Acharya Osho Kaun The: आचार्य ओशो, जीवन, विवाद और सफलता की कहानी
Acharya Osho Ke Bare Me Jankari: क्या आप जानते हैं आचर्य ओशो के जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी बातें जो शायद ही सबके सामने आई हों। आइये आज हम आपको उनकी विवादों से भरी कहानी से लेकर उनकी सफलता की कहानी तक सब बताते हैं।
Osho Life Story Wikipedia Hindi: जिनका धर्म विवाद का सबब बना। जिसकी किताब आलोचनाओं की जद में आई पर बिकी बहुत ज़्यादा। जो समय के पहले देख लेते थे, जिनका जीवन यह प्रेरणा देता है कि कैसे एक व्यक्ति विचारों के माध्यम से पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकता है। जिनकी शिक्षाओं ने विवादित होने के बावजूद दुनिया को सोचने का एक नया तरीका दिया। अपने अनुयायियों को उन्होंने ध्यान और आत्म-जागृति का मार्ग दिखाया। उनकी विरासत आज भी जीवित है। ऐसे आचार्य ओशो का जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के छोटे से गांव कुचवाड़ा में हुआ था। उनका मूल नाम रजनीश चंद्र मोहन जैन था। ओशो अपने माता-पिता की ग्यारह संतानों में सबसे बड़े थे। उनका परिवार धार्मिक प्रवृत्ति का था और जैन धर्म का अनुयायी था। बचपन से ही ओशो जिज्ञासु स्वभाव के थे और हर विषय पर गहराई से सोचते थे। उनके दादा-दादी ने उनका पालन-पोषण किया, जिससे उनके जीवन में स्वतंत्रता और निर्भीकता का भाव विकसित हुआ।
ओशो ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा जबलपुर से प्राप्त की। 21 वर्ष की आयु में, उन्होंने ध्यान और आत्म-अवलोकन में रुचि लेना शुरू कर दिया। बाद में, उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक किया और फिर जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। अपने शिक्षण के दौरान, उन्होंने भारत के विभिन्न शहरों में व्याख्यान देना शुरू किया, जिसमें धर्म, समाज और मानव मनोविज्ञान जैसे विषयों पर चर्चा होती थी।
सन् 1951 में चंद्र मोहन जैन ने हितकारिणी सिटी कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन एक प्रोफेसर के साथ वाद-विवाद के दौरान उन्हें अपनी तर्कशीलता के कारण कॉलेज छोड़ने को कहा गया। इसके बाद, डीएन जैन कॉलेज के प्रिंसिपल ने उन्हें इस शर्त पर प्रवेश दिया कि वे लॉजिक की क्लास में हिस्सा नहीं लेंगे। चंद्र मोहन सहमत हो गए और लॉजिक पीरियड के दौरान कॉलेज के बाहर समय बिताते थे। यह घटना उनके तेजस्वी और तर्कशील व्यक्तित्व को दर्शाती है।
आध्यात्मिक जागृति और गुरु के रूप में प्रतिष्ठा
1950 के दशक के अंत में, ओशो ने अपनी नौकरी छोड़कर एक साधक के रूप में यात्रा शुरू की। उन्होंने ध्यान, योग, और आत्म-चिंतन के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त किया। ओशो ने स्वयं को किसी विशेष धर्म या परंपरा तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने दुनिया को यह सिखाया कि आध्यात्मिकता केवल ध्यान और आत्म-जागृति के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।
ओशो के तीन गुरु थे , मस्तों बाबा , मग्गा बाबा , पागल बाबा । इन तीनों की वजह से ही ओशो अध्यात्म की ओर बढ़ गए । कहते हैं , ओशो की एक प्रेमिका भी थी जिसकी तस्वीर वो पर्स में रखते थे , पर बेवक्त उनकी मौत हो गईं जिसके बाद ओशो ने बाँसुरी भी बजाना भी छोड़ दिया था । उनकी नानी एक प्रसिद्ध ज्योतिषी से मिली। जिससे वे ओशो की कुंडली बनवाना चाहती थी पर ज्योतिषी ने कुंडली बनाने से मना कर दिया और कहा यह बालक 07 वर्ष से अधिक समय तक नहीं जिएगा और यदि यह जी जाता है तो यह कोई महान बनेगा ।
