Harivansh Rai Bachchan Biography: जब अपने पिता हरिवंश राय बच्चन के लिखे गीतों पर अमिताभ बच्चन और रेखा ने लगाये थे ठुमके
Harivansh Rai Bachchan Ka Jivan Parichay: हिंदी साहित्य में साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन का स्थान अद्वितीय है। बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन उनके ही बेटे हैं।
Harivansh Rai Bachchan Songs: आप सभी को ये मालूम होगा कि बॉलीवुड के शहंशाह कहे जाने वाले दिग्गज एक्टर अमिताभ बच्चन (Amitabh) हिंदी भाषा के जाने माने कवि और लेखक हरिवंश राय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan) के बेटे हैं। लेकिन क्या आप ये जानते हैं हरिवंश राय ने अपने बेटे की फिल्मों के लिए कई गीत भी लिखे थे। जी हां, आज हम आपको कुछ ऐसे ही गीतों के बारें में बताने जा रहे हैं। इनमें से कुछ गानों पर अमिताभ बच्चन ने जमकर ठुमके भी लगाए थे।
हरिवंश राय बच्चन द्वारा रचित फिल्म सिलसिला का होली गीत
होली है.. हो.. रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे होली है..
अरे कीने मारी पिचकारी तोहरी भीगी अंगिया हो रंग रसिया,
रंग रसिया हो हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली,
रंग बरसे हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली,
रंग बरसे हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली,
रंग बरसे हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे...
सोने की थाली में ज्योना परोसे,
अरे सोने की थाली में ज्योना परोसे,
अरे खाए गोरी का यार
बलम तरसे, रंग बरसे। होली है...
हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली,
रंग बरसे हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली,
रंग बरसे
लाउंगा इलायची का,
अरे लाउंगा इलायची का बीड़ा लगाया..
हां अरे लाउंगा इलायची का बीड़ा लगाया ,
रंग बरसे हो रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे।।
इन फिल्मों के लिए भी लिखे गाने
इस प्रसिद्ध होली गीत के अतिरिक्त हरिवंश राय बच्चन ने अपने बेटे अमिताभ बच्चन की कई अन्य फ़िल्मों के लिए भी गाने लिखे थे। इनमें से कुछ और गाने ये रहे-
मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है (लावारिस)
कोई गाता मैं सो जाता (अलाप)
सांझ खिले भोर झड़े (फ़िर भी)
नीरस विषयों में भी रस घोलने में माहिर थे हरिवंश राय बच्चन
’बनी रहें अंगूर लताएं जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिट्टी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला’
बहुचर्चित मधुशाला काव्य रचना की इन पंक्तियों के जरिए आज हम जिक्र कर रहें हैं साहित्य के हस्ताक्षर हरिवंश राय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan) का, जिन्हें युगों युगों तक लोग उनकी अनमोल रचनाओं के जरिए याद करते रहेंगे। ये हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल खंड के प्रसिद्ध कवियों में शुमार थे। हालावाद के प्रवर्तक कवि हरिवंश राय बच्चन नीरस विषयों को भी पठनीय और सरस ढंग से प्रस्तुत करने में माहिर थे। यही वजह है कि हिंदी साहित्य में उनका स्थान अद्वितीय है। हरिवंश राय बच्चन जी की रचनाओं में प्रायः प्रांजल शैली के साथ यमक, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग किया गया है। इसके अलावा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली और संस्कृत की दशम शब्दावली भी प्रयुक्त की गई है।
हालावाद के साथ रहस्यवादी भावना का अनूठा एवं अद्भुत संगम उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। उनकी कविताओं में प्रेम और सौन्दर्य सामाजिक चेतना के भाव मुखरित हैं। हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला उनकी काव्य प्रतिभा का एक बेहतर प्रमाण है। बच्चन की यह कृति जग प्रसिद्ध है। इस काव्य रचना में प्रयुक्त की गई सरल भाषा इंसान के जीवन के रहस्य और पहलुओं को बहुत ही सरल ढंग से पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करती है। हरिवंश राय बच्चन की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को एक नया आयाम दिया और पाठकों के दिलों में अपनी विशेष जगह बनाई। उनकी कविता का छायावादी युग में विशेष महत्व रहा है, जो कि 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन था। आइए जानते हैं इनके जीवन से जुड़े तमाम कहे अनकहे पहलुओं के बारे में...
साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय (Harivansh Rai Bachchan Ka Jivan Parichay In Hindi)
साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर, 1907 को उत्तर प्रदेश के एक कायस्थ परिवार में गांव बाबू पट्टी, ज़िला प्रतापगढ़ में हुआ था। डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन का शुरुआती जीवन ग्राम बाबू पट्टी में ही बीता। उनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवं उनकी माता का नाम सरस्वती देवी था। बचपन में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से बच्चन नाम से पुकारते थे। हरिवंश राय बच्चन ने अपने नाम के आगे श्रीवास्तव लिखने की जगह, अपने परिजनों द्वारा बचपन से पुकारे जाने वाले नाम बच्चन को ही सरनेम बनाया।
हरिवंश राय बच्चन के बारे में जरूरी डिटेल्स (Harivansh Rai Bachchan Ke Bare Mein In Hindi)
पूरा नाम | डॉ हरिवंश राय बच्चन |
असली नाम | हरिवंश राय श्रीवास्तव |
जन्म | 27 नवंबर, 1907, प्रतापगढ़ |
जन्म स्थान | गांव बाबू पट्टी, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश। |
पिता का नाम | प्रताप नारायण श्रीवास्तव |
माता का नाम | सरस्वती देवी |
पहली पत्नी | श्यामा देवी |
दूसरी पत्नी | तेजी बच्चन |
पेशा | लेखक, कवि ,साहित्यकार |
शैली | हिंदी छायावाद |
बच्चे | अमिताभ बच्चन, अजिताभ बच्चन। |
मृत्यु | 18 जनवरी, 2003, मुंबई (95 वर्ष) |
अवॉर्ड | पद्मभूषण ,साहित्य अकादमी आदि। |
ऐसा था आरंभिक जीवन
हरिवंश राय बच्चन ने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा ली, जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में डॉक्टरेट और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू.बी. यीट्स की कविताओं पर शोध पूरा किया।
हुईं थीं दो शादियां (Harivansh Rai Bachchan Wife)
हरिवंश राय बच्चन के दो विवाह हुए थे। जिनमें से इनकी पहली शादी 1926 में हुई थी, तब ये मात्र 19 वर्ष के थे। वहीं, इनकी पत्नी श्यामा बच्चन उस समय मात्र 14 वर्ष की थीं। जिनकी मृत्यु 1936 में टीबी की गंभीर बीमारी के कारण हो गई। जिसके करीब 5 वर्षों के बाद 1941 में हरिवंश बच्चन ने एक पंजाबी परिवार से जुड़ी महिला तेजी सूरी से विवाह किया। जिनकी रुचि रंगमंच तथा गायन में थी। तेजी बच्चन ने शेक्सपियर के अनूदित कई नाटकों में अभिनय किया है। बच्चन जी ने विवाह के दौरान ही ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ जैसी कविताओं की रचना की। विवाह के पश्चात तेजी बच्चन ने अमिताभ तथा अजिताभ दो संतानों (Harivansh Rai Bachchan Ke Kitne Bacche The) को जन्म दिया।
उर्दू की शिक्षा उनके खानदान की परंपरा थी (Harivansh Rai Bachchan Education In Hindi)
इस महान साहित्यकार के शुरुआती शिक्षा अपने जिले के प्राथमिक स्कूल से हुई, उसके बाद कायस्थ पाठशाला से उर्दू की शिक्षा ली, जो उनके खानदान की परंपरा भी थी। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में डाक्टरेट की पढ़ाई पूरी की। गांधी जी का असहयोग आन्दोलन शुरू होने के कारण सन् 1930 में उन्होंने प्रथम वर्ष पास करने के बाद पढाई छोड़ दी, जिसे उन्होंने सन् 1937-38 में पूरा किया। अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर रिसर्च करने के लिए वह कैम्ब्रिज भी गए।
