षय ऊर्जा का क्षेत्र हो, एलईडी बल्बों, बिजली के उपकरणों की स्टार रेटिंग हो, वनीकरण हो या फिर ग्रीन बिल्डिंग का मुद्दा हो, वह तेजी से इस ओर प्रयासरत है। इन मामलों में भारत बराबर दावे-दर-दावे करता रहा है। हां, इनके क्रियान्वयन का सवाल जरूर सन्देहों के घेरे में है। बॉन पर दुनिया की निगाहें टिकी हैं। १
(इंडिया वाटर पोर्टल से साभार)