1960 के दशक में, ओशो ने अपने विचारों को भारत में फैलाना शुरू किया। उन्होंने ‘आचार्य रजनीश’ के नाम से हजारों अनुयायियों को आकर्षित किया। उनके प्रवचन तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ होते थे। ओशो ने धर्म, प्रेम, सेक्स, ध्यान, और अस्तित्व जैसे विषयों पर नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। 1970 में, उन्होंने पुणे में आचार्य रजनीश ध्यान केंद्र की स्थापना की।ओशो ने 150,000 से अधिक किताबें पढ़ीं।इसके अलावा, ओशो की शिक्षाओं ने वैश्विक सोच को प्रभावित किया, बावजूद इसके कि यह स्वीकार्यता सीमित रही।
विवाद और आलोचना
ओशो का जीवन विवादों से अछूता नहीं रहा। उनके विचार और शिक्षाएं परंपरागत धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देती थीं। उन्होंने विशेष रूप से सेक्स, धर्म और राजनीति पर अपने खुले विचारों से रूढ़िवादियों और धार्मिक संगठनों को नाराज कर दिया।उनकी पुस्तक "संभोग से समाधि तक" ने भारत में विशेष रूप से बड़ी आलोचना का सामना किया। कई लोगों ने उनके विचारों को गलत समझा और उन्हें ‘सेक्स गुरु’ के रूप में प्रचारित किया। हालांकि, ओशो ने हमेशा यह स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य मानव को सभी तरह के बंधनों और वर्जनाओं से मुक्त करना था।
अमेरिका प्रवास और रजनीशपुरम की
स्थापना
1981 में, ओशो अमेरिका चले गए और वहां ओरेगॉन राज्य में रजनीशपुरम नामक एक कम्यून की स्थापना की। ये आश्रम 65 हज़ार एकड़ में फैला था। ओरेगॉन में ओशो के शिष्यों ने उनके आश्रम को रजनीशपुरम नाम से एक शहर के तौर पर रजिस्टर्ड कराना चाहा। लेकिन स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। यह कम्यून हजारों अनुयायियों का निवास स्थान बन गया। यहां ओशो ने ध्यान और आध्यात्मिकता पर आधारित एक स्वतंत्र समुदाय की स्थापना करने का प्रयास किया।ओशो ने अपने शिष्यों से साझा किया था कि यह उनका पुनर्जन्म है। उन्होंने कहा कि 750 साल पहले तिब्बत में उनका जन्म हुआ था, जहां वे विशेष साधना कर रहे थे। हालांकि, उनकी साधना पूरी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई, और इस अधूरी साधना को पूरा करने के लिए उन्हें दोबारा जन्म लेना पड़ा। जीवन के अंतिम क्षण उन्होंने पुणे के कोरेगांव पार्क स्थित अपने मेडिटेशन रिसॉर्ट में बिताए।
हालांकि, रजनीशपुरम में कई विवाद हुए। स्थानीय लोगों और सरकार के साथ कानूनी और सामाजिक समस्याएं पैदा हुईं। उनके अनुयायियों पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने स्थानीय चुनावों को प्रभावित करने के लिए अवैध गतिविधियों में भाग लिया। 1985 में, ओशो और उनके सहयोगियों पर जहर फैलाने और साजिश रचने के आरोप लगे। इसके बाद ओशो को अमेरिका से निर्वासित कर दिया गया।ओशो का अमरीका प्रवास बेहद विवादास्पद रहा. महंगी घड़ियां, रोल्स रॉयस कारें, डिजाइनर कपड़ों की वजह से वे हमेशा चर्चा में रहे।
भारत वापसी और पुनःस्थापना
अमेरिका से निर्वासन के बाद, ओशो भारत लौट आए और पुणे में अपना आश्रम फिर से सक्रिय किया। उन्होंने ‘ओशो’ नाम अपनाया, जिसका अर्थ है "सागर जैसा अनुभव"। उन्होंने अपनी शिक्षाओं को लिखित रूप में प्रस्तुत किया और हजारों प्रवचन दिए। उनकी शिक्षाओं ने न केवल भारत में बल्कि पश्चिमी देशों में भी लोकप्रियता प्राप्त की।
सिद्धांत और शिक्षाएं
