Lok Sabha Election 2024: वादे हैं, वादों का क्या
Lok Sabha Election 2024: ये पांच साल में आने वाला एक दिनी प्रोग्राम मात्र होता है। न जनता को इस किताब से कोई मतलब है न किसी और को।
Lok Sabha Election 2024: हमारे चुनावों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है घोषणापत्र। 1952 में हुए देश के पहले आम चुनाव से घोषणापत्र (Elections Manifesto) जारी करने की रीति चली आ रही है। एक आदर्श स्थिति में ये किसी राजनीतिक दल की विचारधारा, नीतियों, कार्यक्रमों और एक्शन प्लान का दस्तावेज जो होता है। ऐसा दस्तावेज जिसके आधार पर मतदाता अपने वोट का फैसला कर सकें। लेकिन आदर्श स्थिति तब होती है जब चुनाव सिर्फ और सिर्फ जीतने के लिए न लड़े जाते हों। जब पूरा मामला वोट खींचने की जुगत से जुड़ा हो तब घोषणापत्र मात्र एक वादा पत्र बन कर रह जाता है। और यही हो रहा है।
हर बड़े चुनाव में बड़ी शाइस्तगी से पार्टियां चुनाव के मौके पर घोषणापत्र जारी करती हैं। आमतौर पर किसी पुस्तक के विमोचन की तरह। पार्टी के चार-पांच बड़े नेता एक रंगबिरंगी किताब के स्वरूप में छपे घोषणापत्र को दिखाते हुए फोटो खिंचाते हैं। मीडिया भी संजीदगी से इस चुनावी घटना की खबर-फोटो छाप कर परंपरा का निर्वाह कर देता है। बस।
ये पांच साल में आने वाला एक दिनी प्रोग्राम मात्र होता है। न जनता को इस किताब से कोई मतलब है न किसी और को। पक्की बात है, न आपने या आपके किसी इष्ट मित्र ने इस किताब को पढ़ा होगा, शायद देखा भी न हो। और देखने में रुचि भी न हो। आम जन के लिए इस किताब में छपे हर्फ़ों की कोई कीमत नहीं है। दस घोषणाएं कर दो चाहे सौ इरादे छाप दो। न जनता सवाल पूछने वाली है न चुनाव आयोग। वजह घोषणापत्र पर किसी तरह की बहस और चर्चा का न होना है।
चूंकि इस किताब पर खुले मंचों पर कभी कोई बहस नहीं होती, किताब में लिखी बातों का कोई तर्कपूर्ण आधार नहीं होता और जनता को इससे कोई वास्ता नहीं होता सो सवाल ये भी उठता है कि क्यों न घोषणापत्रों रूपी परंपरा को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए? सवाल उठना लाजिमी है।
परिभाषा के हिसाब से, घोषणापत्र पार्टियों के लिए उनकी भविष्य की योजना, प्रमुख मुद्दों पर उनके एक्शन प्लान और वैचारिक दृष्टि को स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण हैं। यही वजह है कि विश्व स्तर पर विद्वानों ने पार्टी घोषणापत्र को गंभीर दस्तावेज़ के रूप में माना है। लेकिन हमने घोषणापत्र पर कभी गंभीर विचार नहीं किया है। 1952 से लेकर 2024 के आम चुनावों तक बदस्तूर जारी है। हालांकि घोषणापत्रों को छापने की तकलीफ सिर्फ बड़े और प्रमुख राजनीतिक दल ही उठाते थे । लेकिन हाल के वर्षों में न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि कई क्षेत्रीय पार्टियाँ भी घोषणापत्र जारी करने लगी हैं।
घोषणापत्र पर भारत में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च नामक संस्था ने एक अध्ययन किया जो 1952 से 2019 तक के कांग्रेस, भाजपा और सीपीआई (एम) के लोकसभा चुनाव घोषणापत्रों को दर्शाता है। ये तीन दल भारतीय राजनीति के वैचारिक स्पेक्ट्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं - लेफ्ट, राइट और सेंटर। यह अध्ययन कुछ दिलचस्प बातें सामने लाता है। इसके मुताबिक, तीनों राजनीतिक दलों के सभी घोषणापत्रों में आर्थिक योजना, कल्याण और विकास एवं बुनियादी ढांचे पर बहुत ध्यान दिया गया है। कुल मिलाकर, ये तीन मुद्दे घोषणापत्र में लिखे गए कुल शब्दों का 55 फीसदी बनाते हैं। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में संदर्भ बदल गया है। पहले चार दशकों में आर्थिक प्लानिंग के समाजवादी मॉडल पर जोर दिया गया। भाजपा (उस समय जनसंघ) निजी क्षेत्र की अकेली समर्थक रही।
ग्रामीण भारत के लिए प्रतिबद्ध होने की सभी पार्टियों की बयानबाजी के बावजूद, विकास और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में ग्रामीण विकास के लिए समर्पित शब्दों का प्रतिशत 1952 में 42 फीसदी से गिरकर 2019 में 5.6 फीसदी हो गया है।
भाजपा इस सदी में भौतिक बुनियादी ढांचे पर बहुत जोर दे रही है। इसी तरह, यह राष्ट्रीय सुरक्षा, स्टार्ट-अप और आत्मनिर्भरता पर अधिक जोर दे रही है। उधर, वामपंथी साम्राज्यवाद-विरोधी या "अमेरिका-विरोधी' विषयों पर जोर देते रहते हैं। यह श्रम अधिकारों और कृषि को भी काफी जगह देते हैं।
