History of Subhash Chandra Bose: क्या आप जानते हैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में ये बातें, पास की थी सिविल सेवा की परीक्षा, लेकिन चुना राष्ट्रधर्म को
History of Netaji Subhash Chandra Bose: क्या आप जानते हैं कैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से सिविल सेवा की परीक्षा पास करके खुद को राष्ट्रधर्म के लिए किया था समर्पित कर दिया। आइये विस्तार से जानते हैं।;
History of Netaji Subhash Chandra Bose: नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक महान भारतीय राष्ट्रवादी थे जिनकी देशभक्ति कई भारतीयों के दिलों में छाप छोड़ गई है। इस वर्ष पूरा देश सुभाष चंद्र बोस की 128 वीं जयंती 23 जनवरी को मनाएगा। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान का कोई सानी नहीं है। वे एक साहसी और स्वतंत्रता के प्रति अति उत्साहित नेता थे। सुभाष चंद्र बोस श्रीमद्भगवदगीता से गहराई से प्रेरित रहे थे, इसी कारण स्वतंत्रता, समानता, राष्ट्रभक्ति के लिए उनके संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता। नेता जी के लिए राष्ट्रधर्म सर्वोपरि था। सुभाष चंद्र बोस, विवेकानंद की शिक्षाओं से अत्यधिक प्रभावित थे और उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे, जबकि चितरंजन दास उनके राजनीतिक गुरु थे। वर्ष 1921 में बोस ने चित्तरंजन दास की स्वराज पार्टी द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र ’फॉरवर्ड’ के संपादन का कार्यभार संभाला।
महान नेता सुभाष चंद्र बोस की जीवन यात्रा से जुड़े खास पहलुओं के बारे में
सुभाष चंद्र बोसः पारिवारिक इतिहास और प्रारंभिक जीवन (Life History of Neta Subhash Chandra Bose)
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक (उड़ीसा) में प्रभाती दत्त बोस और जानकीनाथ बोस के घर हुआ था। उनके पिता कटक में वकील थे और उन्होंने “राय बहादुर“ की उपाधि प्राप्त की थी। सुभाष नेप्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल (वर्तमान में स्टीवर्ट हाई स्कूल) से स्कूली शिक्षा प्राप्त की और प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक किया। 16 वर्ष की आयु में वे स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण से प्रभावित हुए। इसके बाद उन्हें उनके माता-पिता ने भारतीय सिविल सेवा की तैयारी के लिए इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। 1920 में उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की, लेकिन अप्रैल 1921 में भारत में राष्ट्रवादी उथल-पुथल की सुनवाई के बाद, उन्होंने अपनी उम्मीदवारी से इस्तीफा दे दिया और अपने राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते हुए भारत वापस आ गए।
इस तरह तय किया कांग्रेस पार्टी के महासचिव बनने तक का सफर
भारत आकर वे असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए, जिसकी शुरुआत महात्मा गांधी ने की थी, जिनकी बदौलत कांग्रेस एक शक्तिशाली अहिंसक संगठन के रूप में उभरी। आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने बोस को चित्तरंजन दास के साथ काम करने की सलाह दी, जो आगे चलकर उनके राजनीतिक गुरु बने। उसके बाद वह बंगाल कांग्रेस के स्वयंसेवकों के युवा शिक्षक और कमांडेंट बन गए। उन्होंने ’स्वराज’ अखबार की शुरूआत की। सन् 1927 में जेल से रिहा होने के बाद, बोस कांग्रेस पार्टी के महासचिव बने और जवाहरलाल नेहरू के साथ भारत को स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
इसलिए हुआ राष्ट्रीय योजना समिति का गठन
सन् 1938 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने एक राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया, जिसने व्यापक औद्योगीकरण की नीति तैयार की। हालांकि, यह गांधीवादी आर्थिक विचार के अनुरूप नहीं था, जो कुटीर उद्योगों की धारणा से जुड़ा हुआ था और देश के अपने संसाधनों के उपयोग से लाभान्वित था। बोस का संकल्प 1939 में आया जब उन्होंने पुनर्मिलन के लिए गांधीवादी प्रतिद्वंद्वी को हराया और गांधी के समर्थन की कमी के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
वाम पंथी विचारों के लिए बेहद चर्चित थे सुभाष चंद्र बोस
सुभाष कांग्रेस में अपने वामपंथी विचारों के लिए जाने जाते थे।इसी दौरान ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक भारत में एक वामपंथी राष्ट्रवादी राजनीतिक दल था, जो 1939 में सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारत कांग्रेस के भीतर एक गुट के रूप में उभरा। फॉरवर्ड ब्लॉक का मुख्य उद्देश्य कांग्रेस पार्टी के सभी कट्टरपंथी तत्वों को लाना था, ताकि वह समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के पालन के साथ भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के अर्थ का प्रसार कर सकें।
