Indian Classical Dance History: भारतीय शास्त्रीय नृत्य का इतिहास और उत्पत्ति

Indian Classical Dance History in Hindi: आज न्यूज ट्रैक के माध्यम से हम भारतीय नृत्य की उत्पत्ति और उसके प्रकार के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।;

Written By :  Shivani Jawanjal
Update:2025-01-08 15:13 IST

Indian Classical Dance History Wikipedia (Photo - Social Media)

Indian Classical Dance History in Hindi: नृत्य का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है और यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। यह भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अभिव्यक्तियों का प्रतीक है। भारत में नृत्य की परंपरा प्राचीन और समृद्ध रही है, जिसके प्रमाण वेदों, मूर्तिकला, चित्रकला और साहित्य में मिलते हैं। पौराणिक कथाएं भी नृत्य के समाज और धर्म में महत्व को दर्शाती हैं।

समय के साथ भारतीय इतिहास में हुए बदलावों के साथ नृत्य में भी परिवर्तन आए। लेकिन इसकी शास्त्रीयता और विविधता हमेशा बनी रही। 12वीं से 19वीं सदी के बीच कई प्रादेशिक नृत्य रूप विकसित हुए, जिन्हें संगीत-नाटक कहा गया। इन्हीं प्रादेशिक नृत्य रूपों से आज के शास्त्रीय नृत्य शैलियों का उदय हुआ। भारतीय नृत्य ने विभिन्न कालों और संस्कृतियों से प्रभावित होकर अपनी विशेष पहचान बनाई है, और यह कला आधुनिक भारत में भी जीवित और प्रासंगिक है।

आज न्यूज ट्रैक के माध्यम से हम भारतीय नृत्य की उत्पत्ति और उसके प्रकार के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।

भारतीय नृत्य को शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य ऐसे दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया गया।

भारतीय शास्त्रीय नृत्य (Indian Classical Dance)की परिभषा

शास्त्रीय नृत्य लोक नृत्यों के विपरीत, नियमों और तकनीकों पर आधारित हैं। भारतीय शास्त्रीय नृत्य प्रेम,भक्ति और समर्पण को व्यक्त करने का एक तरीका है। इसे नाट्यशास्त्र और शरीर की विशेष क्रियाओं के जरिए दर्शाया जाता है। यह नृत्य, संगीत और कविताओं के साथ मिलकर किया जाता है। इसे एक अभिव्यक्तिपूर्ण कला माना जाता है।


इसकी जड़ें धर्म,आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक मूल्यों से गहराई से जुड़ी हुई हैं। भारतीय शास्त्रीय नृत्य का आधार भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। ‘नाट्यशास्त्र’ में रस,भाव,नृत्य की शैली,ताल,और प्रस्तुति की विधि जैसे मुख्य तत्वों का उल्लेख मौजूद है। यह नृत्य हमारी संस्कृति, नैतिकता और परंपराओं से जुड़ा हुआ है। मुख्य शास्त्रीय नृत्य शैलियों में भरतनाट्यम, कथक, ओडिसी, मणिपुरी, कुचिपुड़ी और मोहिनीअट्टम शामिल हैं। इन शैलियों की कुछ खास बातें होती हैं, जैसे हाथ की मुद्राएं, कदमों की चाल, ताल का सही पालन और संगीत के साथ सामंजस्य जो इन नृत्यों को समझने और उनकी खूबसूरती को जानने के लिए प्रेरणास्त्रोत है ।

भारतीय नाट्य शास्त्र का इतिहास

नाट्यशास्त्र प्राचीन विद्वान भरतमुनि के द्वारा लिखा गया भारत के शास्त्रीय नृत्यों का मौलिक ग्रंथ है | इसका पहला संपूर्ण संकलन 200 ईसा पूर्व और 200 ईस्वी के बीच का माना जाता है। लेकिन इसके अनुमान 500 ईसा पूर्व और 500 ईस्वी के बीच भी लगाए जाते हैं।नाट्यशास्त्र के संस्करण में लगभग 6000 श्लोक मौजूद हैं, जिन्हें 36 अध्यायों में संरचित किया गया है। नटालिया लिडोवा इस ग्रंथ को लेकर कहते है कि यह ग्रंथ तांडव नृत्य (शिव), रस, भावना, अभिव्यक्ति, मुद्राएं, अभिनय तकनीकें, मूल कदम और खड़ा होने की मुद्राओं का सिद्धांत वर्णित करता है, जो सभी भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का हिस्सा हैं। तथा इस ग्रंथ के माध्यम से नृत्य को परिभाषित किया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार नृत्य और प्रदर्शन कला, आध्यात्मिक विचारों, गुणों और शास्त्रों के सार को व्यक्त करने का एक रूप है।