जब विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा की बात आती है, तो पहले चार दशकों तक अंतर्राष्ट्रीयवाद, बाहरी प्रभाव और विदेशी विशेष संबंध चर्चा पर हावी रहे। कांग्रेस का जोर अंतर्राष्ट्रीयता पर था। जबकि सीपीआई (एम) का ध्यान विदेशी संबंधों पर था, खासकर चीन, सोवियत संघ के समर्थन में और अमेरिका के विरोध में। इस दौरान भाजपा के घोषणापत्र में सेना पर ज्यादा ध्यान दिया गया। 1980 के दशक से, जैसे-जैसे आतंकवाद आम होता जा रहा है, भाजपा ने आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद पर अपना ध्यान नाटकीय रूप से बढ़ा दिया। कांग्रेस और सीपीआई (एम) इन दो मुद्दों पर अपने फोकस में उतनी सुसंगत नहीं रही हैं।
समय के साथ बदलती राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते पार्टियों का ध्यान ट्रांसफर हो गया। जैसे कि 1980 के दशक तक आतंकवाद को घोषणापत्रों में कभी जगह नहीं मिली, लेकिन तब से यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। इसी तरह, जहां पहले चार दशकों में आर्थिक योजना और राज्य के हस्तक्षेप पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया, वहीं मुक्त बाजार या आर्थिक उदारीकरण से संबंधित किसी भी मुद्दे पर बमुश्किल ही कोई ध्यान दिया गया। 1991 के बाद से इसमें नाटकीय बदलाव आया है।
1980 के दशक से पर्यावरण और स्थिरता महत्वपूर्ण मुद्दे बन गए। पहले कुछ दशकों में "शहरी" मुद्दों पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया । क्योंकि भारत अधिकतर ग्रामीण था। लेकिन बढ़ते शहरीकरण के कारण मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा शहरी समूहों में रहने लगा है, शहरी मुद्दों पर अब अधिक शब्द हैं। ये तो घोषणापत्रों में बिटवीन द लाइन का एक गंभीर विश्लेषण था लेकिन वास्तविकता में घोषणापत्रों का एक बड़ा हिस्सा अब वादों की दिशा में चल गया है। मुफ्त में देने वाली चीजों की लिस्ट, चल रही योजनाओं को बदलने या खत्म करने के वादे, सुनहरे भविष्य के एक व्यापक वादे इत्यादि।
राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों का उद्देश्य पार्टी का रोडमैप न हो कर अब अल्पकालिक और लोकलुभावन घोषणाएँ करने का टूल हो गया है। वे विकास के लिए लोगों के एजेंडे की बात नहीं करते। 2013 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में कहा गया था कि मुफ्त और लोकलुभावन वादे "स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की जड़ को काफी हद तक हिला देते हैं।" हालांकि कोर्ट ने कोई रोक नहीं लगाई। लेकिन चुनाव आयोग को इस बारे में निर्देश दिए। आयोग ने भी 2014 में आदर्श आचार संहिता में संशोधन किया और राजनीतिक दलों से कहा कि वे घोषणापत्रों में किये वादों को पूरा करने के लिए पैसा कहां से लाएंगे, वादे किस तरीके से पूरा करेंगे, ये साफ साफ बताएं। आयोग ने सिर्फ सलाह दी, इसने पार्टियों को लोकलुभावन घोषणाएँ करने से नहीं रोका।
दरअसल, लोकलुभावन घोषणाएँ करके और ख़ैरात देने की पेशकश करके राजनीतिक दल जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाते रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और मजबूत स्वास्थ्य सेवा लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए अभिन्न अंग हैं। लेकिन इनकी हालात बेहद खराब है। पानी, सीवरेज, सड़कें, ट्रैफिक मैनेजमेंट, स्ट्रीट लाइटिंग जैसी बुनियादी सुविधाएं और सेवाएं खराब बनी हुई हैं। कानून का शासन कमज़ोर है। पुलिसिंग लचर है, जन फ्रेंडली नहीं बन सकी है। न्यायपालिका में लंबित मामलों का अम्बार है और न्याय में देरी अकल्पनीय है। पर्यावरण की ऐसी तैसी है। खेती घाटे का सौदा है। राजनीति में अपराधियों की निर्बाध एंट्री है। अफसरों-दफ्तरों में भ्रष्टाचार अनियंत्रित है। मिडिल क्लास लावारिस जैसा पड़ा हुआ है। सीनियर सिटीजन की बुरी दशा है। ऐसे अनेकों जन मुद्दे हैं। फेहरिस्त लम्बी है।
होने को तो राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में इन वास्तविक मुद्दों को संबोधित किया जाना चाहिए जो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हैं। जो जनता के एजेंडे हैं। लेकिन चूंकि वोट को जनता की भलाई से अलग कर दिया गया है। फोकस धन, मुफ्त, छूट और खैरात के रूप में दिए जाने वाले अल्पकालिक लाभ पर बना दिया गया है।
दरअसल, हमारे द्वारा चुकाए जाने वाले टैक्स और बदले में हमें मिलने वाली सेवाओं के बीच संबंध हमारे दिमाग में स्पष्ट रूप से स्थापित ही नहीं है। हम सोच ही नहीं पाते कि सार्वजनिक धन सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के लिए है।
घोषणापत्र महज वादों में तब्दील हो गए क्योंकि हमने ही उनको ऐसा होने दिया। खैरात की उतनी उत्कंठा बन चुकी है कि जीवन स्तर सुधारने की सुधि ही नहीं बची। राजनीतिक दलों और राजनीति को दोष देना बेकार है। बदलाव हमें अपने भीतर लाना होगा। जवाबदेही मांगनी होगी। सोचिए और समझिए।
(लेखक पत्रकार हैं ।)