Bhartendu Harishchand Death Anniversary: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र साहित्य का ऐसा चेहरा, जिनके नाम पर हो गया एक पूरा युग

Bharatendu Harishchandra Jivan Parichay: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक के रूप में पहचाना जाता है। 6 जनवरी को उनकी डेथ एनीवर्सरी है। आइए जानते हैं उनके बारे में विस्तार से।;

Written By :  AKshita Pidiha
Update:2025-01-05 13:31 IST

Bhartendu Harishchand (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Bharatendu Harishchandra Death Anniversary: भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (Bharatendu Harishchandra) हिंदी साहित्य के पितामह के रूप में प्रसिद्ध हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक के रूप में पहचाने जाने वाले भारतेन्दु ने न केवल साहित्य को एक नई दिशा दी, बल्कि समाज और राष्ट्र को जागरूक करने का कार्य भी किया। उनका जन्म 9 सितंबर, 1850 को वाराणसी के एक संपन्न ज़मींदार परिवार में हुआ था।उनका मूल नाम ‘हरिश्चंद्र’ था और ‘भारतेंदु’ उनकी उपाधि थी।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा (Bharatendu Harishchandra Education)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

भारतेन्दु का बचपन विलासिता और सांस्कृतिक वातावरण में बीता। उनके पिता, गोपालचंद्र, एक प्रसिद्ध कवि थे और ‘गिरधर दास’ के नाम से जाने जाते थे। भारतेन्दु ने प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में ही प्राप्त की। कम आयु में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा और साहित्यिक रुचि का परिचय देना शुरू कर दिया था। मात्र 5 वर्ष की आयु में उन्होंने ‘बंदर का बालक’ नामक कविता लिखी, जो उनकी रचनात्मकता का प्रारंभिक प्रमाण थी।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की आरंभिक शिक्षा की शुरुआत बनारस के ‘क्वींस कॉलेज’ से हुई किंतु माता-पिता के निधन और व्यक्तिगत कारणों के कारण उनकी शिक्षा पूरी न हो सकी, परंतु विलक्षण प्रतिभा के धनी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने आगे स्वाध्याय ही जारी रखा और कई भारतीय भाषा सीखी । जिनमें संस्कृत, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी व उर्दू शमिल थी। वहीं उस दौर में प्रतिष्ठित लेखक व अंग्रेजी भाषा के ज्ञाता राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ से उन्होंने अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त किया।

साहित्यिक योगदान (Bharatendu Harishchandra Literary Contribution)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का साहित्यिक जीवन बहुआयामी था। उन्होंने कविता, नाटक, निबंध, पत्रकारिता और गद्य साहित्य के विभिन्न रूपों में योगदान दिया। वे हिंदी साहित्य के उन पहले रचनाकारों में से थे जिन्होंने साहित्य को केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं माना, बल्कि इसे समाज सुधार और राष्ट्रीय चेतना का साधन बनाया।

कविता (Bharatendu Harishchandra Ki Kavita)

भारतेन्दु की कविताओं में तत्कालीन समाज की परिस्थितियों और राष्ट्रप्रेम का अद्भुत समावेश देखने को मिलता है। उनकी कविताओं में भक्ति, शृंगार और वीर रस की प्रधानता है। कुछ प्रमुख कविताएँ हैं. ‘भारत दुर्दशा’: इस कविता में उन्होंने भारत की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है। ‘विजयिनी विजय भारत’: यह कविता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनकी गहरी भावना को दर्शाती है।

नाटक (Bharatendu Harishchandra Ke Natak)

भारतेन्दु हिंदी नाटक के अग्रदूत माने जाते हैं। उन्होंने नाटक को सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के समाधान का माध्यम बनाया। उनके नाटकों में व्यंग्य और हास्य के माध्यम से गहन संदेश दिए गए हैं। प्रमुख नाटक हैं-

‘अंधेर नगरी’: यह नाटक न्याय और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रहार करता है।

‘भारत दुर्दशा’: इस नाटक में अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज और संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभावों को दिखाया गया है।

निबंध और गद्य साहित्य (Bharatendu Harishchandra Ke Nibandh)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

भारतेन्दु ने अपने निबंधों और गद्य रचनाओं के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार पर बल दिया। उनके निबंध सरल भाषा में होते थे और पाठकों को गहराई तक प्रभावित करते थे। उनके गद्य साहित्य में आधुनिकता और परंपरा का सुंदर समावेश है।

पत्रकारिता (Journalism)

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भाषा और साहित्य के साथ साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपना विशेष योगदान दिया था। बता दें कि जिस समय भारतेंदु हरिश्चंद्र का साहित्य और पत्रकारिता जगत में पर्दापण हुआ था उस समय भारत पर ब्रिटिश हुकूमत का शासन हुआ करता था। वहीं गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए उस भारत में अंग्रेजी पढ़ना और लिखना शान की बात समझी जाती थी। किंतु हिंदी के प्रति जनसमुदाय में विशेष आकर्षण का भाव थोड़ा कम था। उनकी प्रमुख पत्रिकाएँ थी।

‘कविवचन सुधा’ इस पत्रिका ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ इसमें सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर लेख प्रकाशित होते थे।‘बाला बोधिनी’इस पत्रिका का उद्देश्य महिलाओं और बच्चों को शिक्षित करना था।

समाज सुधार में योगदान

भारतेन्दु केवल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह, शिक्षा, स्वदेशी आंदोलन, और जाति प्रथा के उन्मूलन जैसे मुद्दों पर जोर दिया। उनकी रचनाओं में इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है।

भाषा और शैली (Bharatendu Harishchandra Ki Bhasha Shaili)