नाट्यशास्त्र हिंदू परंपरा में सम्मानित प्राचीन ग्रंथ है। लेकिन इसके अलावा कई अन्य प्राचीन और मध्यकालीन संस्कृत नृत्य-नाट्य संबंधी ग्रंथ भी मौजूद हैं, जो शास्त्रीय नृत्य कला का उल्लेख करते है | इनमे आचार्य नंदिकेश्वर का 'अभिनय दर्पण', शारंगदेव का 'संगीत रत्नाकर', अभिनव भारती, नाट्य दर्पण, भावना प्रकाश और अन्य कई शामिल है |

शास्त्रीय शब्द का अर्थ

शास्त्रीय शब्द मुख्य रूप से संस्कृत के ‘शास्त्र’ रूप से प्रेरित है | जिसका अर्थ है प्राचीन शास्त्रों पर आधारित कला तथा उनका प्रदर्शन |

भारतीय शास्त्रीय नृत्य के प्रकार

भारतीय शास्त्रीय नृत्य के मुख्य रूप से 8 प्रकार है जिनमें भरतनाट्यम्, कथकली, कथक, ओड़िसी, मणिपुरी, मोहिनीअट्टम, कुचिपुड़ी, सत्रीया नृत्य का समावेश है।

भरतनाट्यम - Bharatanatyam(तमिलनाडु ):- भरतनाट्यम भारत का सबसे प्राचीन शास्त्रीय नृत्य है, जिसकी उत्पत्ति भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के मंदिरों से हुई। पहले इसे सादिर और दासी अट्टम के रूप में जाना जाता था। यह नृत्य कला, खासकर एकल रूप में होती है और आमतौर पर एक महिला द्वारा प्रस्तुत की जाती है। भरतनाट्यम नाट्यशास्त्र पर आधारित है। इसका उपयोग पल्लव और चोल काल में चरम पर था। 19वीं सदी में देवदासी अधिनियम के बाद इसे मंदिरों में प्रतिबंधित कर दिया गया था।लेकिन 20वीं सदी में रुक्मिणी देवी अरुण्डेल और ई कृष्णा अय्यर द्वारा इसकी प्रस्तुति पुनः शुरू की गई । इसे वर्तमान रूप को तंजौर के चार बधुओं ने प्रस्तुत किया।


भरतनाट्यम में, नृत्य और अभिनय ऐसे दो प्रमुख भाग होते हैं, और इसका संगीत कर्नाटिक संगीत से जुड़ा होता है। इसमें कई चरण होते हैं, जैसे आलारिपु, जातिस्वरम, शब्दम, वर्णंम, पदम् और तिल्लाना। इसके प्रदर्शन में एक गायक, मृदंग वादक और बांसुरी या वायलिन वादक होते हैं और नृत्य निर्देशक नृत्य के शब्दांशों को गाते हैं। यह नृत्य किसी विशेष धर्म से संबंधित नहीं है। समय के साथ इसकी प्रस्तुति का दायरा बढ़ते हुए यह विश्वभर में लोकप्रिय है।

कथकली- Kathakali (केरल) :- कथकली 17वीं सदी में कर्नाटक के राजकुमार के संरक्षण में केरल में विकसित हुआ। भारत के दक्षिण-पश्चिमी राज्य केरल की एक प्रमुख परंपरा कथकली नृत्य है, जो एक समृद्ध और विकसित कला के रूप में लोकप्रिय है। ‘कथकली’ शब्द का अर्थ है ‘कथा नाटक’ या ‘नृत्य नाटिका, जिसमें अभिनेता रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों के पात्रों का अभिनय करते हैं। यह एक अत्यंत रंगीन नृत्य शैली है, जिसमें कलाकार विशिष्ट परिधानों, फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुटों से सजे होते हैं। ये कलाकार अपने प्रस्तुति के दौरान पात्रों के रूप में ढलते हैं, ताकि पात्रों के चरित्र को और अधिक जीवंत रूप से प्रस्तुत किया जा सके।


