Motivational Story: मनुष्य के जीवन का परम ध्येय क्या है ?
Motivational Story: संसार की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर और विनाशशील है। जो विनाशी है वह अनित्य है और जो अनित्य है उसका एक दिन वियोग अवश्यम्भावी है
Motivational Story: मनुष्य को सबसे पहले इस बात का निश्चय करना चाहिये कि मेरे जीवन का परम ध्येय क्या है? किस लक्ष्य की ओर जीवन को ले चलना है। जब तक यह स्थिर नहीं कर लिया जाता कि मुझे कहाँ जाना है, तब तक मार्ग या मार्ग व्यय की चर्चा करना जैसे निरर्थक है, वैसे ही जब तक मनुष्य अपने जीवन का ध्येय निश्चित नहीं कर लेता कि मुझे इस जीवन में क्या लाभ करना है, तब तक कौन से योग के द्वारा क्या साधन करना चाहिये, यह जानने की चेष्टा करना भी व्यर्थ है । इस समय जगत में अधिक लोग प्राय: निरुद्देश्य ही भटक रहे हैं- प्रकृति के प्रवाह में अन्धे हुए बह रहे हैं। उन्हें यह पता नहीं कि हम कौन हैं? जगत में मानव देह धारण करके क्यों आये हैं और हमें क्या करना है ? किसी भी प्रकार से धनोपार्जन कर कुटुम्ब का भरण पोषण करना और उसी के लिये जीवन बिता देना साधारणत: यही अधिकांश लोगों की जीवन चर्या हैं। यह प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि हम सुख चाहते हैं ।
अब विचार यह करना है कि हम जिन वस्तुओं का संग्रह और संरक्षण में अपना जीवन बिता रहे है वे क्या वास्तव में सुखरूप हैं? यह तो सभी जानते हैं कि संसार की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर और विनाशशील है। जो विनाशी है वह अनित्य है और जो अनित्य है उसका एक दिन वियोग अवश्यम्भावी है । जिस वस्तु की प्राप्ति और भोग के समय सुख होता है उसके वियोग में दुख अवश्य होगा । अत: संसार की प्रत्येक वस्तु वियोगशील होने के कारण दुखप्रद है। अपनी मानी हुई प्रिय वस्तु जब लुटती है तब जो दुख होता हे उसका अनुभव प्राय: हम सभी को है। इसलिये पुत्र वियोग में हमें उतना ही, प्रत्युत उससे भी अधिक दुख होता है, जितना सुख उसके जन्म होने के समय हुआ था। यही न्याय स्त्री-स्वामी, माता-पिता, गुरु-शिष्य, मान-कीर्ति और शरीर-स्वर्ग आदि सभी में लागू होता है । सारांश यह कि अनित्य वस्तु में केवल और पूर्ण सुख कदापि नहीं होता।
उसका अन्त तो दुखमय होता ही है। विचार करने पर अनित्य वस्तु का सुख भोग काल में भी दुख से सना हुआ ही प्रतीत होता है । इस लोक और परलोक के सभी भोग पदार्थ अनित्य हैं। परंतु इस अनित्य के पीछे अधिष्ठान रूप से जो एक सत्य छिपा हुआ है, जो सदा एक रस और अव्यय है, वही नित्य वस्तु है।
उसी के सम्बन्ध में गीता कहती है -
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
( गीता - 2.20 )
जो किसी काल में न जन्मता है, न मरता है, न होकर फिर होने वाला है, वह तो अज़न्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के नाश से उसका नाश नहीं होता । वह परम पदार्थ केवल परमात्मा है। उस परमात्मा के एकत्व में अपनी कल्पित भिन्न सत्ता को सर्वथा विलीन कर देना- केवल उस एक परमात्मा का ही शेष रह जाना भगवत्प्राप्ति है और यही हमारे जीवन का परम ध्येय है।