Motivational Story: मकान
Motivational Story: भारतवर्ष में लोगों को एक ही शौक है -'अपने सपनों का मकान बनवाना' या फिर बने हुए मकान को रेनोवेट करवाना , वे पूरी ज़िंदगी इसी में खपाए रहते हैं।
Motivational Story: बीते हफ़्ता, दो मित्रों ने अपना नया मकान देखने बुलाया। एक को 11साल लगे मकान बनवाने में , दूसरे को 9 साल। इस एक दशक के समय में उन मित्रों ने बस एक ही काम किया। वह यह कि 'मकान बनवाया और उससे पहले 20 तक जो काम किया वो यह कि 'मकान बनवाने" लायक पैसा जुटाया। यानि, जीवन के बेशक़ीमती 30 साल सिर्फ़ 'अपना मकान बनवा लूं' इस फितूर में निकाल दिए। मेरी मकान, इंटीरियर , एलिवेशन , साज-सज्जा जैसी चीज़ों में बिल्कुल भी रूचि नही है , बल्कि साफ़ कहूं तो अरुचि ही है। वे मित्र , उच्चता के घमंड से विकृत हुए एक-एक कमरे , गैलरी, गार्डन , आर्किटेक्ट की बारीकियां ,उनके निर्माण में लगी सामग्री , ख़र्च हुआ पैसा आदि विवरण दे रहे थे ।
इधर मैं भी सौजन्यतावश "हूं , हां " अच्छा ", वाह , ग़ज़ब " जैसी प्रतिक्रियाएं देकर उनके अभिमान को पुष्ट किए दे रहा था। जबकि हक़ीक़त यह थी कि मैंने शायद ही किसी चीज़ को गौर से देखा हो, बचपन से ही मुझे मकान , गाड़ी , कपड़े जैसी बातों में न्यूनतम रूचि रही है । उनकी रनिंग कॉमेंट्री रुकने का नाम नही ले रही थी - "ये देखिए , वो देखिए , " गैरिज ऐसा है , गार्डन की लाइटिंग ऐसी है " and so on and on ,and on. जबकि मेरी दृष्टि उनके नवीन लक-धक मकान से अधिक , उनके रूखे और नीरस चेहरे पर थी । जिस विषय में आपकी रूचि होती है , वैसा ही आपका व्यक्तित्व बन जाता है। वस्तुओं में अधिक रूचि रखने वाला व्यक्ति भी वस्तु की तरह ही हो जाता है - पार्थिव चेतना विहीन , निष्प्राण , ज़्यादातर वे सभी व्यक्ति जिनके "क़ीमती मकान" होते हैं , कौडियों के आदमी होते हैं उनका पूरा व्यक्तित्व लाभ-हानि , गुणा-भाग, जोड़-घटाना जैसे गणित के उबाऊ प्रमेय की तरह हो जाता है ।पीछे उनकी सजी-धजी पत्नियाँ भी थीं । ऐसे बर्तनों की तरह , जिन्हें ऊपर से चमका दिया गया हो लेकिन जिनके भीतर फफूंद लगी है । जो सिर्फ़ एक ही बात से खुश थीं कि 'मैं इतने क़ीमती घर की स्वामिनी हूं ।
भारतवर्ष में लोगों को एक ही शौक है -'अपने सपनों का मकान बनवाना' या फिर बने हुए मकान को रेनोवेट करवाना , वे पूरी ज़िंदगी इसी में खपाए रहते हैं। थोड़ा मनोवैज्ञानिक शोध करने पर मैंने पाया कि यह मूलतः उनका शौक़ नही है, इसके पीछे गहरे में दिखावे की मनोवृत्ति काम करती है । यह एक ऐसा भाव है जो समाज की सामूहिक दिखावा वृति से प्रसारित होता है और सभी अहंकारी, प्रतिस्पर्धी रडार इसे कैच करते जाते हैं। फिर उसी सिग्नल के अनुरूप उनका जीवन टेलीकास्ट होता है।
वह हर वक़्त अपने आस-पास के लोगों से तुलना में व्यस्त रहता है "तेरे पास ऐसी कार है ..तो मेरे पास वैसी कार है। "तेरे कपड़े इतने महंगे ..तो मेरे कपड़े उतने महंगे। "तेरा फार्म हाऊस ऐसा है ..तो मेरा फार्म हाऊस वैसा है। तू सिंगापुर गया ..तो मैं स्विट्जरलैंड जाऊंगा । तेरा मकान ऐसा है ..तो मेरा मकान वैसा है । ऊपर लिखे "तू" "तेरा" उसके रिलेटिव्ज , पड़ोसी और सर्किल के लोग होते हैं जिनकी प्रगति और जीवन शैली से प्रतिस्पर्धा में वह पूरा जीवन गुज़ार देता है । वह सुंदर मकान तो बना लेता है मगर सुंदर मकान के आस्वाद लायक़ अपनी चेतना नही बना पाता। वह बाहरी मकान तो बना लेता है मगर उसकी चेतना का घर खण्डहर ही रहता है । उसकी चेतना के सभी कमरे- शरीर , प्राण, मन, भाव , बुद्धी , परम चैतन्य कभी खड़े ही नही हो पाते ।
अगर भोक्ता उपस्थित नही है , तो भोग व्यर्थ है ।वरना आपके साथ आपका सूटकेस भी विदेश यात्रा कर आता है । मगर सूटकेस को कोई रस नही है क्योंकि वह चेतनाशून्य है, तो मेरी तॊ दृष्टि इस बात पर है कि चैतन्य की ईमारत कितनी भव्य और विराट हो , क्योंकि अंततः भोग तॊ चेतना से ही होना है। अगर आपकी संगीत में रूचि नही है ..तॊ महंगा म्यूज़िक सिस्टम व्यर्थ है । अगर आपको फूलों में रस नही है तो फुलवारी व्यर्थ है ।अगर आप रोमांटिक नही हैं तो सुंदर शयन कक्ष का क्या मज़ा ? अगर आप रोगी हैं तो लज़ीज़ पकवान किस काम के ?? अगर आपके भीतर ही रस नही है तो क्या कीजिएगा इस महंगे दिखावे का ?? अच्छा मकान ,अच्छी बात है मगर चेतना की ईमारत भी बनाइए । जीवन बहुत छोटा और अनिश्चित है ! इसे महज़ पदार्थो के संग्रहण में ही न गुज़ार दें , क्योंकि एक दिन तॊ यह देह भी मिट्टी में मिल जाना है और मकान भी जो अजर अमर है , उस पर भी दृष्टि रखें । चेतना का मकान बनाएं ।समय उतना ही है , अगर आप यहां लगाएंगे तो वहां नही लगा पाएंगे। महज़ दिखावे के ज़रा से रस के लिए जीवन की पूरी ऊर्जा और समय का निवेश कोई फ़ायदे का सौदा नही है।