Bhagavad Gita Quotes: श्री कृष्ण कहते हैं कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं

Bhagavad Gita Quotes: भगवत गीता में लिखीं बातें आज भी काफी तर्क सांगत हैं अगर मनुष्य इन्हे अपने जीवन में अपना ले तो उसे किसी भी तरह का डर या चिंता नहीं होगी।

Update:2024-06-09 11:27 IST

Bhagavad Gita Quotes (Image Credit-Social Media)

Bhagavad Gita Quotes: भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्यों को कर्म करने की प्रेरणा दी है उनके द्वारा कहे गए कई सारे श्लोक जीवन का सार हैं वो हमे जीने की सीख के साथ-साथ ये एहसास भी कराते हैं कि जीवन में कौन सा रास्ता आपके लिए सही है और कौन सा नहीं। वहीँ अपने जीवन में अगर आप भी संघर्ष कर रहे हैं तो आपको ये सीखने की ज़रूरत है कि आपके लिए क्या सही है और क्या गलत। आइये एक नज़र डालते हैं इन भगवत गीता कोट्स पर।

भगवत गीता कोट्स (Bhagavad Gita Quotes)

  • कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।
  • हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।
  • समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है, अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है।
  • इससे तू समत्वरूप योग में लग जा; यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है।
  • बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।
  • कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
  • क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।
  • संयमरहित अयुक्त पुरुष को आत्म ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती। भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ ?
  • जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति प्राप्त करता है।
  • कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह पूर्णत्व प्राप्त करता है।
  • जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रयों इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है,वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।
  • तुम अपने नियत कर्तव्य कर्म करो क्योंकि अकर्म से श्रेष्ठ कर्म है। तुम्हारे अकर्म होने से तुम्हारा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
  • यज्ञ के लिये किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है इसलिए हे कौन्तेय आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक आचरण करो।
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