Lok Sabha Election 2024: बाबू सिंह को यहां से चुनाव लड़ा कर अखिलेश ने चला है बड़ा दांव, जानिए इसके पीछे की सियासी चाल
Lok Sabha Election 2024: जौनपुर सीट पर करीब डेढ़ लाख मौर्या वोटर हैं, जिनको बाबू सिंह साधने का प्रयास करेंगे। इसके अलावा पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक मतदाताओं पर पार्टी को भरोसा होगा।
Lok Sabha Election 2024: 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक हलचलें तेज हो गई हैं। राजनीतिक पार्टियां अपनी जीत के लिए हर गणित लगा रही हैं। जातीय समीकरण जीत के लिए सबसे बड़ा मोहरा माना जा रहा है। वहीं समाजवादी पार्टी ने जौनपुर सीट से बाबू सिंह कुशवाहा को मैदान में उतार कर यहां का चुनाव दिलचस्प बना दिया है। जैनपुर से पूर्व सांसद धनंजय सिंह अपनी पत्नी को टिकट दिलाना चाहते थे, लेकिन अखिलेश यादव ने बाबू सिंह को टिकट देकर उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बीजेपी ने इस सीट से महाराष्ट्र के पूर्व गृह राज्यमंत्री कृपाशंकर सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया है।
यहां सवाल यह भी उठ रहा है कि जिस बाबू सिंह कुशवाहा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, वे जेल गए। ऐसे में उस बाबू सिंह पर अखिलेश यादव ने क्या सोच कर यहां से दांव लगाया है? जानकारों की मानें तो बाबू सिंह को लड़ाने का बड़ा कारण है यहां का जातीय समीकरण।
...तो इसलिए अखिलेश ने चला बाबू पर दांव
मौर्या समाज का उस कद का कोई बड़ा नेता न होने के चलते सपा ने यहां से बाबू सिंह कुशवाहा को मैदान में उतारा है। यहां पर करीब डेढ़ लाख मौर्या वोटर हैं, जिनको बाबू सिंह साधने का प्रयास करेंगे। इसके अलावा पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक मतदाताओं पर पार्टी को भरोसा होगा।
वहीं बाबू सिंह कुशवाहा जौनपुर के लिए पूरी तरह से बाहरी हैं। तत्कालीन बसपा सरकार में उनकी गिनती सबसे ताकतवर मंत्री में होती थी। वह एमएलसी व दो बार कैबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं।
बाबू सिंह का राजनीतिक सफर
कभी बाबू सिंह कुशवाहा की तूती बोलती थी। वे मायावती सरकार में मंत्री थे। हालांकि एक घोटाले में वे लंबे समय तक जेल में रहे। बांदा जिले के बबेरू तहसील के पखरौली गांव में एक किसान परिवार से जुड़े कुशवाहा ने जीवन यापन के लिए अतर्रा में ही लकड़ी का टाल खोलकर जीवन यापन शुरू किया था।
1985 में स्नातक की परीक्षा पास करने वाले बाबू सिंह 17 अप्रैल 1988 को बसपा संस्थापक कांशीराम के संपर्क में आए। जब कांशीराम ने उन्हें दिल्ली बुलाया तो बाबू सिंह सियासी तकदीर आजमाने का ख्वाब लेकर दिल्ली पहुंच गए। कांशीराम ने उन्हें बसपा कार्यालय का कर्मचारी बना दिया।
दिल्ली के बसपा कार्यालय में छह माह भी नहीं बीते होंगे कि उनको प्रोन्नत कर लखनऊ कार्यालय में संगठन का काम करने भेज दिया गया। जब 1993 में सपा और बसपा के बीच गठबंधन हुए तो बाबू सिंह को बांदा का जिलाध्यक्ष बनाया गया। मायावती ने उनको बसपा आफिस में टेलीफोन ऑपरेटर की जिम्मेदारी सौंपी। 1997 में उनको पहली बार विधान परिषद सदस्य बना कर बसपा ने उन्हें बड़ा इनाम दिया। 2003 में बाबू सिंह को दूसरी बार विधान परिषद भेजा गया। 2003 में तीसरी बार बसपा की सरकार बनी तो कुशवाहा को पंचायती राज मंत्री बनाया गया। 2007 में बसपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई तो बाबू सिंह को खनिज, नियुक्ति, सहकारिता जैसे महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। परिवार कल्याण विभाग बना तो बाबू सिंह को यह विभाग भी सौंप दिया गया।