हरिवंश राय बच्चन ने सन् 1941-1952 तक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में काम किया। इसके साथ-साथ वह आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र से भी जुड़े रहे। 1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त हो गए। हरिवशं राय बच्चन राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे है।
देश के कई बड़े सम्मान से हुए विभूषित (Harivansh Rai Bachchan Awards)
हिन्दी साहित्य में बेहतरीन योगदान के लिए 1976 में हरिवंश राय बच्चन को पद्मभूषण की उपाधि मिली। इससे पहले उनको ‘दो चट्टाने’ के लिए 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था। हरिवंश राय बच्चन को सबसे बड़ी प्रसिद्धि मिली सन् 1935 में जब उनकी कविता मधुशाला छपि। 1968 में अपनी रचना “दो चट्टानें” कविता के लिए भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। कुछ समय बाद उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और एफ्रो एसियन सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
उनकी सफल जीवन कथा, ‘क्या भूलूं क्या याद रखूं’ , ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान’ के लिए बिरला फाउंडेशन द्वारा सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1976 में उनके हिंदी भाषा के विकास में अभूतपूर्व योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। इसके अलावा सन् 1966 में वह राज्य सभा के सदस्य के रूप में भी चुने गए।
इनका लिखा फिल्मी गीत हुआ सुपरहिट (Harivansh Rai Bachchan Film Songs)
हिन्दी साहित्य में अपनी बेधड़क लेखनी आबाद करने के साथ ही इन्होंने फिल्मों के लिए भी गीत लिखने का काम किया। शायद कम लोगों को ही इस बात की जानकारी होगी कि अमिताभ के द्वारा अभिनय किया गया एक मशहूर गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे’ उन्होंने ही लिखा था, जिसे खुद उनके बेटे अमिताभ बच्चन ने अपनी फिल्म में गाया और ये गीत सुपर हिट रहा। होली के इस गीत पर रेखा और अमिताभ ने जमकर ठुमके लगाए थे।
कहा जाता है कि हरिवंश राय बच्चन के जीवन में पहली पत्नी श्यामा की मौत और तेजी बच्चन के साथ विवाह उनकी जिंदगी के दो सबसे महत्तवपूर्ण पहलू रहे हैं, यही वजह थी कि उन्होंने अपनी काव्य रचनाओं में हमेशा इन दोनों ही व्यक्तित्व को स्थान प्रदान किया है। उनकी आत्मकथा ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान’ तक उनके बहुमूल्य लेखन में ऐसी ही झलक देखने को मिलती है।
फारसी कवि की अनुवादित रचनाएं बनी मधुशाला की प्रेरणा
हरिवंश राय बच्चन बचपन से ही कलम के धनी थे। इसी जुनून के कारण उन्होंने फारसी कवि उम्र शाम की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था। इसी बात से प्रोत्साहित होकर उन्होंने कई कृतियाँ लिखीं, जिनमें ‘मधुशाला’, ‘मधुबाला’, ‘मधु कलश’ आदि शामिल हैं। जिसमें ‘मधुशाला’ काव्य को बेहद प्रसिद्धि हासिल हुई। हरिवंश राय बच्चन को उमर खय्याम की ही तरह शेक्सपियर, मैकबेथ और आथेलो और भगवत गीता जैसी चर्चित पुस्तकों के हिंदी अनुवाद के लिए याद किया जाता है।
हरिवंश राय बच्चन की मुख्य कृतियां कौन सी हैं (Harivansh Rai Bachchan Ki Kritiyan Kaun-Kaun Si Hai)