कथकली में देवता, राक्षस, मानव, आदि पात्रों को शानदार परिधानों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। इस नृत्य का सबसे खास पहलू यह है कि इसमें पात्र बोलते नहीं हैं, बल्कि उनके हाथों की मुद्राओं, चेहरे के हाव-भाव और अभिव्यक्तियों के माध्यम से पूरे कथानक को दर्शाया जाता है। अभिनेता का चेहरा, उसकी भौहों की हलचल, आंखों का संचालन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्यक्तियाँ विशिष्ट रूप से परिष्कृत होती हैं, जिससे कथकली में विभिन्न भावनाओं की गहरी अभिव्यक्ति झलकती है। पारंपरिक रूप से, पुरुष कलाकार ही महिला पात्रों का अभिनय करते थे। लेकिन अब महिलाओं को भी कथकली में हिस्सा लेने का अवसर मिल रहा है।

कथकली, कुडियाट्टम जैसी केरल के नाट्यकला की महानतम शैली की परंपरा के साथ शताब्दियों पहले विकसित हुई कला है। वर्तमान समय में, कथकली एक नृत्य नाटिका की परंपरा को दर्शाता है। इसके अलावा, थेयाम, मुडियाट्टम जैसे पारंपरिक रीति-रिवाज और केरल की मार्शल कलाएं कथकली को वर्तमान स्वरूप में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

कथक - Kathak (उत्तर प्रदेश) - कथक, उत्तर भारत का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है, जो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में प्रचलित होने के साथ-साथ भारत के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में भी लोकप्रिय है। इसका नाम संस्कृत के ‘कथां’ से आया है, जिसका अर्थ है ‘कहानी सुनाना’। कथक नृत्य के तीन रूप होते हैं, जो बनारस, जयपुर (राजस्थान) और लखनऊ से जुड़े हुए हैं।


कथक का उदय भक्ति आंदोलन के दौरान हुआ, जिसमें भगवान श्री कृष्ण की कथाओं को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। धीरे-धीरे इस नृत्य में दरबारी परिवेश भी जुड़ा और 16वीं सदी के दौरान मुग़ल काल में इसका विकास चरम पर पहुंचा। इस दौरान पर्शियन और उर्दू कविता के प्रभाव से नृत्य में नए विषय जोड़े गए। 19वीं सदी में लखनऊ और जयपुर दरबारों में इसका परिष्कृत रूप सामने आया। इसके बाद 20वीं सदी में कथक को और अधिक लोकप्रियता मिली। लखनऊ और जयपुर इसके प्रमुख घराने बने। कथक में ताण्डव और लास्य दोनों प्रकार की भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। यह नृत्य पांवों, हाथों और आंखों की मुद्राओं के माध्यम से हिन्दू पौराणिक कथाओं को दर्शाता है, विशेष रूप से कृष्ण की कथाओं को। कथक में संगीत ठुमरी और ग़ज़ल पर आधारित होता है। इसमें तबला, सारंगी, और सितार जैसे वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। वर्त्तमान समय में कथक में सौंदर्यबोध पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

कुचिपुड़ी - Kuchipudi (आंध्रप्रदेश)

कुचिपुड़ी शास्त्रीय नृत्य का उद्गम भारत के आंध्रप्रदेश के कृष्णा ज़िले के कुचिपुड़ी गांव से हुआ। यह नृत्य 7वीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के दौरान फला-फूला और 16वीं शताब्दी में इसके बारे में कई साहित्यिक स्रोतों में उल्लेख मिलता है। इसे 17वीं सदी में तीर्थ नारायण यति और उनके शिष्य सिद्धेन्द्र योगी ने व्यवस्थित तरीके से विकसित किया।