बगावत शुरू की तो बसपा ने कर दिया बाहर
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जो करोड़ों रुपये सरकार खर्च नहीं कर पाती थी, उस पर बाबू सिंह की नजर गई और फिर शुरू हो गया बंदरबांट का खेल। राजधानी में दो सीएमओ की हत्या और जेल में एक डिप्टी सीएमओ की रहस्यमयी मौत के बाद कुशवाहा और उस समय के स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्रा ने 17 जुलाई 2011 को अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया। 19 नवंबर को बाबू सिंह ने बगावत कर दी और बसपा ने भी नौ दिन बाद उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
घोटाले में था नाम
केन्द्र सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश में एनआरएचएम के तहत 10 हजार करोड़ रुपये दिए गए थे। इस ग्रांट से प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के 133 अस्पतालों के विकास और आरओ लगाने तथा दवाओं की आपूर्ति के नाम पर पांच हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का गोलमाल करने के आरोप की जांच कर रही सीबीआइ ने 2012 में कुशवाहा व अन्य को गिरफ्तार कर लिया था। अस्पतालों में केवल आरओ लगाने में सरकार को 6 करोड़ तीन लाख का नुकसान हुआ था।
मुद्दों को छोड़ जाति की बयार में उड़ते रहे मतदाता-
जौनपुर की लोकसभा सीट कई मायनों में काफी महत्वपूर्ण है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इस सीट पर मोदी-योगी लहर बेअसर साबित हो गई थी। बसपा ने बाजी मार ली थी। वहीं एक बार फिर यहां जातीय समीकरण को साधने की कोशिश हो रही है।
यहां जातीय गणित में स्थानीय मुद्दे गायब हो जाते हैं। जौनपुर सीट भाजपा के साथ ही विपक्ष के लिए चुनौती बनी है। यहां से 2019 के आम चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के श्याम सिंह यादव ने जीत हासिल की थी। इससे पहले 1989 से 2014 के बीच जनसंघ व भाजपा ने यहां से चार बार जीत हासिल की थी। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के खाते में भी दो-दो बार यह सीट आई। 2022 के विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो जौनपुर लोकसभा क्षेत्र की पांच में से दो सीटों पर ही भाजपा जीत दर्ज करा पाई। इस स्थिति ने भाजपा के रणनीतिकारों की चिंता बढ़ाई है।
राजपूतों का दबदबा
जौनपुर लोकसभा क्षेत्र में वैसे तो ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या ही सबसे अधिक है पर अब तक इस सीट पर राजपूतों का ही दबदबा रहा है। ब्राह्मणों की आबादी 15.72 फीसदी और दूसरे नम्बर पर 13.30 फीसदी के साथ राजपूत हैं।
जौनपुर लोकसभा क्षेत्र में अब तक 18 बार लोकसभा के चुनाव हुए हैं। इसमें छह बार कांग्रेस तो चार बार भाजपा, एक बार जनसंघ, एक बार जनता पार्टी, एक बार जनता दल, एक बार भारतीय लोकदल, दो बार बसपा, दो बार सपा ने जीत दर्ज की हैं। इस लोकसभा की दो विधानसभा सीटें मल्हनी, मुंगराबादशाहपुर सपा के पास हैं तो वहीं शाहगंज, बदलापुर व सदर की सीट भाजपा व गठबंधन के खाते में हैं।