जयपुर: राजस्थान में विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है। दिन गुजरने के साथ मरुभूमि में सत्ता संघर्ष की आंधी और काली-पीली होने लगेगी। सत्ता का संग्राम और तेज हो जाएगा। सियासत की बाजी किसके हाथ लगेगी, यह तो दिसम्बर में नतीजे आने पर ही पता चलेगा जिसके लिए खिलाड़ी अभी से प्राण पण से जुट गए हैं। गौरव रथ पर सवार हो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपनी चुनावी यात्रा पर निकल चुकी हैं तो वहीं भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह सूबे की धरा को इंच-इंच नापने में जुटे हैं। वसुंधरा के सामने अपनी कामयाबियों को कायम रखने की चुनौती है। भाजपा को अहसास है कि इस बार पनघट की डगर बहुत कठिन है। पार्टी यह हकीकत जान चुकी है कि सामने चुनौतियों का पहाड़ है जिसे पार करना कोई हंसी खेल नहीं है। लिहाजा भाजपा अपने चुनावी मोर्चों को लगातार खोलती जा रही है।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है पिछले 25 साल के चुनावी ट्रेंड को तोडक़र सत्ता में वापसी करना। 1993 के चुनावों के बाद से हर बार मतदाता सत्ता में बैठी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाता आ रहा है। लिहाजा मनौवैज्ञानिक रूप में सरकार पर आशंकाओं के बादल गहराना स्वाभाविक ही है। वहीं इस साल की शुरुआत में हुए उपचुनावों में मिली इकतरफा हार ने जमीनी हालातों की ओर पहले ही इशारा कर दिया है।
कांग्रेस की आक्रामक रणनीति
वहीं दूसरी ओर कांग्रेस आक्रामक मुद्रा में चुनौती पेश करती नजर आ रही है। इस सरकार के कार्यकाल में हुए उपचुनावों में सत्ताधारी दल पर बाजी मारकर अपनी ताकत का अहसास कराने वाली कांग्रेस मेरा बूथ-मेरा गौरव और संकल्प यात्रा जैसे कार्यक्रमों के जरिए निरंतर सक्रिय बनी हुई है। इन चुनावों में भाजपा को सचिन पायलट और अशोक गहलोत की कांग्रेस की दुधारी चुनौती से भी निपटना होगा।
पिछले साढ़े चार साल से पार्टी की कमान संभाले हुए प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट युवा और तेज तर्रार राजनेता हैं। इस सरकार के कार्यकाल में हुए उपचुनावों में पार्टी की फतह की पताका फहरा कर उन्होंने अपना राजनीतिक कौशल दिखा दिया है। वहीं अशोक गहलोत के रूप में कांग्रेस के पास ऐसा धुरंधर है जो राजनीति के हर मोर्चे का माहिर लड़ाका है। गहलोत को राजनीति का जादूगर व मारवाड़ का गांधी आदि कई विशेषणों से पुकारा जाता है। दोनों ही नेता कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी हैं। साल की शुरुआत में अलवर और अजमेर लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनावों में मिली एकतरफा जीत के बाद से तो कांग्रेस के हौसले आसमान पर हैं।
वसुंधरा के खाते में कई कामयाबियां
राजस्थान भाजपा के पितृपुरुष भैरों सिंह शेखावत के उपराष्टï्रपति बनने के बाद पार्टी ने राजस्थान की कमान वसुंधरा राजे को सौंपी। 2003 के विस चुनावों में पहली बार पूर्ण बहुमत से भाजपा की सरकार बनाने से लेकर 2014 के विधानसभा चुनावों में 163 सीटों की रिकॉर्ड जीत तक अनेक कामयाबियां उनके खाते में दर्ज हैं। हालांकि 2008 के विस चुनावों में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा, लेकिन 78 सीटों के साथ यह हार भी उनके लिए सम्मानजनक थी। वहीं कांग्रेस भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाई थी।
वसुंधरा राजे राजनीति की जमीनी खिलाड़ी हैं और किसी भी बाजी में हारना उन्हें मंजूर नहीं है। उन्होंने भाजपा को परंपरागत शहरी पार्टी की छवि से बाहर निकालकर गांव-ढाणी तक पहुंचाया। ब्राह्मïण-बनियों की पार्टी से आगे ओबीसी और एससी-एसटी तक ले गयीं। इसी ने कांग्रेस के वोटों के गणित को बिगाड़ डाला। आज वो राजस्थान भाजपा की एकछत्र नेता और जनता में पार्टी का सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं। ऐसे में इन चुनावों में सत्ता में वापसी के साथ ही अपनी कामयाबियों को कायम रखना उनके लिए बड़ी चुनौती होगी।
भाजपा ने मजबूत किया अपना वोट बैंक
वैसे यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या इन विजयों से कांग्रेस के लिए विधानसभा की राह आसान हो जाती है? इसका जवाब पिछले बीस सालों के विधानसभा चुनावों के आंकड़ों से मिल जाता है। इन सालों में भाजपा ने कांग्रेस की सियासी जमीन को बुरी तरह से दरका दिया है। पिछले 20 सालों के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान भाजपा ने अपने वोटों में 11 फीसदी का इजाफा करते हुए अपनी सीटों की संख्या में 130 तक की बढ़ोतरी की है तो कांग्रेस का वोट 12 प्रतिशत कम हो गया। इस दौरान कांग्रेस को विधानसभा की मात्र 21 सीटों पर सिमटकर अपने सबसे बुरे दिन भी देखने पड़े हैं। भाजपा की इस चमत्कारिक कामयाबी का श्रेय जिसे जाता है वो हैं वसुंधरा राजे। वसुंधरा राजे की झोली राजनतिक कामयाबियों से भरी है।