भारतीय स्वतंत्रता लीग की स्थापना के पीछे था इनका योगदान
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान आजादी के लिए संघर्ष में एक महत्वपूर्ण विकास आजाद हिंद फौज का गठन और कार्यकलाप था, जिसे भारतीय राष्ट्रीय सेना या आईएनए के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय क्रांतिकारी राश बिहारी बोस जो भारत से भाग कर कई वर्षों तक जापान में रहे, उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में रहने वाले भारतीयों के समर्थन के साथ भारतीय स्वतंत्रता लीग की स्थापना की थी।
इस तरह हुई आज़ाद हिंद की अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा
जब जापान ने ब्रिटिश सेनाओं को हराया और दक्षिण-पूर्वी एशिया के लगभग सभी देशों पर कब्जा कर लिया, तो लीग ने भारतीय युद्ध-बंदियों शामिल कर भारतीय राष्ट्रीय सेना का निर्माण किया। जनरल मोहन सिंह, जो ब्रिटिश भारतीय सेना में एक अधिकारी थे, उन्होंने सेना को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस बीच सुभाष चंद्र बोस 1941 में भारत से भाग कर जर्मनी चले गए और भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने लगे। सन् 1943 में वह भारतीय स्वतंत्रता लीग का नेतृत्व करने के लिए सिंगापुर आए और भारतीय राष्ट्रीय सेना (आज़ाद हिंद फौज) का पुनर्निर्माण करके इसे भारत की स्वतंत्रता के लिए एक प्रभावी साधन बनाया। आजाद हिंद फौज में लगभग 45,000 सैनिक शामिल थे, जो युद्ध-बंदियों के साथ-साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया के विभिन्न देशों में बसे भारतीय भी थे। सुभाष चंद्र बोस अब नेताजी के रूप में लोकप्रिय हो चुके थे। 21 अक्टूबर 1943 को उन्होंने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत (आज़ाद हिंद) की अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा की। नेताजी अंडमान गए जिस पर जापानियों का कब्जा था और वहां उन्होंने भारत का झंडा फहराया था। सन् 1944 की शुरुआत में, आज़ाद हिंद फौज (आईएनए) की तीन इकाइयों ने भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्सों पर अंग्रेजों को भारत से बाहर करने के लिए हमले में भाग लिया। शाह नवाज खान, आजाद हिन्द फौज के सबसे प्रमुख अधिकारियों में से एक के अनुसार, जिन सैनिकों ने भारत में प्रवेश किया था, वो जमीन पर लेट गए और पूरी भावना के साथ अपनी मातृभूमि की पवित्र मिट्टी को चूमा। हालाँकि, आज़ाद हिंद फ़ौज द्वारा भारत को आज़ाद कराने का प्रयास विफल रहा।
आजाद हिंद फौज के नारे बने देश के अंदर और बाहर बसे भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन जापानी सरकार को भारत के मित्र के रूप में नहीं देखता था। इसकी सहानुभूति उन देशों के लोगों के साथ थी जो जापान की आक्रामकता के शिकार थे। हालाँकि, नेताजी का मानना था कि जापान द्वारा समर्थित आज़ाद हिंद फौज और भारत के अंदर विद्रोह की मदद से भारत पर ब्रिटिश शासन समाप्त हो सकता है। आजाद हिंद फौज का ’दिल्ली चलो’ नारा और सलाम ’जय हिंद’ देश के अंदर और बाहर बसे भारतीयों के लिए प्रेरणा का स्रोत था। नेताजी ने भारत की आजादी के लिए दक्षिण-पूर्वी एशिया में रहने वाले सभी धर्मों और क्षेत्रों के भारतीयों के साथ मिलकर रैली की थी।
आजाद हिंद फौज में किया गया एक महिला रेजिमेंट का गठन
भारतीय महिलाओं ने भी भारत की स्वतंत्रता के लिए गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आजाद हिंद फौज में एक महिला रेजिमेंट का गठन किया गया था, जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के हाथों में थी। इसे रानी झांसी रेजिमेंट कहा जाता था। आजाद हिंद फौज भारत के लोगों के लिए एकता और वीरता का प्रतीक बन गया।
द्वितीय विश्व युद्ध 1945 में फासीवादी जर्मनी और इटली की हार के साथ समाप्त हुआ। युद्ध में लाखों लोग मारे गए थे। जब युद्ध अपने अंत के करीब था और इटली और जर्मनी पहले ही हार गए थे, यूएएस ने जापान-हिरोशिमा और नागासाकी के दो शहरों पर परमाणु बम गिराए। कुछ ही पलों में ये शहर ज़मीन पर धंस गए और 200,000 से अधिक लोग मारे गए। जापान ने इसके तुरंत बाद आत्मसमर्पण कर दिया। यद्यपि परमाणु बमों के उपयोग ने युद्ध को बंद कर दिया, लेकिन इसने दुनिया में एक नए तनाव और अधिक से अधिक घातक हथियार बनाने के लिए एक नई प्रतिस्पर्धा का नेतृत्व किया, जो संपूर्ण मानव जाति को नष्ट कर सकता है।
महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ नाम किसने दिया, क्या है इसकी पूरी कहानी?