हरिवंश राय बच्चन द्वारा वैसे तो अनगिनत साहित्य की रचना की गई है, जिनमें से लिखी गईं प्रमुख रचनाएं ‘मधुशाला’, ‘दो चट्टानें’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’, ‘सतरंगिनी’, ‘मधुबाला’ आदि का नाम आता है। वहीं हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा की बात करें तो हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा चार खंड़ो में लिखी हुई है। जैसे- ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नींड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’, ‘दशद्वारा से सोपान तक’ कुल चार संस्करण है।
उनकी सबसे प्रसिद्ध काव्य कृतियों में से ‘निशा निमंत्रण’, ‘मिलन यामिनी’, ‘धार के इधर-उधर’, ‘मधुशाला’ प्रमुख है। हरिवंश राय बच्चन की गद्य रचनाओं में ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’,’टूटी छूटी कड़ियां’, ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ आदि श्रेष्ठ है। ‘मधुबाला’,’ मधुकलश’, ‘सतरंगीनी’, ‘एकांत संगीत’ , ‘निशा निमंत्रण’, ‘विकल विश्व’, ‘खादी के फूल’ , ‘सूत की माला’, ‘मिलन’, ‘दो चट्टानें’ ‘भारती और अंगारे’ इत्यादि हरिवंश राय बच्चन की मुख्य कृतियां है। इस महान कवि ने गीतों के लिए आत्मकथा, निराशा और वेदना को अपने काव्य का विषय बनाया है।
हरिवंश राय बच्चन की मृत्यु (Harivansh Rai Bachchan Death)
हिन्दी साहित्य के खजाने में अपनी अनगिनत कालजई रचनाओं को शामिल करने वाले इस महान कवि ने 95 वर्ष की आयु में 3 जनवरी, 2003 को मुंबई में इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के अकूत योगदान के चलते उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।
इनकी पहली और अंतिम रचना क्या थी?
उनका पहला काव्य-संग्रह ’तेरा हार’ 1932 में प्रकाशित हुआ। 1935 में प्रकाशित उनका दूसरा संग्रह ’मधुशाला’ उनकी स्थायी लोकप्रियता और प्रसिद्धि का कारण बना। बच्चन मधुशाला का पर्याय ही बन गए। वहीं 1984 में उन्होंने अपनी आखिरी कविता लिखी “एक नवंबर 1984”, जो इंदिरा गाँधी की हत्या पर आधारित थी।
साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन द्वारा रचित प्रमुख 10 काव्य रचनाएं....
1. साथी, सो न, कर कुछ बात
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बोलते उडुगण परस्पर,
तरु दलों में मंद ‘मरमर’,
बात करतीं सरि-लहरियाँ कूल से जल-स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
पूर्ण कर दे वह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात!
2. आओ हम पथ से हट जाएँ
आओ हम पथ से हट जाएँ!
युवती और युवक मदमाते
उत्सव आज मानने आते,
लिए नयन में स्वप्न, वचन में हर्ष, हृदय में अभिलाषाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
इनकी इन मधुमय घड़ियों में,
हास-लास की फुलझड़ियों में,
हम न अमंगल शब्द निकालें, हम न अमंगल अश्रु बहाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
यदि इनका सुख सपना टूटे,
काल इन्हें भी हम-सा लूटे,
धैर्य बँधाएँ इनके उर को हम पथिकों की किरण कथाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
3. इसकी मुझको लाज नहीं है
मैं सुख पर सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
जिसने कलियों के अधरों में
रस रक्खा पहले शरमाए,
जिसने अलियों के पंखों में
प्यास भरी वह सिर लटकाए,
आँख करे वह नीची जिसने
यौवन का उन्माद उभारा,
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
मन में सावन-भादों बरसे,
जीभ करे, पर, पानी-पानी!