कुचिपुड़ी का नाम उसी गांव के नाम पर रखा गया है, जहां के ब्राह्मण समुदाय के लोग इस नृत्य का अभ्यास करते थे। यह नृत्य मुख्य रूप से पुरुषों द्वारा किया जाता था, जो महिलाओं का अभिनय भी करते थे। इसका मूल उद्देश्य भगवान विष्णु और श्री कृष्णा पर आधारित वैष्णव परंपरा को दर्शाना है और धर्म व अध्यात्म का प्रचार करना है। कुचिपुड़ी की वेशभूषा भरतनाट्यम से मिलती-जुलती होती है, लेकिन इस नृत्य में कलाकार पीतल की थाली पर पैर रखकर और सिर पर पानी भरे कलश रखते हुए प्रदर्शन करते हैं। इसमें हर अभिनयकर्ता का परिचय एक गीत के माध्यम से दिया जाता है।

ओड़िसी - Odissi (उड़ीसा)

ओड़िसी नृत्य की उत्पत्ति उड़ीसा राज्य में मंदिरों में नृत्य करने वाली देवदासियों से हुई। यह नृत्य मुख्यतः महिलाओं द्वारा किया जाता है और इसे प्रारंभ में महरिस (मंदिर की देवदासियां) द्वारा मंदिरों में सेवा कार्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। ओड़िसी नृत्य की नींव भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से मिलती है, जिसमें इसे ओद्र नृत्य कहा गया । ओड़िसी नृत्य का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है, जैसे ब्रह्मेश्वर मंदिर और कोणार्क के सूर्य मंदिर में। यह नृत्य धार्मिक विश्वासों, विशेष रूप से ओडिशा के वैष्णव मत पर आधारित है, जिसमें कृष्ण और राधा की कथा प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त, भगवान शिव और सूर्य की कथाओं को भी इसमें शामिल किया जाता है।


इस नृत्य में विशेष मुद्राओं, अंग संचालन, नेत्र संचालन और हस्त मुद्राओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। ओड़िसी अपनी त्रिभंगी मुद्रा (सिर, शरीर और पैर के मध्य तीन भागों में विभाजित) और चौक आसन के लिए प्रसिद्ध है। इस नृत्य के साथ संगीतकार और ढोलवादक भी होते हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर प्रतिबंध लगा था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद ओड़िसी नृत्य को पुनर्जीवित किया गया और 20वीं शताब्दी में इसे एक नए रूप में थिएटर कला के रूप में प्रस्तुत किया गया।

मणिपुरी - Manipuri (मणिपुर)

मणिपुरी नृत्य की उत्पत्ति भारत के मणिपुर राज्य में हुई और यह 18वीं शताब्दी में वैष्णव संप्रदाय के साथ विकसित हुआ। इस नृत्य में विष्णु पुराण, भागवत पुराण और गीतगोविंद जैसी रचनाओं का प्रभाव होता है। मणिपुरी नृत्य राधा और कृष्ण की प्रेमलीला ‘रासलीला’ के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन इसमें शिव और शक्ति पर आधारित कथाएँ भी शामिल होती हैं। मणिपुर के मंदिरों में आज भी इस नृत्य का मंचन किया जाता है। इसमें 64 प्रकार के रासों का प्रदर्शन होता है।

यह नृत्य अन्य नृत्य रूपों से ज्यादा शांत और अंतर्मुखी होता है। नर्तक विशेष प्रकार के पोशाक ‘कुमिल’ पहनते हैं, और नृत्य में मुख्य रूप से हाथों और शरीर के ऊपरी भाग की मुद्राएँ होती हैं। इसमें हल्की मुख-मुद्राएँ भी होती हैं। मणिपुरी नृत्य में करताल, मजीरा और मणिपुरी मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों का उपयोग किया जाता है। यह नृत्य आमतौर पर समूह में किया जाता है। लेकिन रासलीला के कुछ नृत्य एकल भी होते हैं।