आम राय है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सबसे पहले महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा था। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक, गांधी जी के देहांत के बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से देश को संबोधित किया था और कहा था कि ‘राष्ट्रपिता अब नहीं रहे’. लेकिन उनसे पहले दूसरे कांग्रेस नेता ने महात्मा गांधी के जीवित रहते उन्हें पहली बार ‘राष्ट्रपिता’ कहा था वह थे सुभाष चंद्र बोस। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 4 जून, 1944 को सिंगापुर रेडियो से महात्मा गांधी को ’राष्ट्रपिता’ कहा था। जिसके उपरांत लोगों ने उन्हें राष्ट्रपिता कहकर पुकारना शुरू कर दिया। इसके बाद भारत सरकार ने भी इस नाम को मान्यता दे दी।खास बात है कि नेताजी बोस के कांग्रेस से इस्तीफा देने की मूल वजह अप्रत्यक्ष रूप से महात्मा गांधी ही थे। एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने 1915 मे महात्मा की उपाधि दी थी। तीसरा मत ये है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 12 अप्रैल 1919 को अपने एक लेख मे उन्हें महात्मा कहकर सम्बोधित किया था।उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू अर्थात् पिता) के नाम से भी स्मरण किया जाता है।
हालाँकि कुछ जानकार यह मानते हैं कि उन्हें बापू की उपाधि बिहार के चम्पारण जिले के एक किसान राजकुमार शुक्ल ने दी थी । राजकुमार शुक्ल वही व्यक्ति थे जिन्होंने गांधीजी 1917 में चंपारण सत्याग्रह के ठीक पहले आमंत्रित किया था ।
नेताजी बोस की जीत बनी महात्मा गांधी की हार
जनवरी 1939 को कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष पद का चुनाव होना था। पिछली बार यानी 1938 में सुभाष चंद्र बोस निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए थे। इस बार भी वो अध्यक्ष पद की दावेदारी कर रहे थे। हालांकि, महात्मा गांधी इससे सहमत नहीं थे। वो चाहते थे कि जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष पद के लिए अपना नाम आगे करें। नेहरू के मना करने के बाद उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आजाद से आग्रह किया। लेकिन मौलाना स्वास्थ्य कारणों से पीछे हट गए। अंत में महात्मा गांधी ने आंध्र प्रदेश से आने वाले पट्टाभि सीतारमैय्या को अध्यक्ष पद के लिए आगे किया। गांधी जी के समर्थन के बाद भी 29 जनवरी, 1939 को हुए चुनाव में पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 वोट मिले। जबकि नेताजी बोस को 1580 मिले। बोस से इस तरह मिली हार के चलते पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को गांधी की हार की तरह देखा गया। उस समय तक कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष के तौर पर जवाहर लाल नेहरु के अपवाद को छोड़कर किसी को भी इस पद पर लगातार दूसरा कार्यकाल नहीं हासिल हुआ था।
तानाशाही का लगा आरोप
कांग्रेस अधिवेशन में जन्मी तल्खी को लेकर बात यहीं खत्म नहीं हुई थी। 29 जनवरी को हुए कांग्रेस अधिवेशन के चुनाव के बाद अगले महीने 20-21 फरवरी 1939 को कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक वर्धा में हुई। स्वास्थ्य कारणों से सुभाष बोस इसमें नहीं पहुंच पाए। उन्होंने सरदार वल्लभ भाई पटेल से वार्षिक अधिवेशन तक बैठक टालने को कहा। इस पर पटेल, नेहरू समेत 13 सदस्यों ने सुभाष बाबू पर तानाशाही का आरोप लगाते हुए वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया। उन सभी का आरोप था कि बोस अपनी अनुपस्थिति में कांग्रेस के सामान्य कार्य को संचालित होने में बाधा डाल रहे हैं।
राजनीति के हुए शिकार
इन्हीं तल्खियों के बीच इस 8 से 12 मार्च, 1939 तक त्रिपुरी (जबलपुर) में कांग्रेस का अधिवेशन रखा गया। इसमें आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के 160 सदस्यों की तरफ से एक प्रस्ताव पेश किया गया, जिसमें इस बात का प्रमुखता से जिक्र था कि कांग्रेस गांधी के बताए रास्ते पर ही आगे बढ़ेगी। इसने वर्किंग कमेटी चुनने का अधिकार भी अध्यक्ष से छीन लिया गया। जो कांग्रेस के संविधान में दिया हुआ था। इस फैसले के आने के बाद निर्वाचित अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस के हाथों से सारा अधिकार खत्म हो चुका था। वे पूरी तरह से शक्ति विहीन हो चुके थे। इस विपरीत परिस्थिति में पंडित नेहरु ने उनसे वर्किंग कमेटी के सदस्यों को ‘हीन बुद्धि कहने’ के लिए माफी मांगने को कहा। लेकिन सुभाष बोस झुकने को तैयार नहीं थे और ऐसे में उन्होंने इस्तीफा देना ही एक बेहतर विकल्प समझा।