चलती-फलती है दुनिया में
बहुधा ऐसी बेईमानी,
पूर्वज मेरे, किंतु, हृदय की
सच्चाई पर मिटते आए,
मधुवन भोगे, मरु उपदेशे मेरे वंश रिवाज़ नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
चला सफ़र पर जब तक मैंने
पथ पूछा अपने अनुभव से,
अपनी एक भूल से सीखा
ज़्यादा, औरों के सच सौ से,
मैं बोला जो मेरी नाड़ी
में डोला, जो रग में घूमा,
मेरी नाड़ी आज किताबी नक़्शों की मोहताज नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
अधरामृत की उस तह तक मैं
पहुँचा विष को भी चख आया,
और गया सुख को पिछुआता
पीर जहाँ वह बनकर छाया,
मृत्यु गोद में जीवन अपनी
अंतिम सीमा पर लेटा था,
राग जहाँ पर, तीव्र अधिकतम है, उसमें आवाज़ नहीं है।
मैं सुख पर, सुखमा पर रीझा, इसकी मुझको लाज नहीं है।
4. जो बीत गई
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई
5. चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
दिवस में सबके लिए बस एक जग है
रात में हर एक की दुनिया अलग है,
कल्पना करने लगी अब राह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
भूमि के उर तप्त करता चंद्र शीतल
व्योम की छाती जुड़ाती रश्मि कोमल,
किंतु भरतीं भवनाएँ दाह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
कुछ अँधेरा, कुछ उजाला, क्या समा है!
कुछ करो, इस चाँदनी में सब क्षमा है;
किंतु बैठा मैं सँजोए आह मन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
चाँद निखरा, चंद्रिका निखरी हुई है,
भूमि से आकाश तक बिखरी हुई है,
काश मैं भी यों बिखर सकता भूवन में;
चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में।
6. प्रणय पत्रिका
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ
जड़ जग के उपहार सभी हैं
धार आँसुओं की बिन वाणी
शब्द नहीं कह पाते तुमसे
मेरे मन की मर्म कहानी
उर की आग, राग ही केवल
कंठस्थल में लेकर चलता
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ
जान-समझ मैं तुमको लूँगा
यह मेरा अभिमान कभी था
अब अनुभव यह बतलाता है
मैं कितना नादान कभी था
योग्य कभी स्वर मेरा होगा
विवश उसे तुम दुहराओगे?
बहुत यही है अगर तुम्हारे अधरों से परिचित हो जाऊँ
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ
7. अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!
वृक्ष हों भलें खड़े,
हों घने, हों बड़ें,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!—कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
यह महान दृश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
8. मुझे पुकार लो
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
एक
ज़मीन है न बोलती
न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे
नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ
न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका
दिमाग़-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो
उमीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
दो
तिमिर-समुद्र कर सकी
न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी,
विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला,
न कोर भोर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी
विरह-घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे
कमी ख़ली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
तीन
उजाड़ से लगा चुका
उमीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की,
बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका
सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका
उमीद मैं तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे
न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा
कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!
9. आज मुझसे दूर दुनिया
आज मुझसे दूर दुनिया!
भावनाओं से विनिर्मित,
कल्पनाओं से सुसज्जित,
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
‘बात पिछली भूल जाओ,
दूसरी नगरी बसाओ’—
प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
वह समझ मुझको न पाती,
और मेरा दिल जलाती,
है चिता की राख कर मैं माँगती सिंदूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
10. न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
दिखाई पड़े पूर्व में जो सितारे,
वही आ गए ठीक ऊपर हमारे,
क्षितिज पश्चिमी है बुलाता उन्हें अब,
न रोके रुकेंगे हमारे-तुम्हारे।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
उधर तुम, इधर मैं, खड़ी बीच दुनिया,
हरे राम! कितनी कड़ी बीच दुनिया,
किए पार मैंने सहज ही मरुस्थल,
सहज ही दिए चीर मैदान-जंगल,
मगर माप में चार बीते बमुश्किल,
यही एक मंज़िल मुझे खल रही है।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
नहीं आँख की राह रोकी किसी ने,
तुम्हें देखते रात आधी गई है,
ध्वनित कंठ में रागिनी अब नई है,
नहीं प्यार की आह रोकी किसी ने,
बढ़े दीप कब के, बुझे चाँद-तारे,
मगर आग मेरी अभी जल रही है।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
मनाकर बहुत एक लट मैं तुम्हारी
लपेटे हुए पोर पर तर्जनी के
पड़ा हूँ, बहुत ख़ुश, कि इन भाँवरों में
मिले फ़ॉर्मूले मुझे ज़िंदगी के,
भँवर में पड़ा-सा हृदय घूमता है,
बदन पर लहर पर लहर चल रही है।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार है।)