Narad Muni Ki Kahani: जानें कौन होते हैं देवर्षि

Narad Muni Ki Kahani: भगवद्गीता के गलनों वें अध्याय "विभूति योग" के अंतर्गत भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -"देवर्षीणां नारद:" अर्थात् देवर्षियों में मैं नारद हूं। - ऐसा क्यों ?*_

Update:2023-06-09 16:20 IST
Narad Muni Ki Kahani (social media)

Narad Muni Ki Kahani: भगवद्गीता के गलनों वें अध्याय "विभूति योग" के अंतर्गत भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -"देवर्षीणां नारद:" अर्थात् देवर्षियों में मैं नारद हूं। - ऐसा क्यों ?*_

वायु पुराण, महाभारत एवं श्रीमद्भागवत पुराण के माध्यम से इसे जानने का प्रयास करते हैं।
वायु पुराण में देवर्षि के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं :-

देवलोकप्रतिष्ठाश्च ज्ञेया देवर्षय: शुभा:।।
देवर्षयस्तथान्ये च तेषां म वक्ष्यामि लक्षणम्।
भूतभव्यभवज्ज्ञानं सत्याभिव्याहृतं तथा।।

जिनका देवलोक में निवास है, उन्हें शुभ देवर्षि समझना चाहिए। इसके सिवा वैसे ही जो दूसरे और भी देवर्षि हैं, उनके लक्षण कहता हूं। भूत, भविष्यत् और वर्तमान का ज्ञान होना तथा सब प्रकार से सत्य बोलना - देवर्षि का लक्षण है।
जो अपनी तपस्या के कारण इस संसार में विख्यात हैं। जो मंत्रों के वक्ता हैं और जो ऐश्वर्य के बल पर सर्वत्र सब लोकों में बिना किसी बाधा के आ-जा सकते हैं, वे सभी देवर्षि हैं।

श्रीमद् भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध में नारद जी स्वयं अपने बारे में महर्षि वेदव्यास जी को कहते हैं :-

अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादि नाम्।
निरोपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम्।।

मुने ! पिछले कल्प में अपने पूर्व जीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की एक दासी का पुत्र था। योगी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चातुर्मास कर रहे थे। बचपन में ही मैं उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया था।

तत्रान्वहं कृष्णकथा: प्रगायता- मनुग्रहेणाश्रृणवं मनोहरा:।
ता: श्रद्धया मेऽनुपदं विश्रृण्वत: प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रुचि:।।

उस सत्संग में उन लीलागानपरायण महात्माओं के अनुग्रह से मैं प्रतिदिन श्री कृष्ण की मनोहर कथाएं सुना करता। श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवान में मेरी रुचि हो गई।

येनैवाहं भगवतो वासुदेवस्य वेधस:।
मायानुभावमविदं येन गच्छन्ति तत्पदम्।।

महात्माओं के उपदेश से ही जगत के निर्माता भगवान श्री कृष्ण की माया के प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परम पद की प्राप्ति हो जाती है।

महाभारत के शांति पर्व में पितामह भीष्म से युधिष्ठिर पूछते हैं कि इस भूतल पर कौन ऐसा मनुष्य है, जो सब लोगों का प्रिय, संपूर्ण प्राणियों को आनंद प्रदान करने वाला तथा समस्त सद्गुणों से संपन्न है ? इस पर भीष्म जी नारद जी के बारे में भगवान श्री कृष्ण के वचन को सुनाते हैं।

वासुदेव ( भगवान श्री कृष्ण ) कहते हैं - नारद जी में शास्त्र - ज्ञान और चरित्रबल - दोनों एक साथ संयुक्त है, फिर भी उनके मन में अपनी सच्चरित्रता के कारण तनिक भी अभिमान नहीं है। अतः नारद जी की सर्वत्र पूजा ( प्रतिष्ठा ) होती है।
वे धर्म और दया आदि करने में बड़े शूरवीर हैं। वे अध्यात्म शास्त्र के तत्वज्ञ, विद्वान, क्षमाशील, शक्तिमान, जितेंद्रिय, सरल और सत्यवादी हैं। नारद जी तेज, बुद्धि, यश, ज्ञान, विनय और तपस्या द्वारा भी सबसे बड़े-चढ़े हैं। इसलिए उनकी सर्वत्र पूजा होती है। उनके मन में लेश मात्र भी पाप नहीं है।

वे ( नारद जी ) सर्वत्र समभाव रखते हैं, इसलिए उनका न कोई प्रिय है और न ही किसी तरह अप्रिय ही है। दीनता, क्रोध और लोभ आदि दोष से वे सर्वथा रहित हैं, इसलिए उनका सर्वत्र सम्मान होता है।
उनमें मेरे प्रति दृढ़ भक्ति है। उनका ह्रदय शुद्ध है। वे संपूर्ण प्राणियों में आसक्ति से रहित हैं, फिर भी वे आसक्त हुए से दिखाई देते हैं। उनका मन कभी विषय - भोगों में स्थित नहीं होता और वे कभी अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं।

अंत में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :-

तं सर्वगुणसंपन्नं दक्षं शुचिमनामयम्।
कालज्ञं च प्रियज्ञं च क: प्रियं न करिष्यति।।

वे ( नारद जी ) संपूर्ण गुणों से सुशोभित, कार्यकुशल, पवित्र, नीरोग, समय का मूल्य समझने वाले और परम प्रिय आत्म-तत्व के ज्ञाता हैं। फिर कौन उन्हें अपना प्रिय नहीं बनाएगा !
अब हम समझ गए होंगे कि भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षियों में नारद जी को अपनी विभूति क्यों बताया?

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