मणिपुरी नृत्य की दो मुख्य शैलियाँ हैं - जगोई और चोलोम। जगोई शैली रासलीला जैसी प्रस्तुतियों में होती है और इसे सौम्य माना जाता है। चोलोम शैली जोशीली होती है और यह लास्य और तांडव तत्वों से जुड़ी मानी जाती है। इस नृत्य की खास बात यह है कि इसमें हाथ और अंगुलियों के बेहद शांत और आकर्षक मूवमेंट होते हैं, और शरीर की गति भी धीमी रहती है। नर्तक पैरों को बहुत हलके से भूमि पर रखते हैं ताकि आवाज न हो। इसके परिधान में एक ड्रम के आकार का स्कर्ट होता है, जो कलाकार द्वारा पहना जाता है।

सत्रीया - Sattriya (आसाम)

सत्रीया नृत्य की शुरुआत 15वीं सदी में असम के वैष्णव मठों (सत्‍तराओं) में हुई। यह नृत्य मुख्य रूप से भगवान कृष्ण की लीलाओं पर आधारित होता है, कभी-कभी राम-सीता की कथाओं पर भी आधारित होता है। सत्रीया नृत्य में जप, कथा, नृत्य और संवाद का संयोजन होता है। इसे भक्ति काल के संत शंकर देव और उनके शिष्य माधव देव ने मठों में ‘अंकीया नाट’ के साथ विकसित किया और यह नृत्य आज भी असम के मठों में जीवित है।


यह नृत्य शास्त्रीय नृत्य की विशेषताओं जैसे हाथों की मुद्राएं (हस्त), कदमों का उपयोग (पाद कर्म), गति और अभिव्यक्ति (नृत्य और अभिनय) पर आधारित है। पहले यह केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था। लेकिन अब महिलाएं भी इसे करती हैं। इस नृत्य के दौरान मुख्य गायक गीत गाते हुए अभिनय करता है और कहानियाँ सुनाता है, जबकि नर्तकियों का एक छोटा समूह झांझ बजाते हुए नृत्य करता है। 20वीं शताब्दी में जब यह मठों से बाहर फैला, तो सत्रीया नृत्य को आधुनिक रंगमंच पर भी प्रदर्शित किया जाने लगा। 15 नवंबर, 2000 को संगीत नाटक अकादमी ने इसे अपनी शास्त्रीय नृत्य सूची में शामिल किया।

मोहिनीअट्टम - Mohiniyattam (केरल)

मोहिनीअट्टम भारत के केरल राज्य का एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है। इसका विकास केरल में हुआ और यह मुख्य रूप से मंदिरों में किया जाता था। मोहिनीअट्टम में भरतनाट्यम और कत्थकली नृत्य शैलियों के तत्व शामिल होते हैं। इसका पहला उल्लेख 16वीं शताब्दी के ‘व्‍यवहार माला’ में माजामंगलम नारायण नब्‍बूदिरी ने किया था।

मोहिनीअट्टम भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार पर आधारित है। जब समुद्र मंथन के दौरान देवताओं और असुरों के बीच अमृत को लेकर युद्ध हुआ, तो भगवान विष्णु ने असुरों को मोहिनी रूप में आकर्षित किया और देवताओं के लिए अमृत प्राप्त किया। इस नृत्य शैली में 'लस्य' शैली का उपयोग किया जाता है, जिसमें कोमल भावों को विभिन्न मुद्राओं के माध्यम से नृत्य में व्यक्त किया जाता है। यह मुख्य रूप से एकल नृत्य है और इसे केवल महिला कलाकारों द्वारा किया जाता है। यह एक कठिन नृत्य शैली है।


मोहिनीअट्टम में भगवान विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करने की कथा का मंचन किया जाता है। नृत्य की शुरुआत चोल्केत्तु गायन से होती है। इसमें उपयोग होने वाले गीत ‘मणिपर्व’ भाषा में होते हैं, जो संस्कृत और मलयालम का मिश्रण है। नृत्य में चार प्रमुख ताल होते हैं: तगानम, जगानम, धगानम और सामीश्रम। संगीत वाद्ययंत्रों में एड्डक्‍का, मृदंगम, वीणा, बांसुरी और कुझीतालम शामिल होते हैं।

