एक क्लिक में पढ़ें- अयोध्या राम मंदिर - बाबरी मस्जिद विवाद का सफर
इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को 3 महीने में ट्रस्ट बनाने को कहा है, कोर्ट ने निर्मोही अखाड़ा और वक्फ बोर्ड की याचिका खारिज कर दी है। इसी बीच बड़ा सवाल खड़ा होता है कि इस फैसले के कानूनी मायने क्या हैं
नई दिल्ली: अयोध्या राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को ऐतिहासिक फैसला दिया है।
कोर्ट ने विवादित भूमि का मालिकाना हक राम जन्मभूमि न्यास को दिया है, वहीं मुस्लिमों को मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में किसी और जगह 5 एकड़ वैकल्पिक जमीन दी जाएगी।
इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को 3 महीने में ट्रस्ट बनाने को कहा है, कोर्ट ने निर्मोही अखाड़ा और वक्फ बोर्ड की याचिका खारिज कर दी है। इसी बीच बड़ा सवाल खड़ा होता है कि इस फैसले के कानूनी मायने क्या हैं....
आपको बता दें कि अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देश के सबसे बड़े और चर्चित मुकदमे का अंत हो जाना चाहिए, लेकिन इस फैसले के बाद दूसरे पक्षों द्वारा पुनरावलोकन या फिर क्यूरेटिव पिटिशन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
लेकिन समझने की बात यह है कि पांच जजों द्वारा सहमति से दिए गए इस फैसले के बाद अब इसमें किसी बदलाव की गुंजाइश कम है, इस फैसले में अनेक अहम बातें कही गई हैं।
पुरातत्व विभाग की खुदाई...
विवादित स्थान पर परंपरा के आधार पर राम जन्मभूमि की मान्यता को पुरातत्व विभाग की खुदाई के प्रमाणों के आधार पर कानूनी मान्यता दी गई है।
कोर्ट के फैसले के अनुसार सुन्नी वक्फ बोर्ड अयोध्या में अन्य स्थान पर पांच एकड़ जमीन दी जाएगी, जहां पर मस्जिद का निर्माण किया जायेगा। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वालों के खिलाफ इस फैसले के बावजूद, आपराधिक मामला चलता रहेगा निर्मोही अखाड़े के दावे को लिमिटेशन के आधार पर अस्वीकार करने के बावजूद, मंदिर के लिए बनाए जाने वाले नए ट्रस्ट में उन्हें प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई है, इसके साथ ही शिया पक्ष के दावे को भी अस्वीकार कर दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अयोध्या के 1993 कानून के तहत ट्रस्ट बनाने और जमीन सौंपने के लिए निर्देश दिए हैं।
तत्कालीन पीएम नरसिंहराव...
आपको बता दें कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने हलफनामा देकर कहा था कि यदि पुरातत्व विभाग की खुदाई से मंदिर के पक्ष में प्रमाण मिले तो फिर मंदिर हेतु जमीन दी जा सकती है, जिसके लिए अयोध्या कानून की धारा 6 में प्रावधान हैं।
आपको बता दें कि पुरातत्व विभाग की खुदाई के प्रमाणों के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा इस जमीन को राम मंदिर के निर्माण हेतु दिया जा सकता है, अब इस पर 5 जजों की मुहर लगने के बाद यह विधिक व्यवस्था और बेहतर तरीके से पुष्ट हो गई है।
खास बात यह है कि न्यायिक व्यवस्था तर्क और प्रमाणों से चलती है, इसीलिए राम मंदिर के हक़ में फैसले के बावजूद सर्वोच्च अदालत ने आस्था के आधार पर हिन्दुओं के अनेक पक्षकारों द्वारा किए गए दावों को अस्वीकार कर दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थान को तीन भागों में विभाजित किया था, जिसे सर्वोच्च अदालत ने अस्वीकार कर दिया।
फैसले का निष्कर्ष...
राममंदिर के पक्ष में देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक सुखद निर्णय हैं, इस फैसले के अनेक निष्कर्ष भी सामने आयेंगे, जो आने वाले समय में न्यायिक सुधारों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
यह मामला पिछली दो शताब्दियों से प्रशासन और अदालतों के समक्ष विवादों से घिरा है, सुप्रीम कोर्ट में भी यह मामला नौ वर्षों से लंबित था।
चीफ जस्टिस गोगोई...
वर्तमान चीफ जस्टिस गोगोई ने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इतने पुराने मामले को दो महीने में निपटा कर एक बड़ी मिसाल कायम की है. इस सबक को यदि न्यायपालिका के सभी जजों द्वारा अपना लिया जाए तो देश में तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मामलों का जल्द फैसला हो सकता है।
उम्मीद है कि आगामी चीफ जस्टिस द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल होगा जिससे न्यायपालिका में पारदर्शिता के साथ लोगों का भरोसा और बढ़ सके. सभी पक्षों द्वारा इस फैसले का सम्मान किया जाना जरूरी है, जिससे क़ानून के शासन के साथ भारत की न्यायिक व्यवस्था को एक नयी ऊंचाई मिल सके।