मतभेद के बाद भी राष्ट्रपिता कहकर दिया सम्मान
तमाम तल्खियों और मतभेदों के बावजूद भी बोस गांधी जी का बहुत आदर करते थे। लेकिन वैचारिक असमानता के कारण उनके लिए गांधी जी की इच्छा उनके लिए अंतिम फैसला नहीं थी। इसी कड़ी में 1940 में कांग्रेस की योजनाओं से अलग रहकर काम करते सुभाष बाबू गिरफ्तार हो गए। 9 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में गांधी जी ने कहा,’सुभाष बाबू जैसे महान व्यक्ति की गिरफ्तारी मामूली बात नहीं है, लेकिन सुभाष बाबू ने अपनी लड़ाई की योजना बहुत समझ-बूझ और हिम्मत से बनाई है।’ अंग्रेजों के चंगुल से बचकर जुलाई 1943 में सुभाष चंद्र बोस जर्मनी से जापान के नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंचे थे। 4 जून 1944 को सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर रेडियो से एक संदेश प्रसारित करते हुए महात्मा गांधी को देश का पिता (राष्ट्रपिता) कहकर संबोधित किया।
सुभाष बोस ने कहा,’भारत की आजादी की आखिरी लड़ाई शुरु हो चुकी है। ये हथियारबंद संघर्ष तब तक चलेगा, जब तक ब्रिटिश को देश से उखाड़ नहीं देंगे।’ थोड़ी देर रुककर उन्होंने कहा ‘राष्ट्रपिता , हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में हम आपका आशीर्वाद मांगते हैं।’
जिसके पश्चात अगले ही महीने 18 अगस्त, 1944 को ताइवान के एक अस्पताल में एक विमान दुर्घटना में जलने के बाद मृत्यु हो गई थी।
बोस की बहादुरी के गांधी जी भी थे कायल
गांधी जी ने सुभाष बोस की विमान दुर्घटना की मृत्यु की खबर पर कहा था,’उन जैसा दूसरा देशभक्त नहीं, वह देशभक्तों के राजकुमार थे।’ 24 फरवरी 1946 को अपनी पत्रिका ‘हरिजन’ में लिखा,’आजाद हिंद फौज का जादू हम पर छा गया है। नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है। वे अनन्य देश भक्त थे। उनके साहसिक कार्यों की चमक सारी दुनिया में फैल रही है।
सुभाष चंद्र बोस की मौत बनी एक रहस्य
बोस स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेताओं में शुमार थे और ’नेताजी’ कहलाए, मगर उनकी मृत्यु भी उतनी ही उलझन का विषय रही है। सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक 18 अगस्त, 1944 को ताइवान के एक अस्पताल में एक विमान दुर्घटना में जलने के बाद मृत्यु हो गई थी। हालांकि घायल या मृत बोस की कोई तस्वीर नहीं ली गई और न ही मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किया गया। इन्हीं वजहों से आईएनए ने यह मानने से इनकार कर दिया कि उनका निधन हो गया। बंगाल और बोस के कई समर्थकों ने उनके निधन के समाचार और परिस्थितियों, दोनों पर विश्वास करने से इनकार कर दिया। इसे साजिश बताते हुए कहा गया कि बोस के निधन के कुछ घंटों के भीतर कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी। नेताजी के बारे में इस तरह के कई मिथक आज भी कायम हैं। इसी कड़ी में 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी 100 गोपनीय फाइलों का डिजिटल संस्करण सार्वजनिक किया, ये दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India) में मौजूद हैं। सुभाष चंद्र बोस को असाधारण नेतृत्व कौशल और करिश्माई वक्ता के साथ सबसे प्रभावशाली स्वतंत्रता सेनानी माना जाता है। उनके प्रसिद्ध नारे हैं ’तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’, ’जय हिंद’, और ’दिल्ली चलो’। उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया था और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई योगदान दिए। उन्हें अपने उग्रवादी दृष्टिकोण के लिए भी जाना जाता है, जिसका इस्तेमाल उन्होंने ब्रितानी हुकूमत से स्वतंत्रता हासिल करने के लिए किया था। वे अपनी समाजवादी नीतियों के लिए भी आम जनता के बीच लोकप्रिय नेता माने जाते थे।