Lok Sabha Election: इस बार भी अछूता नहीं है चुनाव में जातीय रंग

Lok Sabha Election: लोकसभा चुनाव के सातवे चरण के मतदान से पहले इन सभी 13 सीटों पर जातीय असर साफ दिख रहा है

Report :  Jyotsna Singh
Update: 2024-05-28 07:31 GMT

Lok Sabha Election ( Social Media Photo)

Lok Sabha Election: देश के चुनावी इतिहास में 1989 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से हर चुनाव में जो जातीय रंग देखने को मिला वह हर चुनाव में आज भी देखने को मिल रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर बिहार के बाद उत्तर प्रदेश में ही देखने को मिल रहा है। हर दल का अपना बड़ा वोट बैंक कायम है।2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव तथा 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में जातीय रंग कुछ फीका पड़ा लेकिन इस चुनाव के हर चरण में इसका असर दिखाई दिया है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                              लोकसभा चुनाव के सातवे चरण के मतदान से पहले इन सभी 13 सीटों पर जातीय असर साफ दिख रहा है। वाराणसी के अलावा सातवें चरण में पूर्वी उत्तर प्रदेश की चंदौली, मिर्जापुर, बलिया, गाजीपुर, घोसी, राबर्ट्सगंज, सलेमपुर, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, महाराजगंज और बांसगांव सीटों पर मतदान होना है। पूर्वांचल के जिलों में सबसे अधिक छोटी पार्टियों का असर है।यही कारण है भाजपा ने इन दलों को जोड़ने का काम किया है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में वापसी की। वहीं मऊ जिले के घोसी से समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक दारा सिंह चौहान ने भी समाजवादी पार्टी (सपा) से इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल हो गए। उत्तर प्रदेश में राजभरों को एक महत्वपूर्ण ओबीसी समूह माना जाता है। ये यूपी की आबादी का केवल 3 प्रतिशत माने जाते हैं। गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ और वाराणसी सहित पूर्वी यूपी की एक दर्जन से ज्यादा लोकसभा सीटों पर इनका प्रभाव माना जाता है।


उल्लेखनीय है कि यूपी में सपा और बसपा की राजनीति की शुरूआत कांग्रेस के विरोध से हुई। पहले बात सपा की की जाए तो सपा का कोर वोट बैंक यादव और मुस्लिम माना जाता रहा है। दिवंगत सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव से लेकर उनके पुत्र पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तक यादव और मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता में रहे। बहुजन समाज पार्टी का कोर वोट बैंक एससी-एसटी को माना जाता है। बाबा साहब डा. भीमराव आंबेडकर और कांशीराम के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती अपने को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी मानती हैं। सपा बसपा का वोट बैंक किसी जमाने में कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता था। कांग्रेस को सवर्णों का भी समर्थन हासिल था। लेकिन पिछले तीन दशकों में कांग्रेस यूपी में अपनी सियासी जमीन काफी हद तक खो चुकी है।  भारतीय जनता पार्टी को अपने कोर वोट बैंक के अलावा ओबीसी, दलितों और कम मात्रा में ही सही मुस्लिम वोटरों का समर्थन हासिल है। अपना दल की कुर्मी बिरादरी में अच्छी पकड़ मानी जाती है।


सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के साथ पूर्वांचल के करीब 18-20 प्रतिशत राजभर मतदाता होने का दावा किया जाता रहा है। सुभासपा की बंसी, आरख, अर्कवंशी, खरवार, कश्यप, पाल, प्रजापति, बिंद, बंजारा, बारी, बियार, विश्वकर्मा, नाई और पासवान जैसी उपजातियों पर भी मजबूत पकड़ मानी जाती है। निषाद पार्टी के कोर वोट बैंक केवट, बिंद, मल्लाह, कश्यप, नोनिया, मांझी और गोंड की आबादी उत्तर प्रदेश में लगभग 18 फीसदी है। ये जातियां उत्तर प्रदेश की करीब 5 दर्जन विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखती है। राष्ट्रीय लोक दल की पश्चिमी यूपी में जाट बिरादरी पर मजबूत अच्छी पकड़ मानी जाती है।यूपी की राजनीति में जातीय समीकरण का बड़ा खेल हमेशा से माना जाता रहा है। जातीय आंकड़ों पर गौर करें तो ओबीसी यानी पिछड़ों का प्रतिशत 40 पार करता हुआ दिखाई दे रहा है। अनुसूचित जाति और जनजाति की आबादी प्रदेश में 21 प्रतिशत के आसपास बताई जाती है। मुस्लिम मत प्रतिशत करीब 19.5 प्रतिशत के आसपास होता है। एनडीए और इंडिया गठबंधन इस चुनाव में इन्हीं जातीय समीकरणों के आधार पर ही उम्मीदवारी तय कर रहे हैं।


यूपी में एनडीए के बैनर तले भारतीय जनता पार्टी के साथ रालोद, अपना दल सोनेलाल, सुभासपा और निषाद पार्टी का गठबंधन है। बीजेपी 74 सीटों पर चुनाव लड़ रही है तो वहीं गठबंधन में शामिल अपना दल और रालोद को दो-दो और सुभासपा और निषाद पार्टी को एक-एक सीट मिली हैं।विपक्ष के इंडिया गठबंधन में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस इंडिया मुख्य रूप से शामिल हैं। सपा के साथ अपना दल कमेरावादी, तृणमूल कांग्रेस और आजाद समाज पार्टी भी है। गठबंधन के बटवारे में 63 सीटें सपा और 17 सीटें कांग्रेस को मिली हैं। सपा ने अपने हिस्से की एक सीट भदोही तृणमूल कांग्रेस को दी है। कहा जा रह है कि सपा अपना दल कमेरावादी और चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी को भी एक-एक सीट दे सकती है।

भाजपा के पास अपने कोर वोटरों के अलावा सहयोगी दलों रालोद, अपना दल सोनेलाल, सुभासपा और निषाद का भी मजबूत वोट बैंक है। डबल इंजन की सरकार के कार्यों और सबके विकास की नीति ने एनडीए को बढ़त मिलती दिखती है। कई ओपनियन पोल में भी यूपी में एनडीए का पलड़ा भारी बताया गया है। भाजपा के मिशन-80 के विजय रथ को थामने के लिए समाजवादी पार्टी का अबकी पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) पर पूरा भरोसा है। बसपा से खिसकते दलित वोट बैंक को सपा के साथ ही कांग्रेस भी हथियाने की कोशिश में है। सपा-कांग्रेस गठबंधन को उम्मीद है कि दलित-मुस्लिम गठजोड़ से उन्हें अबकी चुनाव में लाभ होगा।


2019 के आम चुनाव में एनडीए में बीजेपी और अपना दल सोनेलाल एक साथ मिलकर लड़ा था और एनडीए का 51.19 प्रतिशत वोट शेयर रहा था। जिसमें बीजेपी के खाते में 49.98 प्रतिशत और अपना दल (एस) को 1.21 प्रतिशत वोट शेयर मिला था। वहीं महगठबंधन (बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल) को 39.23 प्रतिशत वोट शेयर मिला था। जिसमें बसपा को 19.43 प्रतिशत, सपा को 18.11 प्रतिशत और रालोद को 1.69 प्रतिशत वोट मिला था। इसके अलावा कांग्रेस को इस चुनाव में 6.36 वोट शेयर मिला था। इस बार समीकरण बदल हुआ है। एनडीए में बीजेपी, अपना दल सोनेलाल, रालोद, सुभासपा और निषाद पार्टी है। इंडिया गठबंधन में सपा और कांग्रेस है। रालोद इस बार एनडीए के साथ है, और फिलवक्त बसपा किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं है। ऐसे में हर लिहाज से भाजपानीत एनडीए का पलड़ा भारी दिखाई देता है।

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