भारतेन्दु ने हिंदी को खड़ी बोली के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भाषा को सरल, सहज और जनसाधारण के लिए उपयुक्त बनाया। उनकी रचनाएँ पढ़ने में रोचक और भावनात्मक रूप से प्रभावशाली होती हैं।

भारतेन्दु युग (Bhartendu Period)

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाम पर हिंदी साहित्य के एक युग को ‘भारतेन्दु युग’ कहा जाता है। यह युग 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण का काल था। इस युग में साहित्य ने पारंपरिक पद्धतियों से हटकर समाज और राष्ट्र के प्रति जागरूकता बढ़ाने का कार्य किया।

व्यक्तिगत जीवन (Bharatendu Harishchandr Personal Life)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

भारतेन्दु का व्यक्तिगत जीवन काफी चुनौतीपूर्ण था। उन्होंने मात्र 15 वर्ष की आयु में अपने माता-पिता को खो दिया। इसके बावजूद उन्होंने साहित्य और समाज सेवा में अपनी ऊर्जा लगाई। उनकी उदारता और दानशीलता के कारण वे ‘भारतेन्दु’ कहे जाने लगे। उन्होंने अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा समाज सेवा में खर्च किया।

गरीबों के प्रति उदारता

वे अत्‍यंत धनाढ्य परिवार से थे। मगर साहित्‍य की सेवा और गरीबों के प्रति उदारता के कारण सबकुछ लुटा दिया। किसी को दु:खी और परेशान देखकर उसे तन के वस्त्र तक उतारकर दे देना भारतेंदु का सामान्‍य व्‍यवहार था। धनहीन होने पर उन्हें सबसे ज्यादा अफसोस इसी बात का होता था कि वह निर्धनों की सहायता नहीं कर पा रहे थे।

भारतेंदु के दान की बहुत-सी कहानियां प्रसिद्ध हैं। सर्दियों की रात में बाहर घूमते हुए उन्हें एक दरिद्र सोता हुआ मिला। उसे सर्दी से ठिठुरता देखकर उन्होंने उसे अपना दुशाला ओढ़ा दिया। एक बार नीचे फकीर को ओढना मांगते देखकर ऊपर से ही उसे दुशाला भेंट किया। किसी गरीब को फूलों का गजरा उतारकर उसमें पांच का नोट छिपाकर दे दिया। किसी को बेटी ब्याहने के लिए पेटी में दो सौ रुपये और साड़ियां भेंट की। कुछ न रहने पर एक निर्धन को लड़कियां ब्याहने के लिए उन्होंने हाथ की अंगूठी उतारकर दे दी और अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहा, “मेरे यहां धन का अभाव है; यह अंगूठी आप ही के भाग्य से बची रह गई थी, इसे लीजिए।”

यह भी सर्वविदित है कि पुस्तकें और पत्रिकाएं छापने के लिए उन्होंने अपना खजाना खोल दिया। पुस्तकों के लिए पुरस्कार देने, दूसरों को पुस्तकें देने, साहित्यकारों की आर्थिक सहायता करने में उन्‍होंने कितना खर्च किया इसका कोई हिसाब नहीं है।

अंग्रेजों के साथ-साथ भारत की भी खुली आलोचना

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

चर्चित नाटक ‘भारत दुर्दशा’ में भारतेंदु ने अंग्रेजी राज की जितनी तीखी आलोचना की है, उतनी ही तीखी आलोचना भारतीय जनता की भी की है। इसमें एक ओर अंग्रेजी शासन और शोषण के दृश्‍य हैं तो दूसरी ओर भारतीय जनता के आलस्‍य, अंधविश्वास, भाग्यवाद और जातिवाद की तस्‍वीरें भी है। इन दृश्‍यों में भारत की उन्‍नति के बीज छिपे हैं।

साहित्य निर्माण में डूबे रहने के बाद भी वे सामाजिक सरोकारों से अछूते नहीं थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा का सदा पक्ष लिया। 17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक पाठशाला खोली, जो अब हरिश्‍चंद्र डिग्री कॉलेज बन गया है। यह हमारे देश, धर्म और भाषा का दुर्भाग्य रहा कि इतना प्रतिभाशाली साहित्यकार मात्र 35 वर्ष की अवस्था में ही 1885 में काल के गाल में समा गया। इस अवधि में ही उन्होंने 75 से अधिक ग्रंथों की रचना की, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इतने ही समय में उन्होंने गद्य से लेकर कविता, नाटक और पत्रकारिता तक हिंदी का पूरा स्वरूप बदलकर रख दिया।

माना जाता है कि वर्ष 1882 में राजस्थान के मेवाड़ से यात्रा करने के बाद उनका स्वास्थ्य ख़राब हो गया । लेकिन उपचार के बाद भी वह पूरी तरह से स्वस्थ न हो पाए। इसके बाद उनका 06 जनवरी, 1885 को मात्र 35 वर्ष की आयु में निधन हो गया। भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवनकाल लंबा तो नहीं रहा । किंतु उन्होंने जिस भी विधा में साहित्य का सृजन किया वह कालजयी हो गई। इसके साथ ही उनके विशेष साहित्यिक योगदान के कारण 1857 से 1900 तक के काल को ‘भारतेन्दु युग’ के नाम से जाना गया।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का हिंदी साहित्य और समाज पर प्रभाव अपार है। उन्होंने साहित्य को एक नई दिशा दी और समाज सुधार के लिए अपनी लेखनी का उपयोग किया। उनका जीवन प्रेरणादायक है और उनकी रचनाएँ सदैव प्रासंगिक रहेंगी।

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