ओशो की शिक्षाएं एक अद्वितीय मिश्रण हैं, जो पूर्व और पश्चिम के दर्शन का संगम हैं। उन्होंने ध्यान, प्रेम, स्वतंत्रता, और खुशी को अपने जीवन का मूल उद्देश्य बताया। ओशो के अनुसार, ध्यान आत्म-जागृति का मार्ग है। उन्होंने "डायनामिक मेडिटेशन" की एक नई विधि विकसित की, जिसमें शारीरिक गतिविधियों और मौन का संयोजन होता है।ओशो ने प्रेम को सभी बाधाओं और सीमाओं से मुक्त करने पर जोर दिया। उन्होंने पारंपरिक विवाह और संबंधों की आलोचना की।ओशो ने सभी संगठित धर्मों की आलोचना की और मानवता को ‘अधर्म’ (No Religion) की ओर बढ़ने का सुझाव दिया।उन्होंने हर व्यक्ति को व्यक्तिगत और सामाजिक बंधनों से मुक्त होने की सलाह दी।
लेखन और साहित्य
ओशो ने सैकड़ों पुस्तकें लिखीं, जो उनके प्रवचनों पर आधारित हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं:संभोग से समाधि तक,एक ओंकार सतनाम,द बुक ऑफ सेक्रेट्स,ध्यान सूत्र उनकी पुस्तकें दुनिया भर में लाखों पाठकों द्वारा पढ़ी जाती हैं और 60 से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं।
मृत्यु और विरासत
ओशो का निधन 19 जनवरी, 1990 को पुणे में हुआ। उनकी समाधि पुणे के ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिज़ॉर्ट में स्थित है। उनके समाधि स्थल पर लिखा है: "ओशो: नेवर बॉर्न, नेवर डाइड। जस्ट विजिटेड दिस प्लैनेट अर्थ बिटवीन 11 दिसंबर ,1931 - 19 जनवरी,1990।"उनकी मौत के बाद पुणे आश्रम का नियंत्रण ओशो के क़रीबी शिष्यों ने अपने हाथ में ले लिया. आश्रम की संपत्ति करोड़ों रुपये की मानी जाती है और इस बात को लेकर उनके शिष्यों के बीच विवाद भी है। उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और लाखों लोगों को प्रेरणा देती हैं। ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिज़ॉर्ट पुणे में स्थित है और दुनियाभर से आने वाले साधकों और अनुयायियों के लिए एक प्रमुख स्थल है।
सफलता और आलोचना
ओशो का जीवन विवादों से भरा रहा, उनकी शिक्षाओं ने लाखों लोगों को प्रभावित किया। उनके विचारों ने आधुनिक मानव को परंपरागत और रूढ़िवादी सोच से बाहर आने में मदद की। उनकी आलोचना करने वालों का कहना था कि वह नैतिकता और धर्म के खिलाफ थे, लेकिन उनके अनुयायियों का मानना है कि उन्होंने समाज को एक नई दिशा दी।ओशो हर शिष्य को लकड़ी की माला देते थे, जिसमें एक लॉकेट होता था और दोनों ओर उनके चित्र होते थे। संन्यासियों से यह माला हमेशा पहनने की अपेक्षा की जाती थी। ओशो हर शिष्य को एक नया नाम देते थे ताकि वे अपने अतीत से अलग हो सकें। उन्होंने अपने शिष्यों को नारंगी या लाल ढीले कपड़े पहनने की सलाह दी, ताकि शरीर में ऊर्जा का सहज प्रवाह हो सके।
ओशो इंटरनेशनल ने यूरोप में 'ओशो' नाम का ट्रेडमार्क रजिस्टर कराया है, जिसे ओशो लोटस कम्यून द्वारा चुनौती दी गई थी। यूरोपीय संघ की जनरल कोर्ट ने ओशो इंटरनेशनल के पक्ष में निर्णय दिया। ओशो इंटरनेशनल का कहना है कि वे ओशो के विचारों को शुद्ध रूप में फैलाते हैं, इसलिए उनका यह अधिकार होना चाहिए। हालांकि, ओशो ने स्वयं कहा था कि विचारों पर कॉपीराइट नहीं हो सकता। ओशो की समाधि पर यह लिखा है, "न कभी जन्मे, न कभी मरे।"
निष्कर्ष
ओशो का जीवन एक प्रेरणा है कि कैसे एक व्यक्ति विचारों के माध्यम से पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकता है। ओशो का जीवन एक रहस्यवादी यात्रा का प्रतीक है। उनकी शिक्षाएं विवादित होने के बावजूद, उन्होंने दुनिया को सोचने का एक नया तरीका दिया। उनके अनुयायियों के लिए, वह एक मार्गदर्शक थे, जिन्होंने उन्हें ध्यान और आत्म-जागृति का मार्ग दिखाया। उनकी विरासत आज भी जीवित है और उनकी शिक्षाएं मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।