भारतीय शास्त्रीय नृत्य की 9वीं नृत्य शैली को लेकर विवाद

संगीत नाटक अकादमी ने आठ भारतीय नृत्य शैलियों को मान्यता दी है, लेकिन भारत सरकार द्वारा नौवीं नृत्य शैली ‘छाऊ’ को भी मान्यता दी गई है |

छाऊ नृत्य एक महत्वपूर्ण भारतीय नृत्य रूप है, जो युद्ध कला, जनजातीय संस्कृति और लोक परंपराओं का सम्मिलन है, यह पूर्वी भारत से उत्पन्न हुआ है। इसे तीन क्षेत्रीय शैलियों में प्रस्तुत किया जाता है जिनमे पुरुलिया छाऊ (बंगाल), सेरायकेला छाऊ (झारखंड) और मयूरभंज छाऊ (ओडिशा) का समावेश है | यह नृत्य युद्ध कला, ऐक्रोबेटिक्स और शारीरिक गतिविधियों के उत्सवमूलक विषयों के साथ-साथ शैववाद, शक्ति पूजा और वैष्णववाद से जुड़े धार्मिक विषयों में भी परिवर्तित होता है। इन शैलियों में वेशभूषा में भिन्नताएँ होती हैं; पुरुलिया और सेरायकेला छाऊ नर्तक विभिन्न पात्रों को प्रदर्शित करने के लिए मास्क पहनते हैं, जबकि मयूरभंज छाऊ में मास्क का उपयोग नहीं होता है। ‘छाऊ’ शब्द संस्कृत के चाया (छाया या मास्क) से उत्पन्न हो सकता है, कुछ लोग इसे चद्म (ढंका हुआ या भेष) से जोड़ते हैं, जबकि कुछ, जैसे सीताकांत महापात्र, इसे ओड़िया भाषा के छौनी (सैन्य शिविर, ढाल) से जोड़ते हैं। छाऊ नृत्य के साथ जो संगीत होता है, वह लोक धुनों पर आधारित होता है, जिसमें मोहरी, शहनाई, ढोल, धुमसा, खरका और शाधदी जैसे वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है।


2010 में, छाऊ नृत्य को यूनेस्को द्वारा "मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर" की सूची में शामिल किया गया। छाऊ नृत्य शैली को, भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैली के तौर पर बढ़ावा देने के उद्देश्य से, 1960 में झारखंड के सेरैकला में छाऊ केंद्र तथा 1962 में ओडिशा के बारिपदा में मयूरभंज छाऊ नृत्य प्रतिष्ठान स्थापित किया गया | ओडिशा के बारिपदा में संगीत नाटक अकादमी द्वारा राष्ट्रीय छाऊ नृत्य केंद्र स्थापित किया गया |

भारतीय शास्त्रीय नृत्य रूपों के संदर्भ में विभिन्न स्रोतों की सूची और मान्यता में कुछ भिन्नताएँ पाई जाती हैं। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका द्वारा छह भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों का उल्लेख किया गया है। तो वही संगीत नाटक अकादमी द्वारा आठ नृत्य शैलियों को मान्यता प्राप्त है | भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने नौवीं शैली ‘छाऊ’ को मान्यता दी है | बरहाल ड्रिड विलियम्स और अन्य विद्वानों ने यक्षगान (कर्नाटक) और भागवत मेला (तमिलनाडु) को भी संगीत नाटक अकादमी की सूची में शामिल करने की सिफारिश की है।

संगीत नाटक अकादमी की स्थापना

संगीत नाटक अकादमी (संगीत, नृत्य और नाटक की राष्ट्रीय अकादमी) भारत सरकार द्वारा स्थापित प्रदर्शन कलाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर की अकादमी है। 31 मई, 1952 को भारतीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा इसकी स्थापना की गई और अगले ही वर्ष कार्यात्मक भी हुई | डॉ. पी. वी. राजामन्नार इसके पहले अध्यक्ष थे |

भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 28 जनवरी, 1953 को संसद भवन में आयोजित एक विशेष समारोह में इसका उद्घाटन किया था। संगीत नाटक अकादमी द्वारा प्रदान की गई फैलोशिप और पुरस्कार देश के प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है।

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